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पूंजी आई नहीं, कर्ज डुबोया, गरीब भूखा

पिछले एक साल में औद्योगिक विकास अटका, बिजली की मांग में आई गिरावट, बैंक डूबे कर्ज के बोझ में, भूख और कुपोषण में भारत रहा अव्वल
पूंजी आई नहीं, कर्ज डुबोया, गरीब भूखा

पिछले एक साल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार निवेश लाने, मेक इन इंडिया करने की जबर्दस्त मार्केटिंग कर रही है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि एक साल में निवेश के मामले में भारत की स्थिति जस की तस है। जिस तरफ सारा ध्यान दिया गया और नीतियों में परिवर्तन किया गया, उस दुनिया से भी जो खबरें मिल रही हैं वह आने वाले सालों में स्थिति और खराब रहने की ओर ही इशारा कर रही है। आईएमडी वर्ल्ड कंपीटिटिवनेस सेंटर की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल भी भारत 44वें नंबर पर था और इस साल भी 44वें पर ही है। 

भारत भूख और कुपोषण में अव्वल

केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर खर्चों में कटौती कर रही है, वहीं दूसरी तरफ विश्व का पहले नंबर का भूखा और कुपोषित देश बना हुआ है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दुनिया का हर चौथा भूखा और कुपोषित व्यक्ति रहता है। भारत में भूखे और कुपोषित व्यक्तियों की संक्चया 19 करोड़ 40 हजार के करीब है। इस तरह  भूख और कुपोषण के क्षेत्र में भारत ने चीन को पछाड़ दिया है और इस समय वह दुनिया में अव्वल है। ऐसे माहौल में गरीबों को सुरक्षा देने वाली योजनाओं जैसे मनरेगा, खाद्य सुरक्षा आदि के बजट में कटौती आने वाले सालों में भारत को और विषम परिस्थिति में पहुंचा सकती है।

 डूबे कर्ज ने डुबोया

इससे भी बड़ा खतरा अर्थव्यवस्था पर डूबे कर्ज में अपूर्व बढ़ोतरी है। इसमें भी इरादतन कर्ज न चुकाने वालों में 90 फीसदी की खतरनाक वृद्धि से अर्थशास्त्रियों के होश उड़े हुए हैं। क्रेडिट इन्फॉरमेशन ब्यूरो (इंडिया) लिमिटेड के अनुसार दिसंबर 2014 तक इरादतन कर्जा न चुकाने वालों की राशि पिछले साल के 23,427 करोड़ रुपये से बढक़र 44,465 करोड़ रुपये हो गई, जो अभी तक सर्वाधिक है। गौरतलब है कि यह राशि कुल डूबे कर्ज का महज 15 फीसदी है। सवाल यह है कि यह पैसा कहां गया और बैंक कैसे इसकी वसूली करेंगे। नहीं कर पाएंगे तो अर्थव्यवस्था कैसे पटरी पर आएगी।

 बिजली की मांग गिरी

इसके साथ ही ऊर्जा क्षेत्र बुरी तरह बैठ रहा है और इसका सीधा रिश्ता औद्योगिक गिरावट से है। 'अच्छे दिनों’ के पैरोकार औद्योगिक क्षेत्र की हालत सुधरने के जो भी दावे करें लेकिन अगर बिजली की मांग के आधार पर मूल्यांकन किया जाए तो बिल्कुल दूसरी तस्वीर उभरती है। यह बड़ा सीधा-सा गणित है कि अगर औद्योगिक उत्पादन में तेजी आएगी तो बिजली की खपत बढ़ेगी। लेकिन यह खपत बढ़ नहीं रही, वह भी भीषण गर्मी के इस मौसम में जब बिजली की मांग हमेशा चरम पर रहती है। आधिकारिक आकड़ों के अनुसार, देश में 2,68,603 मेगावाट की कुल बिजली उत्पादन क्षमता की तुलना में 23 मई को चरम मांग केवल लगभग आधी 1,34,892 मेगावाट थी। पिछले साल के इसी दिन की तुलना में देखें तो 23 मई 2014 को चरम मांग इससे कुछ ही नीचे 1,29,575 मेगावाट थी।

