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112वीं जयंती विशेष: सबके अपने-अपने भगत सिंह

आज के समय में जब लगभग हर ऐतिहासिक व्यक्तित्व को विवादित बना दिया गया है, तब साल में दो बार, 23 मार्च और 28...
112वीं जयंती विशेष: सबके अपने-अपने भगत सिंह

आज के समय में जब लगभग हर ऐतिहासिक व्यक्तित्व को विवादित बना दिया गया है, तब साल में दो बार, 23 मार्च और 28 सितम्बर ऐसे दिन होते है जब देश का हर तबका पूरे मन से एक व्यक्तित्व को याद करता है| पहली तारीख होती है उनका शहादत दिवस और दूसरी उनका जन्मदिवस। इस सर्वस्वीकार्य व्यक्तित्व का नाम है भगत सिंह- एक ऐसा नायक जिसका नाम सुनते ही देश के हर नागरिक के मन में सम्मान और भावनात्मक उबाल आ जाता है। लेकिन उनको याद करते समय उनके विचारों और असल व्यक्तित्व को दबाकर ऐसे जोशीले नौजवान की छवि गढ़ी जाती है जो उन्हें दैवीय नायक बना देता है| उनके बारे में दुनिया की 18 भाषाओं में 550 से ज्यादा पुस्तकें छापी गयी हैं। इनमें 200 से ज्यादा तो हिंदी में हैं। इनको पढ़ने पर उनके व्यक्तित्व और विचारों को लेकर इतना ज्यादा भ्रम बन जाता है की सच्चाई की पड़ताल करना मुश्किल हो जाता है| अलग-अलग विचारधारा के लोग उनको अलग तरीके से पेश करते हैं, जिससे सच्चाई और मिथक का फर्क करना मुश्किल हो जाता है| आज, 28 सितम्बर 2019 को भगत सिंह का 112वां जन्मदिन है, और एक बार फिर उनके विचारों को नजरअंदाज करके उनकी नायक की छवि को प्रचारित किया जा रहा है| ऐसे में बहुत जरूरी हो जाता है कि इतिहास और ‘मिथिहास’ का फर्क समझकर असल भगत सिंह से मिलने का प्रयास किया जाए| इस प्रयास में हमने दिल्ली स्थित “भगत सिंह अभिलेखागार और संसाधन केंद्र” से तथ्य जुटाए और यहां के मानद सलाहकार और भगत सिंह पर गहन अध्ययन करने वाले प्रो. चमन लाल से बातचीत की|

प्रचलित छवि का वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं

इस अभिलेखागार को पंद्रह सौ से ज्यादा किताबे, सौ से ज्यादा दुर्लभ पुस्तकों की प्रतिलिपियां और विभिन्न जगहों से जुटाए गए सैकड़ों मूल दस्तावेज भेंट करने वाले चमन लाल बताते हैं, “भगत सिंह की छवि को अलग-अलग माध्यमों से ऐसा बना दिया गया है कि उनकी असल छवि को समझ पाना मुश्किल होने लगा है। उदाहरण के लिए उनके वास्तविक चित्र मौजूद होने के बावजूद बनावटी चित्र बनाए जा रहे हैं। कैलेंडरों, अखबारों, पेम्फ्लेट के ज़रिये जनमानस में भगत सिंह की ऐसी छवि तैयार की गयी जिसका वास्तविकता से दूर तक वास्ता नहीं था| ऐसा कुछ लोग भ्रम फैलाने के लिए एक एजेंडा के तहत जानबूझकर भी करते हैं तो कुछ अनजाने में| इसके पीछे कारण यह है कि भारतीय जनमानस दैवीय, मिथकीय, करिश्माई और नायकत्व वाले चरित्रों में ज्यादा विश्वास करता है। इसके नीचे वास्तविक चरित्र कब और कहां दब जाता है इसका पता उन्हें भी नहीं होता| भगत सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ। इसकी तह में कोई जाना नहीं चाहता, लेकिन अगर कोई जाना चाहे तो पर्याप्त तथ्य और सत्य आसानी से उपलब्ध है|”

