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साल पूराः अब अच्छे दिन लाइए

चहूं ओर मोदी हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर तरफ नजर आ रहे हैं। पिछले एक साल में जितनी भी योजनाएं शुरू की गईं, वे सब उन्होंने शुरू कीं। देश-विदेश में रणनीति-कूटनीति उनके कंधों पर ही है। सोशल मीडिया में इस देश के वास्कोडीगामा कहे जाने वाले इस प्रधानमंत्री ने एक साल के भीतर 18 देशों की यात्रा कर ली। यहां तक कि जब उनकी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है तब भी वह विदेशी जमीन पर नए श्रोताओं से मुखातिब हो रहे हैं। उनके समर्थक इसे नई गतिशील कूटनीति बताते हैं तो आलोचक इसे देश की समस्याओं से मुंह मोडऩा कहते हैं।
साल पूराः अब अच्छे दिन लाइए

अच्छे दिन लाने का लुभावना नारा देकर जबर्दस्त बहुमत के साथ सत्ता पर आसीन हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अर्थव्यवस्था के अहम क्षेत्रों में  ग्राफ लुढक़ने से चिंता होनी चाहिए। तमाम वादों के बीच कोर क्षेत्रों में नकारात्मक वृद्धि दर दर्ज की जा रही है। परियोजनाओं की घोषणाओं का तो अंबार है लेकिन पॉलिसी और क्रियान्वयन के स्तर पर मामला बेहद लचर है। स्वच्छ भारत से लेकर मेक इन इंडिया, जन धन योजना से लेकर स्मार्ट सिटी की घोषणाओं की बुलेट ट्रेन तो नरेंद्र मोदी ने दौड़ा दी, लेकिन इन्हें अमल में कैसे और कब तक लाया जाएगा, इसकी कोई रूपरेखा नहीं है।

ऐसा कहने वालों में सिर्फ उनके विरोधी ही नहीं बल्कि खुद उनके खेमे के लोग शामिल हैं। पिछली एनडीए सरकार में विनिवेश और वाणिज्य मंत्री रहे अरुण शौरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर गंभीर सवाल उठा ही चुके हैं, जिसमें उन्होंने बताया भी कि किस तरह अति केंद्रीकृत नेतृत्व में सिर्फ कुछ के हित सध रहे हैं। पिछली एनडीए सरकार के थिंक टैंक रहे मोहन गुरुस्वामी भी यह कहने को मजबूर हैं कि मोदी द्वारा जगाए गए उक्वमीदों के बुलबुले की हवा निकल रही है  और आर्थिक मोर्चे पर इस सरकार को वह बी ग्रेड ही देते हैं। आखिर यह सवाल नई सरकार को घेर ही रहा है कि जिस चमचमाते विकास के वादे से वह अर्थव्यवस्था को कहां से कहां पहुंचाने की आशा लोगों की आंखों में जगाकर दिल्ली की सत्ता तक पहुंची थी, उसके जाम चक्के खुलने में देर क्यों हो रही है।  न निवेश आ रहा है, न ही मेक इन इंडिया रंग जमा पा रहा है और न भी रोजगार सृजन हो पा रहा है। ये सवाल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अंदर भी मुंह बाए है लेकिन सबके सामने बोलने को सरकार के भीतर से तो कोई तैयार होगा नहीं और बाहर जो बोले सो कोप का भाजन बने, वाला हाल है। हालांकि थोक मुद्रास्फीति दर कम है पर आम आदमी बढ़ती खुदरा महंगाई की मार से तबाह है। दालों से लेकर रोजमर्रा की तमाम चीजों में जबर्दस्त उछाल आया हुआ है। अर्थशास्त्री जया मेहता का कहना है कि आंकड़ों में बाजीगिरी करके मुद्रास्फीति को कम दिखाने में सरकार माहिर है लेकिन इससे लोगों पर पडऩे वाली मार कम नहीं हो जाती है। लगातार गिरावट की राहत देने के बाद पेट्रोल-डीजल की कीमतों में ताजा उछाल से हर तरफ तेजी है और लोगों की जेबें हल्की हो रही हैं।

उधर, निवेश की दुनिया भी लुभावनी नहीं नजर आ रही है। संस्थागत विदेशी निवेश (एफआईआई), जिस पर इस सरकार को बहुत भरोसा था, देश छोडक़र चीन की ओर रुख कर रहा है। त्वरित पर्यावरण मंजूरियों के बावजूद सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक नौ लाख करोड़ रुपये की परियोजनाएं अटकी हुई हैं।