57 ताप बिजलीघर-रिर्जव शटडाउन में

हाल यह है कि देशभर में 57 ताप बिजलीघर इकाइयां मांग न होने के कारण 'रिजर्व शटडाउन’ का सामना कर रही हैं। यह दरअसल मांग न होने के कारण किसी इकाई के बंद होने का तकनीकी लफ्ज है। इस शटडाउन का सामना कर रही इकाइयों की कुल उत्पादन क्षमता 10,000 मेगावाट से ऊपर है। चिंता की बात यह है कि इनमें से कुछ इकाइयां तो कई दिनों से (कुछ महीनों से भी) बंद हैं। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में चंद्रपुर सुपर थर्मल पावर स्टेशन की 500 मेगावाट की यूनिट 8 का शटडाउन 29 मार्च को हुआ था और तब से वह फिर चालू नहीं हुई है। इसी तरह मध्य प्रदेश में सिंघाजी थर्मल पावर स्टेशन की 600 मेगावाट की दो इकाइयां अप्रैल के शुरुआत में बंद हो गई थीं।

 औद्योगिक विकास अटका

लगभग 30 अन्य इकाइयां ऐसी भी हैं जो सरकारी आंकड़ों में तकनीकी दिक्कतों की वजह से बंद हैं। इन दिञ्चकतों में सबसे आम है- 'वाटर वाल ट्यूब लीकेज’। इन आंकड़ों को इकट्ठा करने वाले केंद्रीय बिजली प्राधिकरण के एक अधिकारी के अनुसार इन आंकड़ों से सबसे परेशान करने वाला तथ्य यह सामने आता है कि 'वाटर वाल ट्यूब लीकेज’ जैसी दिक्कत को दुरुस्त करने में केवल कुछ दिनों का समय लगना चाहिए। लेकिन ये महीनों से बंद हैं। यानी मांग नहीं है।

मंदी और बंदी 

ग्रिड प्रबंधन करने वाली पोसोको के अनुसार 23 मई को पारंपरिक बिजलीघरों (नॉन-रीन्यूएबल) की कुल स्थापित 2,36, 910 मेगावाट की क्षमता में से 47,751 मेगावाट की क्षमता आधिकारिक रूप से बंद पड़ी थीं, इनमें रिजर्व शटडाउन वाली यूनिटें भी शामिल हैं। इस तरह देश की कुल बेस लोड क्षमता का 20 फीसदी से ज्यादा यानी हर पांच में से एक इकाई बंदी का शिकार है। अब बिजली की खपत के इन आंकड़ों को अर्थव्यवस्था के बाकी मानकों के साथ मिलाकर समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर पिछले 12 महीने में परियोजनाओं के अटकने की बड़ी वजह उन्हें शुरू करने में प्रवर्तकों की अरुचि बताई जाती है। सीएमआईई द्वारा रुकी पड़ी परियोजनाओं के बारे में इकट्ठे किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि निवेश करने में प्रवर्तकों की अरुचि के कारण पिछले वित्तीय वर्ष में कुल 69,600 करोड़ रुपये निवेश मूल्य की 132 परियोजनाएं रुकी रहीं। यह कुल अटकी पड़ी 598 परियोजनाओं का लगभग पांचवां हिस्सा है। यह परियोजनाओं के लंबित रहने के अब तक सामने आने वाले आम कारणों से भी अलग है।

खराब नतीजे

पूंजीगत वस्तु उद्यमों के लगातार संघर्ष से भी औद्योगिक पुनरुत्थान की कहानी खारिज होती है। उदाहरण के तौर पर भारी उपकरण बनाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड ने पिछले पांच सालों के सबसे खराब नतीजे दर्ज किए। वर्ष 2014-15 के अपने तदर्थ आंकड़ों में उसने अपने टर्नओवर में 24 फीसदी की तेज गिरावट दर्ज की है। इसी तरह देश की सबसे बड़ी इंजीनियरिंग व निर्माण फर्म एल एंड टी के दिन भी अच्छे नहीं हैं और उसने इस साल पहले ही अपनी ऑर्डर बुक पोजीशन में दो बार कटौती दिखा दी है।

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