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भारत के सबसे खतरनाक पुलिस अफसरों की कहानी, जिन्होंने 500 से ज्यादा माफिया निपटाए

- रिषभ "जब हमने शुरू किया था तब एक दिन में 33 रंगदारी मांगने के केस होते थे। बिना फोन आए आप मर्सिडीज नहीं...
भारत के सबसे खतरनाक पुलिस अफसरों की कहानी, जिन्होंने 500 से ज्यादा माफिया निपटाए

- रिषभ

"जब हमने शुरू किया था तब एक दिन में 33 रंगदारी मांगने के केस होते थे। बिना फोन आए आप मर्सिडीज नहीं चला सकते थे। जब हमने खत्म किया तब कोई फोन नहीं आता था किसी को। मेरा खून ही पुलिसवालों का है। मैंने पैसे के लिए नहीं किया ये। ये नाम के लिए था और पब्लिक सेवा के लिए।" 

-सचिन वाजे

सचिन वाजे मुंबई पुलिस के उन टॉप अफसरों में था जिनको एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहा जाता था। ये 12 लोग मीडिया में हीरो बन गये थे। इन पर फिल्में बनीं। ये सारे इंस्पेक्टर लेवल के थे। इनकी राजनीतिक ताकत इतनी थी कि अपने से ऊपर के अफसरों की नियुक्ति और तबादले में भी हस्तक्षेप करते थे। इन लोगों ने सैकड़ों लोगों को मार गिराया था। ये पचासा या सैकड़ा पूरा होने पर पार्टी देते थे। जब ये चलते तो इनकी बाइसेप दिखाई देती और पैंट में खोंसी हुई। .45 बोर की पिस्टल। बाद में ये सारे फंसे। सचिन एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या में फंसा। बाकी भी हत्या के अलावा, धमकी, करप्शन वगैरह में फंसे। जेल गये। इनमें से एक प्रदीप शर्मा छूटा और वापस बहाल हुआ। अभी उसने दाऊद इब्राहिम के भाई को पकड़ा है। पर इस पकड़ने में वो ग्लैमर नहीं है, जो इनको बरसों पहले मिला था। अभी तो दाऊद का भाई दड़बे में बैठे मुर्गे की तरह था।

सचिन वाजे

आजादी के बाद से मुंबई में पठान माफियाओं का राज चल रहा था। स्मगलिंग और रंगदारी जोरों पर थी। 70 के दशक में एक नया लड़का निकला। सबीर इब्राहिम कास्कर। इसके साथ था इसका छोटा भाई दाऊद इब्राहिम कास्कर, और एक नया धंधा भी। कहते हैं कि पुलिस ने दोनों भाइयों को शह देनी शुरू की ताकि पठानों से निबटा जा सके। खून खराबा होने लगा। बात इतनी बढ़ गई कि उस समय के मुंबई के डॉन हाजी मस्तान ने सबको बुलाया और कुरान की कसम दिलाई। फिर इमरजेंसी आ गई। और ड्रामेटिक तरीके से हाजी मस्तान जयप्रकाश नारायण के संपर्क में आकर माफिया डॉन से समाज सेवक बन गया। पर बाकी नहीं बने।

1979 की एक शाम 30 साल का एक लड़का माहिम के एक जिम में पहुंचा। लंबे चौड़े इस लड़के को लोग देख रहे थे। ये लड़का धीरे धीरे चलता आया और पप्पी पाटिल नाम के एक आदमी के दोनों घुटनों पर गोली मार दी। फिर चलता हुआ निकल गया। ये मुंबई के कीर्ति कॉलेज से निकला लड़का एक मर्डर में फंस गया था और आजीवन कारावास पा गया था। पर कुछ सालों में वो जेल से भाग निकला। उसे कहीं स्वीकृति नहीं मिली। किसी गैंग ने भी नहीं दी। तो उसने अपना गैंग बना लिया। दादर के इलाके में इस लड़के का नाम आज भी लिया जाता है। मनिया सुर्वे।