ऐसा तब हो रहा है जब नई सरकार का सारा जोर, सारे भाषण, सारे नारे ही विकास-वृद्धि के बारे में थे और हैं। नई सरकार का एक साल पूरा होने पर तमाम अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा के बजाय हम अर्थव्यवस्था की स्थिति की पड़ताल करते हैं। आखिर नई सरकार का सारा जोर चुनाव प्रचार के दौरान से ही इस बात पर था कि अर्थव्यवस्था को चमका दिया जाएगा। इसकी खस्ता हालत को वापस सही पटरी पर ला दिया जाएगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर लंबित आर्थिक सुधारों वाले विधेयकों को पारित किया जाएगा, निवेश के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाएगा। क्या ऐसा हो पाया? अगर नहीं तो इसकी क्या वजह है? इसकी पड़ताल हम आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की नजर से ही करना शुरू करते हैं। देखते हैं कि जो खेमा एक साल पहले मोदी की विजय का बिगुल बजा रहा था, आज वह कहां खड़ा है।

भारत में गहरी दिलचस्पी रखने वाले स्विस निवेशक मार्क फेबर का कहना है कि सरकार के दावे के उलट भारत की अर्थव्यवस्था महज सालाना पांच फीसदी ही बढ़ रही है। औद्योगिक उत्पादन की स्थिति भी खराब है और इस मोर्चे पर भारत की स्थिति सुधरी नहीं है। इसके साथ ही, फेबर एक बुनियादी सवाल भी उठाते हैं, जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर निवेश प्रभावित होने की खबर है। फेबर का कहना है कि सरकार द्वारा जारी किए गए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के हालिया आंकड़े कई आर्थिक मापदंडों से मेल नहीं खाते। निवेशक सिर्फ अर्थव्यवस्था की गति से ही नहीं प्रभावित होते हैं बल्कि वे नए आंकड़ों से भी भ्रमित हो जाते हैं। उनकी इस बात से सहमत रेटिंग एजेंसी इंडिया एक्विटी स्ट्रैटेजिस्ट के नीलकांत मिश्रा के अनुसार इन आंकड़ों से विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर से विश्वास डगमगा गया है। उनके पास भरोसेमंद मापक, सूचक नहीं हैं, जिनपर वे विश्वास कर सकें। इसी दरम्यान रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया तथा वित्त मंत्री अरुण जेटली के बीच ब्याज दरों को लेकर चली खींचतान से भारत की छवि और धूमिल हुई है। दरअसल, पहली बार भारत में सकल घरेलू उत्पाद की गणना मात्रा के बजाय मूल्य के आधार पर शुरू की गई। इससे आंकड़ों में जबर्दस्त उछाल आया। ऐसा मोदी सरकार ने अचानक ही किया और इस बदलाव को पुराने आंकड़ों में नहीं शामिल किया गया। न ही 2014-15 या 15-16 के आंकड़ों को पुराने मानकों पर कसा गया। इसलिए पुराने और नए आंकड़ों में कोई तुलना नहीं की जा सकती यानी अर्थव्यवस्था की असल स्थिति का पता नहीं लगाया जा सकता।

