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किसान आंदोलन: अब पंचायतजीवी चुनौती का आगाज, सरकार भी सख्त और किसान नेताओं के तेवर भी हुए तल्ख

“सरकार भी सख्त और किसान नेताओं के तेवर भी हुए तल्ख, महापंचायतें ही नहीं, एक-दूसरे के खिलाफ दलीलें हुईं...
किसान आंदोलन: अब पंचायतजीवी चुनौती का आगाज, सरकार भी सख्त और किसान नेताओं के तेवर भी हुए तल्ख

“सरकार भी सख्त और किसान नेताओं के तेवर भी हुए तल्ख, महापंचायतें ही नहीं, एक-दूसरे के खिलाफ दलीलें हुईं आम”

वाकई केंद्र के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन के महीने-दिन बीतने के साथ पक्ष और विपक्ष में ऐसी रणनीति और लामबंदी के दर्शन हो रहे हैं, जो कई बार हैरान कर जाता है। यह सरकार और किसान नेताओं, दोनों की ओर से देखने को मिल रहा है। दिल्ली पुलिस ने सोशल मीडिया पर किसान आंदोलन के समर्थन में 'टूलकिट' का प्रसार करने के लिए हाल में पर्यावरण कार्यकर्ता 21 साल की दिशा रवि को गिरफ्तार किया और उनसे जुड़ी निकिता जैकब और शांतनु मुलुक पर दबिश दे रही है। इससे लगता है कि सरकार अभी भी आंदोलन में खालिस्तानी तत्व तलाशने में जुटी है। लेकिन 26 जनवरी को लाल किले की घटना के बाद सरकार जितनी सख्त हुई, किसान आंदोलन भी मानो उतनी ही लंबी छलांग भरने को तैयार होने लगा। किसानों की महापंचायतों, खाप पंचायतों, सर्व जाति पंचायतों का सिलसिला शुरू हो गया और अब किसान नेता भाजपा को उन प्रदेशों में भी चुनौती देने की तैयारी में हैं, जहां चुनाव होने हैं।

आजादी के आंदोलन के दौरान कद्दावर किसान नेता सर छोटू राम की जयंती पर 16 फरवरी को उनके गांव हरियाणा में रोहतक के पास गढ़ी सांपला में विशाल पंचायत में किसान नेताओं ने बंगाल और असम में भी बड़ी पंचायतें करने की योजना का खुलासा किया, जहां अगले दो महीने में विधानसभा चुनाव तय हैं। राकेश टिकैत ने कहा, “हम पूरे देश में पंचायतें करने जा रहे हैं। गुजरात भी जाएंगे, जो कैद में है। वहां से दिल्ली आने वाले 150 किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया। असम और बंगाल भी जाएंगे।” किसान नेता गुरनाम चढूनी ने तो साफ कहा, “बंगाल में भाजपा को हराना है।” सबसे बुजुर्ग और लंबे समय से सक्रिय बलबीर सिंह राजेवाल ने कहा कि हर चुनाव में लोग उसे वोट न दें जो इन काले कानूनों के पक्ष में है।

व्यापक होता आंदोलनः रोहतक के गढ़ी सांपला में सर छोटू राम की जयंती पर महापंचायत में किसान नेता

जाहिर है, जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, दोनों तरफ से रुख सख्त होते जा रहे हैं। बयानों में भी तल्खी आती जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान ‘आंदोलनजीवी ‘ और ‘परजीवी’ जैसे मुहावरे का प्रयोग किया तो जवाब में किसान नेताओं ने इसे किसानों की पगड़ी उछालने की कोशिश बताया। हालांकि अगले दिन प्रधानमंत्री ने लोकसभा में ‘पवित्र’ और ‘अपवित्र’ आंदोलनजीवी मुहावरे का प्रयोग करके विवाद का रुख मोड़ने की कोशिश की। लेकिन राजेवाल हर सभा में कह रहे हैं, “हमें परजीवी यानी नाली के कीड़े कहा गया। किसान इसका जवाब देंगे और पूछा जाएगा कि प्रधानमंत्री की तहजीब क्या होनी चाहिए।”

किसान नेता ही नहीं, आम किसानों में भी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। यह पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और अब पंजाब में लगातार हो रही पंचायतों में िदख रहा है। प्रधानमंत्री की राज्यसभा की टिप्पणी के अगले दिन महात्मा गांधी की पोती बुजुर्ग तारा गांधी भट्टाचार्य अपने कई साथियों और बुजुर्ग गांधीवादी रामचंद्र राही के साथ गाजीपुर बॉर्डर के धरने पर पहुंचीं। उन्होंने कहा, “आंदोलन की सीख देश को महात्मा ने दी थी। हम आपके साथ हैं।” राकेश टिकैत ने कहा, “महात्मा गांधी, शहीद भगत सिंह आंदोलनजीवी थे। हमें आंदोलनजीवी होने पर गर्व है।” अब टिकैत तो यह भी कह रहे हैं कि हनुमान जी से बड़ा आंदोलनजीवी कौन हो सकता है। राम की सीता को रावण उठा ले गया और पूंछ जला बैठे हनुमान जी।