मनिया सुर्वे

12 फरवरी 1981 को मनिया ने मुंबई की सबसे खतरनाक वारदात को अंजाम दिया। इसने प्रभादेवी पेट्रोल पंप पर सबीर को मार गिराया। इसने अनजाने में मुंबई को किसी और के हाथों सौंप दिया। उस रात दाऊद इब्राहिम का जन्म हुआ था। माफिया डॉन के रूप में।

मुंबई का पहला पुलिस एनकाउंटर

करीम लाला, हाजी मस्तान, दाऊद और मनिया सबके गैंग्स की झंझट में पहला कत्ल हुआ था एक पत्रकार इकबाल नादिक का। करीम लाला के लोगों को लगा कि ये दाऊद के लिए काम करता है। दाऊद ने करीम लाला के सईद बाटला और अयूब लाला को मार गिराया। इसके बदले में ही मनिया के साथ मिलकर इन लोगों ने दाऊद के भाई को मारा था। सबीर की शादी को एक सप्ताह ही हुए थे।

करीम लाला

इसके बाद मनिया ने मुंबई में लूट मार मचा दी। पुलिस की बेइज्जती होने लगी। आरोप भी लगने लगे। 1981 में पुलिस कमिश्नर जूलियो रिबेरो ने इसको खोजने के लिए एक स्पेशल पुलिस स्क्वॉड बनाया। इसमें इंसपेक्टर स्तर के लोग ही थे। आइजैक सैमसन, यशवंत भिडे़, राजा तांबत, संजय परांदे और इशाक भगवान। 11 जनवरी 1982 को मनिया वडाला कॉलेज में अपनी गर्लफ्रेंड से मिलने आया था। वहां पुलिस मौजूद थी। मनिया को छह गोलियां मारी गईं। कहते हैं कि पुलिस उसे अस्पताल भी नहीं ले गई। गाड़ी में घुमाती रही तब तक कि वो मर नहीं गया। ये मुंबई का पहला पुलिस एनकाउंटर था। पर ये स्क्वॉड बस एक बड़े ऑपरेशन के लिए बना था।

पुलिस कमिश्नर जूलियो रिबेरो

पर इस स्क्वॉड के काम को बड़ी सराहना मिली। कहा जाने लगा कि ऐसे ऑपरेशन की बहुत जरूरत है। साल 1983 में मुंबई पुलिस में नये रिक्रूट आये। ये सारे इसी मिजाज के निकले। विजय सालस्कर, प्रदीप शर्मा, असलम मोमिन, प्रफुल भोसले, रविंद्र आंग्रे, विनायक सौदे और तमाम लोग।

ध्यान रहे कि एनकाउंटर करने की पॉलिसी ऑफिशियल नहीं थी। ये इमोशन और चालाकी पर चलती थी। इन सारे अफसरों की खासियत थी कि ये अपराधी की पहचान और लोकेशन खोज निकालने में माहिर थे। इन सबको बेहद फेमस डीजीपी अरविंद इनामदार से ट्रेनिंग मिली थी। शुरुआत ही इनकी सेंसिटिव जगहों से हुई थी। इन सबने अपने नेटवर्क बना लिये। इनको पल पल की खबर रहने लगी। ज्ञात हो कि किसी खुफिया प्रोग्राम की तरह रिक्रूटमेंट नहीं हुई थी। इन सबने अपने मिजाज और तेजी से अपनी जगह बनाई थी।

विजय सालस्कर

पहला शूटआउट जिसका टीवी पर सीधा प्रसारण हुआ

जब तक ये लोग मुंबई में अपना माहौल बनाते, एक और बड़ा कांड हो गया। अस्सी के दशक में दाऊद के गिरोह में एक लड़का आया था। महिंद्रा डोलस उर्फ माया डोलस। वो नेता माफिया अशोक जोशी के लिए काम करता था। अशोक दाऊद के लिए। पर अशोक और माया में झड़प हो गई।