नए मानकों के हिसाब से वृद्धि दर में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। मानकों में अंतर का साफ असर दिखाई दे रहा है। वर्ष 2012-13 में विकास दर 4.7 से बढ़कर 4.9 फीसदी हुई, 2013-14 से यह बढ़कर 6.9 फीसदी हुई और 2014-15 में यह 7.4 हुई और 2015-16 के लिए अनुमानित दर 8.5 बताई जा रही है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि वृद्धि दर में तुलनात्मक तब्दीली की गणना, मानकों में तब्दीली की वजह से बेहद मुश्किल हो जाती है। पहले के सालों की तुलना में अर्थव्यवस्था के हालात अच्छे हो रहे हैं या खराब, यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है। संख्या की तुलना में मूल्य हमेशा अधिक होगा, लिहाजा अगर नई सरकार दोनों आधारों पर गणना करती तो सही तस्वीर उभर कर सामने आती। इससे पहले भी पूर्व एनडीए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय तत्कालीन विîा मंत्री यशवंत सिन्हा ने लघु बचत को पब्लिक अकाउंट में हस्तांतरित किया था। इससे वित्तीय घाटा कम हुआ था लेकिन इसके साथ ही पिछले 10 सालों का आंकड़ा भी तैयार किया गया था, ताकि सही ढंग से तुलनात्मक विवेचना हो सके। ऐसा इस सरकार ने नहीं किया इसलिए निवेशकों और उद्योगपतियों को भी विश्वास नहीं हो पा रहा है। निवेश का सेंटिमेंट नहीं बन पाया है। दिक्कत यह भी है कि निवेश का चक्र फिर से नहीं शुरू हो पा रहा। इसकी वजह यह है कि प्रधानमंत्री की घोषणाएं क्रियान्वयन और नीति में व्यक्त नहीं हो रही हैं। इससे बड़े पैमाने पर निवेशकों में हताशा फैली है। उनमें सरकार की नीतियों को लेकर अब भी दुविधा बनी हुई है। न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) को लेकर सरकार की दुविधा पर विîा मंत्री अरुण जेटली की खासी आलोचना हुई। यह प्रकरण भी मजेदार रहा। कैसे उद्योगपतियों के लिए बेहद मेहरबान सरकार भी फंस जाती है, यह पूरा मामला इसकी नजीर है। शुरू में वित्त मंत्रालय से यह आदेश गया कि 31 मार्च 2015 तक विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) द्वारा कैपिटल लाभ पर  मैट न दिए जाने पर सख्त कार्रवाई होगी। इस पर हंगामा मचा और पहले से ही भारत से भाग रहे एफआईआई को देश छोडऩे का मानो बहाना मिल गया। इससे घबराकर मंत्रालय ने फिर इस आदेश को रोक दिया। लेकिन तब तक तो नुकसान हो चुका था।

नव-उदारवादी अर्थशास्त्री और नेता मोदी सरकार से इस बात के लिए तो खुश हैं कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की तरह खाद्य सब्सिडी और मनरेगा जैसे सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों पर खर्च के दिन लदने वाले हैं। इससे भी कि कॉरपोरेट करों में कमी हो रही है और कारपोरेट को अनुदान मिल रहा है लेकिन दिक्कत इस बात से है कि जितना एक साल में निवेश आना चाहिए था, कोर क्षेत्र में विकास होना चाहिए था, वह नहीं हो रहा है। साथ ही वे कई नीतिगत मामलों में सरकार की दुविधा से भी नाराज हैं। खास तौर से वित्त मंत्री अरुण जेटली का यह कथन कि भारत कोई कर छूट का स्वर्ग नहीं है, निवेशकों के लिए बहुत खराब संकेत देने वाला था। यानी उन्हें छूट चाहिए और वह भी असीमित। इस असीमित छूट से भी कोई लाभ होगा कि नहीं और लाभ होगा तो अकेले अडानी सरीखे चंद करीबी उद्योगपतियों या औरों को भी होगा, बाकी तो नहीं, यह अलग बहस का मुद्दा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अटल प्रशंसक रतन टाटा केंद्र सरकार के प्रति फैल रहे नकारात्मक प्रभाव का क्षति नियंत्रण करने के अंदाज में कहते हैं कि इतनी जल्दी अंतिम धारणा नहीं बनाई जानी चाहिए, अभी मोदी को और समय दिया जाना चाहिए। इसमें भी बहुत मोलभाव करने का अंदाज दिखाई देता है कि अब जल्द से जल्द हमारे लिए अच्छे दिन ले आओ, जिसका वादा किया था, वरना हम भी नाखुशों की जमात में शामिल हो जाएंगे। गोदरेज समूह के आदि बी. गोदरेज का कहना है कि ताजा निवेश के लिए बिजनेस करने में आसानी बेहद जरूरी तत्व है। कुछ चीजें बदली हैं लेकिन जितनी उम्मीद थी, उतनी तो बिल्कुल भी नहीं।

आइए नजर डालें अर्थव्यवस्था के हाल पर कुछ आंकड़ों के जरिये। अर्थव्यवस्था के कोर उद्योग गहरे संकट से जूझ रहे हैं। मार्च 2015 में कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी उत्पाद, उर्वरक, बिजली, इस्पात और सीमेंट यानी आठ कोर उद्योगों में 0.1 फीसदी की नकारात्मक वृद्धि दर दर्ज की गई। इस्पात, सीमेंट और रिफाइनरी उत्पादों के उत्पादन में तीखी गिरावट दर्ज की गई। ध्यान देने की बात है कि पिछले साल यानी 2014 में उत्पादन में 4 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी।