दरअसल किसान नेता उन सभी प्रतीकों को चुनौती देने लगे हैं, जिसके आधार पर भाजपा और संघ परिवार ने अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आधारशिला रखी है। टिकैत कहते हैं, “हम रघुवंशी हैं। हमारे बाबा राम थे। ये लोग तो उनके नाम पर सिर्फ राजनीति करते हैं।” हरियाणा के किसान नेता चढूनी कहते हैं, “ये कब से राष्ट्रवादी हो गए। आजादी के आंदोलन में तो इन्होंने नाखून भी नहीं कटाया। तिरंगा आरएसएस के मुख्यालय पर तो पचास साल तक नहीं लहराया गया। सीमा से तो हमारे भाई, बच्चों के शव तिरंगे में लिपट कर आते हैं।”

इसके जवाब में सरकार और भाजपा तथा उससे जुड़े संगठन 26 जनवरी की घटना को ही आधार बनाकर अपनी सारी रणनीति बुनते लगते हैं। हालांकि 26 जनवरी को टिकैत के आंसू किसानों के एक बड़े वर्ग में यह संदेश देने में सफल हो गए कि लाल किले पर निशान साहेब फहराने की घटना किसी बड़ी साजिश का हिस्सा थी। कई दिनों बाद जिस दीप सिद्घू को गिरफ्तार किया गया, उसकी भाजपा नेताओं खासकर गुरदासपुर के सांसद सनी देओल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ वायरल हुई तस्वीरों से भी इस धारणा को बल मिला है। कई किसान नेता सार्वजनिक रूप से कह भी रहे हैं कि 22 जनवरी को केंद्र सरकार के साथ आखिरी बैठक में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि आप भी 26 जनवरी की तैयारी करो, हम भी करते हैं। यह बेहद सामान्य बात हो सकती है लेकिन हर बयान को साजिश के तौर पर पेश करने के तरीके से यही एहसास होता है कि तल्खी कितनी बढ़ गई है। शायद इसी वजह से दिल्ली पुलिस खालिस्तानी तत्व को तलाशने के लिए पर्यावरण कार्यकर्ताओं पर दबिश बढ़ा रही है, ताकि लोगों की इस धारणा को बदला जा सके।

तल्खी और भी कई रूपों में दिख रही है। मसलन, प्रधानमंत्री ने संसद के बजट सत्र के पूर्वार्द्घ में विपक्षी दलों के सांसदों की बैठक में कहा कि किसानों से सरकार बस एक फोन कॉल दूर है। इस पर टिकैत, राजेवाल, चढूनी जैसे तमाम नेता पंचायतों में यही कहते रहे हैं कि वह कौन-सा नंबर है सरकार बता तो दे, हम तो बातचीत को तैयार हैं। यानी न सरकार कह रही है कि बातचीत के दरवाजे बंद हैं, न किसान नेता कह रहे हैं, लेकिन किसी ओर से कोई पहल नहीं हो पा रही है। सिर्फ दोनों तरफ से अपने रुख लगातार कड़े किए जा रहे हैं। हालांकि लंबे ‌खिंचते गतिरोध पर दोनों तरफ चिंताएं हो सकती हैं। इसके अक्स दिखने भी लगे हैं।

सरकार और भाजपा में पंचायतों के बढ़ते सिलसिले से निश्चित रूप से चिंता हो सकती है। ये पंचायतें अब सिर्फ जाट बेल्ट कहे जाने वाले पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब तक ही सीमित नहीं हैं। मध्य प्रदेश में भी पांच-छह पंचायतें हो चुकी हैं, जिनमें एक पंचायत कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर के अपने क्षेत्र मुरैना में भी हुई है। हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, राजस्थान में तो पंचायतों को सिलसिला थमता नहीं दिख रहा है। पंजाब के मंडी जगराओं में पंजाब के 32 किसान संगठनों की ओर से पंचायत हो चुकी है। इस महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल की अध्यक्षता में पंजाब के किसान नेता मनजीत धनेर, कुलवंत संधू, जोगिंद्र सिंह उगराहां शामिल हुए। 11 फरवरी को हुई इस पहली किसान महापंचायत में शामिल हुए हजारों किसानों, मजदूरों, आढ़तियों, महिलाओं, बुजुर्गों तथा विभिन्न समर्थक संगठनों, बार एसोसिएशन सदस्यों और बुद्धिजीवियों के जरिए किसान नेताओं ने शक्ति प्रदर्शन किया। पंजाब में और कई पंचायतों की योजना है। यह भी योजना है कि संयुक्त किसान मोर्चे के सभी बड़े नेता देश के अलग-अलग हिस्सों में पंचायतों का सिलसिला शुरू करेंगे। 18 फरवरी को देश भर में दोपहर 12 से शाम 4 बजे तक रेल रोको कार्यक्रम के बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना में पंचायतों की योजनाओं को अंतिम रूप दिया जा रहा है।