भगत सिंह के विचार जानने के लिए मूल दस्तावेज पढ़ें

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों पर 13 किताबें लिखने वाले चमन लाल इस भ्रम से बचने और सच्चाई जानने के लिए कहते हैं कि किसी के भी विश्लेषण पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए। भगत सिंह और उनके साथियों के लिखे मूल दस्तावेजों को पढ़ना चाहिए| जब तक का इतिहास लिखित दस्तावेजों से ज्ञात हो जाए, उसके लिए अन्य कम विश्वसनीय स्रोतों की जरूरत नहीं पड़ती| लिखित दस्तावेजों की ताकत इससे समझी जा सकती है कि आजादी तक अंग्रेजों ने भगत सिंह पर लिखी गई लगभग 125 किताबों और लेखों में से 55 से ज्यादा को प्रतिबंधित कर दिया था| हाल ही में प्रकाशित उनकी किताब “द भगत सिंह रीडर” में 120 से अधिक मूल दस्तावेजों को प्रकाशित किया गया है| चमन लाल कहते हैं कि अभी तक बॉलीवुड में भगत सिंह को लेकर जितनी भी फिल्में बनी हैं उनमें किसी भी फिल्म को भगत सिंह के मूल विचारों को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया| सभी फिल्मों में भगत सिंह की एक रूमानी तस्वीर पेश कर उनके नायकत्व को स्थापित करने की कोशिश की गयी| भगत सिंह के वास्तविक जीवन और विचारों को उनके साथी सचिंद्रनाथ सान्याल की आत्मकथा “बंदी जीवन” और शिव वर्मा की किताब “भगत सिंह और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़” से भी जाना और समझा जा सकता है| इसके आलावा दिवंगत पत्रकार कुलदीप नैयर की 2007 में प्रकाशित भगत सिंह की जीवनी “विदआउट फियर: लाइफ एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह” भी काफी हद तक भगत सिंह के विचारों को उनके मूल रूप में अभिव्यक्त करने में सफल रही है|

कार्य, व्यक्तित्व और विचारों में कभी अंतर नहीं रहा

अभिलेखागार में लगे भगत सिंह के असली चित्र को दिखाते हुए चमन लाल उनके व्यक्तित्व के बारे में बताते हैं कि इतनी कम उम्र में इतने प्रभावी होने का मूल कारण उनके कार्यों, व्यक्तित्व और विचारों में किसी भी तरह का अंतर नहीं होना है| उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। अंग्रेज भी जानते थे की भविष्य में भी समझौते की कोई संभावना नहीं है, जिसके चलते फांसी देना ही उन्हें एकमात्र समाधान नजर आया| भगत सिंह एक ऐसे उच्च मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे थे जिसका दो पीढ़ी पहले से पढाई-लिखाई और आजादी की लड़ाई से जुड़ाव था। इसके चलते उनकी योग्यता को भरपूर पोषण मिला| सत्रह साल की उम्र से उन्होंने भारतीय क्रांतिकारी परंपरा को दिशा देने वाले लेख लिखने शुरू कर दिए थे जो फांसी तक जेल में रहते हुए भी जारी रखे|

भगत सिंह विचारों और व्यक्तित्व से साम्यवादी थे

प्रोफेसर चमन लाल के अनुसार यह विडम्बना ही है कि जाने-अनजाने जनमानस में भगत सिंह की ऐसी छवि निर्मित कर दी गयी जिससे भगत सिंह नष्ट हो जाएं| भगत सिंह, उनके साथी और क्रांतिकारी परंपरा से जुड़े अन्य लोगों से सम्बंधित दस्तावेजों के माध्यम से कुछ इतिहासकारों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने उनके असल रूप को आमजन से सीधा रूबरू करवाने की कोशिश की। इनमें प्रोफेसर बिपिन चन्द्र, प्रोफेसर इरफ़ान हबीब के साथ स्वयं प्रोफेसर चमन लाल का नाम भी शामिल है| इन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों पर दक्षिणपंथ की तरफ से यह आरोप लगातार लगते रहे हैं की ये लोग भगत सिंह को वामपंथ के प्रणेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं जो असल में भगत सिंह थे ही नहीं| चमन लाल इस आरोप को ख़ारिज करते हुए कहते हैं कि उन्होंने भगत सिंह से सम्बंधित अपने अध्ययन को तथ्यों के साथ सबके सामने रखा। इसी कारण दक्षिणपंथ को भी यह स्वीकार करना पड़ा कि भगत सिंह साफ़ तौर पर अपने विचारों और व्यक्तित्व से साम्यवादी थे। हालांकि दक्षिणपंथी अब यह कहने लगे हैं कि भगत सिंह ‘देसी’ साम्यवादी थे|

भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता आज भी है

हाल ही में प्रो. चमन लाल की किताब “द भगत सिंह रीडर” के लोकार्पण कार्यक्रम में जाने-माने इतिहासकार प्रोफेसर हरबंस मुखिया ने कहा, “भगत सिंह के विचारों में ग़ज़ब की स्पष्टता और ठहराव था| जेल में रहते हुए उन्होंने अपना समय दुनियाभर का बेहतरीन साहित्य पढ़ने, विश्लेषण करने और उनसे अपनी समझ बनाने में व्यतीत किया| उनके विचारों और लेखनी में अपरिपक्व नौजवान के विचारों जैसी बेतरतीबी कहीं नज़र नहीं आती|” भगत सिंह के दुनिया से विदा लेने के लगभग नब्बे साल बाद भी उनके विचारों की प्रासंगिकता और ज़रूरत बनी हुई है| भगत सिंह के विचार औपनिवेशिक भारत की जिन परिस्थितियों और समस्याओं की उपज थी, लगभग वही परिस्थितियां आज भी स्वाधीन भारत में बनी हुई हैं| इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि भगत सिंह के विचारों को जाना जाए और उनके माध्यम से आज की समस्याओं के समाधान खोजने की कोशिश की जाए|

सबसे पहले पेरियार ने भगत सिंह की वैचारिकता को पहचाना

भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने 24 दिसम्बर 1929 को ट्रिब्यून (लाहौर) में छपे अपने लेख “ऑन द स्लोगन- लॉन्ग लिव रेवोलुशन” में मॉडर्न रिव्यू के सम्पादक रामानंद चटर्जी को संबोधित करते हुए लिखा, “विद्रोह और क्रांति दोनों अलग हैं| क्रांति असल में बेहतरी के लिए बदलाव की लालसा है| आम तौर पर चीजें जैसी हैं, लोग वैसे ही उसके आदि हो जाते हैं और बदलाव के विचार से ही कांपने लगते हैं| हमें इसी निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना में बदलने की ज़रूरत है|” भगत सिंह न सिर्फ राजनैतिक, बल्कि सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के हिमायती थे| वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहां मनुष्य के बीच किसी तरह की गैरबराबरी न हो। इस सन्दर्भ में चमनलाल कहते हैं कि भगत सिंह को तार्किकता और चेतना के प्रतीक के रूप में भी देखा जा सकता है| सन 1947 से पहले, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में दो बड़े ऐसे विचारक हुए हैं जिनके विचारों में गहरी तार्किकता देखने को मिलती है, वे हैं ई.वी. रामासामी पेरियार और भगत सिंह| शायद इसीलिए पेरियार ही सबसे पहले भगत सिंह के तत्व और वैचारिक गहनता को पहचान पाए थे| धर्मान्धता और धर्म के अस्तित्व पर गहरी चोट करने वाले पेरियार ने सबसे पहले 1934 में भगत सिंह के लेख “मैं नास्तिक क्यों हूं” का तमिल में अनुवाद कर प्रकाशित किया| पेरियार के आलावा उस दौर के जाने माने विचारक और नेता जवाहरलाल नेहरू और भीम राव आंबेडकर भी भगत सिंह के विचारों से प्रभावित थे|