मेक इन इंडिया के नारे की गूंज हो या फिर निवेश, उत्पादन, रोजगार में इजाफे का दावा हो-इनमें से कुछ भी पिछले एक साल हकीकत में नहीं तब्दील हुआ। 2014-15 के पूरे वित्त वर्ष के दौरान आठ क्षेत्रों की विकास दर पिछले साल (मार्च 2014) की 4.2 फीसदी से गिरकर 3.5 हो गई। रेटिंग एजेंसी आईसीआरए के अनुसार कोर क्षेत्र उत्पादन में गतिरोध और व्यापार में टकराहट की वजह से औद्योगिक वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।  पिछले साल नवंबर से कोर क्षेत्र की वृद्धि दर में लगातार गिरावट आ रही है। नवंबर 2014 में यह 6.7 फीसदी थी, जो दिसंबर में गिरकर 2.4 फीसदी हुई और जनवरी में 1.8 फीसदी हो गई। ये आठ कोर क्षेत्र कुल औद्योगिक उत्पादन का 38 फीसदी योगदान करते हैं। हालांकि इस दौरान कोयला उत्पादन में 6 फीसदी, कच्चे तेल में 1.7 फीसदी और उर्वरक उत्पादन में 5.2 फीसदी की वृद्धि 2014-15 के आखिरी महीने में दर्ज की गई।

इस पूरे परिदृश्य पर वरिष्ठ अर्थशास्त्री और योजना आयोग के पूर्व सदस्य अभिजीत सेन ने आउटलुक को बताया कि अभी सिर्फ बातें हो रही हैं, हो कुछ नहीं रहा है। एक साल में विकास की गाड़ी अभी शुरू ही नहीं हो पाई है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर की पूरी अवधारणा में ही गहरी समस्या है। और यह सिर्फ जीडीपी वृद्धि के साथ ही नहीं, वृद्धि की ही अवधारणा में गहरी समस्या है। इसके इर्द-गिर्द आंकड़ों को मनमाफिक ढंग से उछालने का खेल चल निकला है। इससे भ्रम पैदा किया जा रहा है। असल तस्वीर ही सामने नहीं आ रही। इसके साथ ही उन्होंने नीतिगत खामियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि योजना आयोग को भंग करने के बाद नई सरकार ने जो नीति आयोग बनाया है, वह तो एक थिंक टैंक है। योजना का केंद्र अभी उभरा नहीं है। शायद इसी की कमी या अंतरविरोध हर क्षेत्र में दिखाई दे रहा है।

सारी घोषणाओं, योजनाओं, सहमति पत्रों, रक्षा सौदों....यानी देश में केंद्र सरकार के स्तर पर जो भी घटित हो रहा है, उसकी कमान अकेले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके प्रधानमंत्री कार्यालय के पास है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले एक साल में जर्बदस्त घोषणाएं कीं, जिन्हें खूब प्रचार-प्रसार भी मिला। लेकिन इन घोषणाओं को अमली जामा पहनाने के लिए जो स्वरूप तैयार होना चाहिए, वह नहीं हुआ। यह बात स्वच्छ भारत से लेकर मेक इन इंडिया, बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ से लेकर स्मार्ट सिटी तक पर लागू होती है। खबर है कि स्मार्ट सिटी परियोजना जिसके जरिये सरकार बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश को आकर्षित करने का लक्ष्य पाले हुए है, उसमें इन्फ्रास्ट्रक्चर वित्त कंपनियां साथ रहने की इच्छुक नहीं हैं। वजह। इन परियोजनाओं में रिटर्न यानी लाभ मिलने की कोई रूपरेखा नहीं है। आईआईएफसीएल के कई अधिकारियों का मानना है कि उन्हें अपने शेयरधारकों के निवेश पर कमाई का अवसर (रिटर्न) देखना जरूरी होता है, ऐसा अभी कुछ नहीं दिखाई दे रहा, लिहाजा वे इच्छुक नहीं हैं। यही आलम बाकी घोषणाओं और परियोजनाओं का है। राज्यसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद डी.राजा ने बताया निवेश को लेकर इतना हंगामा मचाने वाली मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही। मोदी सरकार जन निवेश के तमाम क्षेत्रों में कटौती कर रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, दलित-आदिवासी सभी मदों में भारी कटौती करके लोगों के पास से खर्चे के लिए धन की कमी कर दी। डी. राजा का कहना है कि इस सरकार के पास अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए कोई नया विचार नहीं है। अभी तक वह पिछली सरकार के एजेंडे, उसी के  द्वारा तैयार किए गए कानूनों में रद्दोबदल करके चल रही है। जब विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर हो, अमेरिका, यूरोपीय यूनियन तक संकट में फंसे हो, तब अपने आधार को मजबूत करने के बजाय विदेशी निवेशकों की बाट जोहना खतरनाक है। जनता दल (यूनाइटेड) के राज्यसभा सांसद केसी त्यागी का कहना है कि जिस तरह इस सरकार में सारी शक्तियां प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित कर दी गई हैं, उससे किसी भी तरह का विकास संभव नहीं है। एक साल में दिख गया कि अर्थव्यवस्था की गाड़ी पहले से ज्यादा अटक गई।