माया डोलस

17 सितंबर 1989 को माया ने जोशी गैंग के पांच लोगों को टपका दिया। कॉन्फिडेंस इसलिए था कि रंगदारी में उसका अपना नाम हो चुका था। उसे किसी की शह की जरुरत नहीं लग रही थी। इसका आतंक बढ़ गया था। 1991 के एक दिन माया अपने साथियों के साथ लोखंडवाला के एक फ्लैट में था। ये फ्लैट एक नेता ने दाऊद के लिए खरीदा था। अचानक आफताब अहमद खान के नेतृत्व में पुलिस ने लोखंडवाला को घेर लिया। बाद में कहा गया कि दाऊद ने ही पुलिस को इस लोकेशन के बारे में बताया था। जबर्दस्त शूटआउट हुआ। चार घंटे तक चला। ये पहला शूटआउट था जिसका टीवी पर सीधा प्रसारण भी हुआ। इसके वीडियोज यूट्यूब पर अभी भी उपलब्ध हैं। माया मार गिराया गया।

इस एनकाउंटर पर बनी अपूर्व लाखिया की फिल्म 'शूटआउट एट लोखंडवाला'

मुंबई का सबसे बड़ा भाई पुलिसवाला

अब वक्त आया 1983 बैच के अफसरों का। क्योंकि 1993 में मुंबई में बम ब्लास्ट हो चुका था। माफिया गैंग भी हिंदू और मुसलमान में बंट चुके थे। अरुण गवली हिंदू माफिया निकल रहा था। दाऊद मुस्लिम माफिया बनकर भाग चुका था। उसी साल इंसपेक्टर शंकर कांबले ने सब इंसपेक्टर विजय सालस्कर और प्रदीप शर्मा को साथ लेकर एक प्लान बनाया। एके-56 लेकर चलने वाले गैंगस्टर सुभाष मकड़ावाला को पकड़ने का। प्रदीप शर्मा ने सुभाष को मार गिराया। ये 1983 बैच का पहला एनकाउंटर था। 1993 के बाद एनकाउंटर को अनॉफिशियल स्वीकृति मिल चुकी थी। क्योंकि सारे माफिया छुप के कारोबार करने लगे थे। उनके बारे में पता लगाना, पकड़ना मुश्किल हो चुका था। साथ ही उनके खिलाफ पुलिस और मीडिया समेत जनता में भी गुस्सा था।

इसके बाद इस बैच को पीछे मुड़कर नहीं देखना था। ये ऐसे रास्ते पर चल पड़े थे जहां यही पकड़ते और फैसला करते थे। जब कोई इतना सही हो जाए अपनी नजरों में तो फिर कोई गुंजाइश नहीं रहती। दाऊद, छोटा राजन, गवली, अमर नाइक, अश्विन नाइक समेत तमाम माफिया डॉनों को मार गिराने का प्लान बनने लगा। लाशें गिरने लगीं. 10, 20, 40 , 50, 100। हर बार प्रेस ब्रीफिंग यही रहती: पकड़ने गये थे। उसने गोली चला दी। जवाब में हमने भी चला दी। मारा गया। धीरे धीरे माफिया के बजाय इन पुलिसवालों का आतंक फैलता गया। तमाम आरोप लगने लगे कि ये एक गैंग से पैसे लेकर दूसरे गैंग की सुपारी लेते हैं। आरोप ये भी लगे कि अब ये लोग ही खुद रंगदारी वसूलते हैं। प्रोटेक्शन देने के नाम पर। जुमला चलने लगा कि मुंबई का सबसे बड़ा भाई पुलिसवाला होता है।

पर अब सदी बदल चुकी थी

साल 2000 आते आते इन लोगों ने 500 से ऊपर एनकाउंटर कर दिये। 2004-05 आते-आते मुंबई से माफियाराज खत्म हो गया।

