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आदिवासियों एवं वंचितों की आवाज रहे डॉ. साहब हुए मौन

डॉ. बी.डी शर्मा के निधन पर देश भर में आंदोलनकर्ताओं, लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वालों गहरा शोक
आदिवासियों एवं वंचितों की आवाज रहे डॉ. साहब हुए मौन

आदिवासियों एवं वंचितों के आवाज रहे मध्यप्रदेश कैडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा का कल रात मध्यप्रदेश के ग्वालियर में 84 साल की उम्र (16 जून 1931 - 6 दिसंबर 2015) में निधन हो गया। आज ग्वालियर में उनका अंतिम संस्कार किया गया। वह कुछ समय से बीमार चल रहे थे और अपने बेटे की देखरेख में ग्वालियर में ही रह रहे थे। आज उनकी अंतिम यात्रा में जन संगठनों, जन आंदोलनों के साथ-साथ बड़ी संख्या में सामान्य जन शामिल हुए।

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जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के समन्वयक डॉ. सुनीलम् ने बताया कि स्व. शर्मा ने प्रशासनिक सेवा का त्याग कर दिया था और वह नौकरी एवं उसके बाद ताउम्र आदिवासियों के अधिकार एवं सम्मान की लड़ाई लड़ते रहे। एक ओर देश के विभिन्न जनसंगठनों के साथ उनका जुड़ाव था, तो दूसरी ओर सरकार द्वारा आदिवासी हितों पर गठित विभिन्न समितियों एवं आयोगों में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

डॉ. शर्मा अपने प्रशासनिक कैरियर के शुरुआती दिनों से ही आदिवासियों एवं वंचितों के पक्ष में खड़े रहते थे। वह उनके संवैधानिक अधिकारों को लड़ाई लड़ते रहे, जिससे वे कई तरह से वंचित रहे हैं। 1968 में बस्तर कलेक्टर के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने बड़ी ख्याति पाई। 1981 में उन्होंने आदिवासियों और दलितों के लिए सरकारी नीतियों को लेकर उनके और सरकार में मतभेद के कारण प्रशासनिक सेवा को अलविदा कह दिया। लेकिन इसके बाद ग़रीबों, आदिवासियों और दलितों के लिए उनका संघर्ष और तेज हो गया। भारत सरकार ने बाद में ही उन्हें नॉर्थ ईस्ट युनिवर्सिटी का कुलपति बनाकर शिलांग भेजा। वहां भी उन्होंने इस दिशा में काम किया। 

1986 से 1991 तक वो अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के आखिरी आयुक्त के रूप में काम किया। पर आयुक्त के रूप में जो रिपोर्ट उन्होंने तैयार की उससे देश के आदिवासियों की गंभीर स्थिति को समझने में मदद मिलती है। उस रिपोर्ट की सिफ़ारिशों को आदिवसियों को न्याय दिलाने की ताक़त रखने वाले दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है। 1991 में भारत जन आंदोलन और किसानी प्रतिष्ठा मंच का गठन कर उन्होंने आदिवासी और किसानों के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करना शुरू किया। 2012 में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के कलेक्टर को माओवादियों से छुड़ाने में उन्होंने प्रोफ़ेसर हरगोपाल के साथ अहम भूमिका निभाई थी। वह माओवादियों की ओर से वार्ताकार थे। उनकी घनिष्टताकल्याणकारी भूमिका में उतरने वाले वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एस.आर संकरन और वी. युगंधर के साथ लंबे समय तक रही।

भूरिया समिति की रिपोर्ट में भी उनकी भूमिका रही। उन्होंने आदिवासी उप योजना का विचार दिया, जिस पर अमल किया जाने लगा। वन अधिकार कानून, पेसा आदि में उन्होंने बड़ी जिम्मेदारी निभाई। आदिवासी इलाकों में हिंसा और युद्ध की स्थिति से बहुत परेशान होकर उन्होंने 17 मई 2010 को राष्ट्रपति के नाम एक पत्र लिखा था, जिसे एक दस्तावेज के रूप में देखा जाता है। उन्होंने  ’गणित जगत की सैर’, ’बेज़ुबान’, ’वेब ऑफ़ पोवर्टी’, ’फ़ोर्स्ड मैरिज इन बेलाडिला’, ’दलित्स बिट्रेड’ आदि पुस्तकों का लेखन किया।

वह नर्मदा बचाओ आंदोलन, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, किसान संघर्ष समिति सहित दर्जनों संगठनों के साथ जुड़े हुए थे।

 

 

 

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