नायक पूजा के घोर विरोधी थे भगत सिंह

भगत सिंह के तार्किक और साम्यवादी व्यक्तित्व बनने की प्रक्रिया को उनके बहुचर्चित लेख “मैं नास्तिक क्यों हूं?” से समझा जा सकता है। इसमें वे बताते हैं कि 1926 तक वे पूरी तरह नास्तिक बन चुके थे| भगत सिंह लिखते हैं, “आस्था मनुष्य के जीवन की कठिनाइयों को न सिर्फ कम कर देती है बल्कि कई बार जीवन की कठिनाइयां उसे सुखदायी भी लगने लगती हैं| भगवान में मनुष्य सांत्वना और सहारा ढूंढ़ता है| अपने पैरों पर खड़ा होकर तूफानों से लड़ना बच्चों का खेल नहीं है| मुश्किल समय में सबका अहंकार हवा हो जाता है, और मनुष्य आस्था से किनारा नहीं कर पता| अगर ऐसे में भी कोई आस्था से किनारा कर रहा है तो वह अहंकारी नहीं, ताकतवर और मज़बूत है|” भगत सिंह नायक पूजा के भी घोर विरोधी थे| उनके अनुसार कोई भी मनुष्य आलोचना के परे नहीं है| इस सन्दर्भ में इसी लेख में वे आगे लिखते हैं कि “जाइये, जाकर पुरानी जड़ धारणाओं और परम्पराओं का विरोध कीजिये, एक नायक, एक महान  व्यक्ति की आलोचना कीजिये जिसे हमेशा आलोचनाओं से ऊपर समझा जाता रहा है| निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार क्रांतिकारी होने के दो अहम लक्षण हैं|”

गरीब चाहे जिस धर्म, जाति या नस्ल के हों, उनके अधिकार एक हैं

पंजाबी मासिक पत्रिका ‘कीर्ति’ में 1928 में छपे लेख “साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज” में भगत सिंह लिखते हैं कि “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है| गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं| इसलिए तुम्हे इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए| संसार के सभी गरीबों- चाहे वे किसी भी धर्म, रंग, जाति, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के हों, उनके अधिकार एक ही हैं| तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता का भेदभाव मिटाकर एक हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो| इससे तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, लेकिन किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हे आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी|”

मीडिया को जो करना था, उसके उलट किया

मीडिया की आलोचना करते हुए अपने इसी लेख में भगत सिंह लिखते हैं कि “अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों को संकीर्णता से निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं नष्ट करना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था। लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, साम्प्रदायिक बढ़ाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है| यही कारण है कि भारत की वर्तमान दशा पर विचार करते समय आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं, और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का क्या होगा?” भगत सिंह द्वारा अपने दौर की मीडिया की आलोचना, आधुनिक स्वतंत्र भारत में भी उतनी ही प्रासंगिक नज़र आती है|

नौजवान पिस्तौल उठाने के बजा क्रांति का सन्देश फैलाएं

भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त 22 अक्टूबर 1929 को ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने पत्र के माध्यम से विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए लिखते हैं, “इस समय नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएं| आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महतवपूर्ण काम है| नौजवानों को क्रांति का सन्देश कोने-कोने में पहुंचाना है। कारखाने वाले इलाके में, बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी। तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा|”

अपनी-अपनी राजनीति के हिसाब से गढ़ी गईं मूर्तियां

भगत सिंह को सही मायने में समझने के लिए उनके भतीजे रिटायर्ड मेजर जनरल श्योनान सिंह द्वारा हाल ही में जेएनयू में हुए “द भगत सिंह रीडर” के लोकार्पण कार्यक्रम में कही हुई बात को ध्यान में रखा जा सकता है। उन्होंने कहा था कि भगत सिंह को शायद उनके साथी भी दस फ़ीसदी ही समझ पाए होंगे, और फिर उसका दस फ़ीसदी ही लोगों को समझा पाए होंगे| वे कहते है कि भगत सिंह, अन्य क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को लोगों ने अपने वोट बैंक के लिए अपने-अपने हिसाब से बनाया और दिखाया है। मूर्तियां और तसवीरें भी उसी राजनीति के हिसाब से गढ़ी गई हैं| इसलिए भगत सिंह से मिलने और उनको जानने का सबसे माकूल माध्यम उनका लिखा हुआ ही हो सकता है| फेक न्यूज के जमाने में यह और ज्यादा ज़रूरी हो जाता है कि भगत सिंह की इच्छानुसार उन्हें उन्हीं के नज़रिए से पढ़ा, समझा और जाना जाए| यह करने में थोड़ा कष्ट ज़रूर झेलना पड़ सकता है, लेकिन अंत में जो भगत सिंह मिलेंगे वे हमारे सच्चे भगत सिंह होंगे|

(महेश चौधरी स्वतन्त्र पत्रकार और समाज शास्त्र के वरिष्ठ शोधार्थी हैं। खुशबू शर्मा जेएनयू में पॉलिटिकल साइंस  की छात्रा हैं)

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