पर बीच में साल 2002 भी आया था। इस साल मुंबई के घाटकोपर में एक ब्लास्ट हुआ था। इस ब्लास्ट के आरोप में 25-26 साल का एक लड़का पकड़ा गया था। ख्वाजा युनुस। ये सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। पुलिसवाले रोज उसके घर पहुंचे रहते। इतना कि उसकी मां के पास सालों बाद उसकी सिर्फ दो तस्वीरें रह गई थीं। बाकी सारी पुलिसवाले ले गये थे। कुछ दिन बाद पता चला कि युनुस का एनकाउंटर हो गया। पर अब सदी बदल चुकी थी। मामले की जांच होने लगी। पता चला कि ये एनकाउंटर नहीं, कस्टडी में हुई मौत थी। जिम्मा लगा सचिन वाजे के ऊपर। गवाही हुई कि सचिन ने उसके पेट में मारा था। दुबला पतला युनुस इसे झेल नहीं पाया और मारा गया। सचिन वाजे को सस्पेंड कर दिया गया। उसने 2007 में रिजाइन कर दिया। और शिवसेना जॉइन कर ली। 26/11 के अटैक की रात वो नेता रामदास कदम की गाड़ी चलाते हुए पाया गया था। कहा जाता है कि उसी ने कदम को दिखाया था कि पुलिस कमिश्नर हसन गफूर होटल ट्रिडेंट के पास गाड़ी में सो रहे हैं जबकि पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमला कर रखा है। युनुस के मरने के 15 साल बाद 2017 में फिर से इस मामले की सुनवाई हो रही है। उसके घरवालों के पास पैसा नहीं है, पर उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी है।

वहीं प्रदीप शर्मा की कहानियां चलती थीं। कि किस तरह एनकाउंटर के बाद खून सने कपड़ों में वो घर आये। मूवी देखी और सो गये। 2008 में प्रदीप को माफिया से लिंक रखने के आरोप में सर्विस से डिसमिस कर दिया गया। पर ट्रिब्यूनल में केस जीतकर वो वापस आ गये। और फिर एक अविश्वसनीय घटनाक्रम में जिस डीएन नगर के थाने में उन्होंने तमाम अपराधियों की वाट लगाई थी, उनको गिरफ्तार कर लिया गया। छोटा राजन ग्रुप के रामनारायण गुप्ता की हत्या के आरोप में। इसी मामले में प्रदीप शर्मा को जेल हुई। प्रदीप पर 1992 के आस पास छोटा राजन गिरोह के नजदीक होने के आरोप लगे थे।

प्रदीप शर्मा

1996 में वो चंदन चौकी पहुंचे थे जहां डीसीपी थे सत्यपाल सिंह, जो अब भाजपा नेता हैं। वहीं पर प्रदीप ने दयानायक के साथ मिलकर काम शुरू किया था। दोनों पर स्क्रैप डीलर तारिक नबी को किडनैप करने पैसे लेने के आरोप लगे थे। प्रदीप युनुस के मामले में भी फंसे थे। डेड बॉडी को ठिकाने लगाने को लेकर आरोप लगे थे। फिर प्रदीप शर्मा जेल से छूटे और इस साल दाऊद के भाई को गिरफ्तार कर मीडिया की सुर्खी बने हुए हैं। पर 112 एनकाउंटर वाले प्रदीप का अब वो ग्लैमर नहीं है। जमाना बदल चुका है।

दया नायक 

बात बदले जमाने की 

विजय सालस्कर की धूम मची थी अमर नाइक और सडा पावले को टपकाने को लेकर। उसके बाद वो अरुण गवली की तरफ घूम चुके थे। घबराकर गवली ने राजनीति में कदम रख दिया। पर अखबारों में विजय ने कहा था कि गवली कुछ भी बन जाए, मेरे लिए वो टुच्चा अपराधी ही रहेगा। चाहे जहां पहुंच जाए, मेरी निगाह बनी रहेगी। 26/11 के हमलों में विजय सालस्कर हेमंत करकरे और अशोक कामते के साथ शहीद हो गए अजमल कसाब के हाथों। विजय पर पवई में एक 18 साल के गवाह की हत्या का मामला चल रहा था।