भारतीय ब्रोकेज कंपनी कोटेक इंस्टीट्यूशनल

इक्विटीज का आकलन है कि मार्च 2015 तक 30 सेंसेक्स में दर्ज कंपनियों की लाभ दर 3 फीसदी से कम रही। सीमेंट, मैन्युफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्‍शन उद्योग में कंपनियों के लिए बेहद कठिन दौर है। यहां भीषण मंदी है। रियल एस्टेट संकट ग्रस्त है।  वरिष्ठ अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी ने आउटलुक को बताया कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस गई है। यह एक तरह का दुष्चक्र है। ये (मोदी सरकार) सरकार उद्योगपतियों को खुश करने के लिए सब करने को तैयार है लेकिन फिर भी गाड़ी आगे नहीं बढ़ रही। उनके हिसाब वाला विकास भी नहीं हो पा रहा है। इसकी ठोस वजह है, और वह यह कि इस रास्ते पर विकास संभव ही नहीं है। उद्योगीकरण के लिए बेहद सस्ती दर पर उद्योगपतियों को जमीन देना चाहती है। इसके लिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने को कानूनी जामा पहनाने के लिए साम-दाम-दंड भेद सब आजमा रही है। सवाल है कि अगर यह पारित हो जाएगा तो क्या इससे विकास और निवेश का अटका चक्र चल निकलेगा, अमित भादुड़ी कहते हैं, 'मेरा कहना है कि नहीं। ऐसा होने से लोकतंत्र का स्वभाव बदलेगा और विरोध तथा आक्रोश के बीच तमाम विकास ठप्प हो जाएगा।’ अमित भादुड़ी के तर्क में दम है क्यांेकि अगर सिर्फ जमीन पर कब्जे से विकास होना होता तो सेज के तहत कब्जा की गई आधी से अधिक जमीन बिना उपयोग के न पड़ी रहती। निजी निवेश का माहौल इस तरह बिगाड़ा जा रहा है कि अडानी जैसे एक उद्योगपति के लिए तमाम नियम कायदे ताक पर रखकर बंदरगाह से लेकर रक्षा क्षेत्र तक का कारोबार खोला जा रहा है। इससे बाकी उद्योगपतियों के बीच में विश्वास कैसे पैदा होगा कि सबके लिए बराबरी के अवसर हैं।

ये तमाम पहलू अर्थव्यवस्था को उबरने से रोक रहे हैं। पिछली एनडीए सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा अपने पुराने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि ब्याज के दरों में कटौती के जरिये निवेश के पक्ष में माहौल बनाया जा सकता है। उनका कहना है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था सेंटिमेंट के आधार पर चलती है, निवेशकों का भरोसा बचाए रखना जरूरी है। हालांकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि यह एक साल पूरी तरह निराशाजनक रहा, एनडीए ने कुछ नहीं किया। उनका कहना है कि जितनी तेजी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ग्राफ नीचे आया, वह अपने आप में ऐतिहासिक है। हिंदुत्व, घर वापसी, अल्पसंख्यकों पर हमलों पर पहले से घिरी मोदी सरकार का एक साल के भीतर आर्थिक उदारीकरण के प्रबल योद्धा के तौर पर भी ग्राफ गिरने लगा है।

 

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