अरुण गवली

प्रदीप के साथ काम करनेवाले दयानायक ने एक रेस्टोरेंट खोला था और करोड़ों लगाकर स्कूल खोला। उद्गाटन करने अमिताभ बच्चन पहुंचे थे। सारे लोगों में सबसे ज्यादा नाम दयानायक का ही हुआ था। अब तक छप्पन दया पर ही बनी थी। पर दया की गोलियों से कोई नामी अपराधी नहीं मरा था। दया पर भी रंगदारी के आरोप लगे। करप्शन के आरोप लगे। इसके साथी केतन तिरोडकर ने ही केस फाइल करवा दिया। दया को सस्पेंड कर दिया गया।

दया नायक पर बनी फिल्म 'अब तक छप्पन'

विजय सालस्कर के साथ काम करनेवाले प्रफुल भोसले ने छोटा शकील गैंग के आरिफ कालिया को 2002 में मार गिराया था। भोसले पहले बैंक में काम करते थे। उनको कई पुरस्कार भी मिले थे. पर 2002 के ही युनुस एनकाउंटर केस ने इनकी भी इतिश्री कर दी। ये लोग साउथ मुंबई के स्पेशलिस्ट थे।

प्रफुल भोसले, फोटो साभार- मिड-डे

वहीं रविंद्र आंग्रे थाने में काम करते थे। तहलका मचा दिया था। इनके डर से सुरेश मांचेकर नाम का माफिया भाग गया। पर आंग्रे ने उसे कोल्हापुर में खोज निकाला और एनकाउंटर कर दिया। 50 से ऊपर एनकाउंटर किये और पचासा पूरा होने पर पार्टी भी दी थी। पर 2008 में एक बिल्डर ने इन पर पैसे वसूलने के आरोप लगाये। जेल जाना पड़ा। जेल से निकलने के बाद सारा रौला खत्म हो गया।

रविंद्र आंग्रे 

और फिर बात सचिन वाजे की। सचिन ने ख्वाजा युनूस केस के बाद किसी तरह राजनीति में शरण ली। पर कहते रहे कि हम सारे 1983 बैच वाले फिर से वही काम करना चाहते हैं। हम पुलिसवाले हैं और रहेंगे। इनमें से कई की तो बुरी हालत है। कुछ किसी तरह से नौकरी बचाने में कामयाब रहे और लो प्रोफाइल बनाकर रहते हैं। किसी को नहीं पता चलता कि कहां हैं। अधिकांश को तो ख्वाजा युनुस एनकाउंटर के बाद मुंबई से बाहर कर दिया गया था। क्योंकि दबाव बनाने का डर था।

मुंबई माफिया पर बॉलीवुड की पेशकश

ये मुंबई की कहानी है। जहां पर बंबई स्टॉक एक्सचेंज को उड़ाने के प्लान में बॉलीवुड के सुपरस्टार का नाम आया था। जहां माफिया डॉनों के साथ हीरोइनों के चक्कर के चर्चे उड़ते रहे। जहां अपनी ही लाइफ पर फिल्में बनाने के लिए डॉन पैसे भी लगाते रहे, ये आरोप भी लगे। इसी मुंबई को लेकर लेखक विक्रम चंद्रा ने किताब लिखी Sacred Games.

विक्रम चंद्रा की किताब

इस किताब में इंसपेक्टर सरताज सिंह और क्रिमिनल गाइतोंडे की कहानी है। इस किताब पर नेटफ्लिक्स 8 एपिसोट की वेब सीरीज भी बना रहा है। चार पार्ट अनुराग कश्यप डायरेक्ट करेंगे और चार पार्ट विक्रमादित्य मोटवाने। सरताज सिंह बने हैं सैफ अली खान. वहीं गाइतोंडे बने हैं नवाजुद्दीन सिद्दीकी। मुंबई माफिया पर ये लेटेस्ट पेशकश है बॉलीवुड की।

(संदर्भ: एस. हुसैन जैदी की किताब 'डोंगरी टू दुुबई', हिंदुस्तान टाइम्स, रेडिफ.कॉम)

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