इन पंचायतों से विपक्षी दलों में भी नई स्फूर्ति आ गई है। जाहिर है, इसमें कूदे सबसे पहले राष्ट्रीय लोक दल के जयंत चौधरी। समूचे पश्चिम उत्तर प्रदेश में वे लगातार सभाएं कर रहे हैं। फिर, पश्चिम उत्तर प्रदेश में जिस तरह जाट और मुसलमानों के बीच पुरानी रंजिश भूलकर नई गोलबंदी बन रही है, उससे रालोद को नई संभावनाएं दिखने लगी हैं। शायद इसी एहसास ने कांग्रेस में भी दम भरा है। राजस्थान में सचिन पायलट की पंचायतों में सक्रियता के बाद प्रियंका गांधी और राहुल भी पंचायतों में हिस्सा लेने लगे हैं। प्रियंका उत्तर प्रदेश में तो राहुल राजस्थान की सभाओं में पहुंचे। जहां तक संयुक्त किसान मोर्चे का सवाल है, तो वह अपने मंच पर विपक्ष को मौका नहीं दे रहा है, लेकिन विपक्ष की सभाओं से उसे कोई परहेज नहीं है।

निश्चित रूप से सरकार और भाजपा के माथे पर इससे शिकन हो सकती है। जाट बेल्ट को ही देखें तो तकरीबन 40 संसदीय सीटें इस क्षेत्र में हैं, जिनमें अधिकांश पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा के पाले में गई हैं। जाटों के भाजपा की ओर रुख करने का असर इस इलाके की बाकी जातियों में हुआ। इसलिए 16 फरवरी को भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की अध्यक्षता में इस इलाके के सांसदों और नेताओं की बैठक हुई, जिसमें अमित शाह भी मौजूद थे। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक बैठक में अमित शाह ने कृषि कानूनों के फायदे से किसानों को जागरूक करने की बात पर बल दिया। लेकिन भाजपा नेता जानते हैं कि इलाके में लोगों की भावनाओं के मद्देनजर यह आसान नहीं है। जनवरी में भाजपा ने देश भर में किसान सम्मेलनों का ऐलान किया था। उनमें कुछ हुए भी। ऐसे ही सम्मेलन की कोशिश हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने अपने चुनाव क्षेत्र करनाल में करने की कोशिश की थी, लेकिन किसानों के विरोध के कारण वह संभव नहीं हो सका।

उधर, किसान नेताओं के भाजपा का हर चुनाव में विरोध करने की अपील से खासकर कांग्रेस में उत्साह है। पंजाब में हाल में पंचायत चुनावों में भाजपा अपने प्रत्याशी भी खड़ा नहीं कर पाई।

खालिस्तानी तत्व तलाशने के लिए पर्यावरण कार्यकर्ताओं पर दबिश बढ़ाई जा रही है, ताकि लोगों की धारणा को बदला जा सके

कृषि कानूनों के खिलाफ जनमत संग्रह कहे जाने वाले पंजाब के निकाय चुनावों में भाजपा को बड़ी हार का सामना करना पड़ा है। पठानकोट को भाजपा का गढ़ माना जाता रहा है, लेकिन यहां की 50 में से 37 सीटें कांग्रेस के खाते में गई हैं। भाजपा का मेयर होने के बावजूद यहां पार्टी के सिर्फ 11 उम्मीदवार जीत सके। आठ नगर निगमों में से छह पर कांग्रेस को जीत मिली है। अबोहर की 50 में से 49 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार विजयी हुए हैं। कांग्रेस प्रत्याशियों को बठिंडा की 41, होशियारपुर की 41, बटाला की 35 और कपूरथला की 43 सीटों पर जीत हासिल हुई है।

मोगा एकमात्र जगह है जहां कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा है। यहां 50 में से उसे 20 सीटें मिली हैं। लेकिन वह मालवा क्षेत्र के फिरोजपुर और जीरा नगर परिषद की सभी सीटें जीतने में कामयाब रही। यही नहीं, अकाली गढ़ कहे जाने वाला जलालाबाद और फाजिल्का में भी उसने अच्छा प्रदर्शन किया है। फाजिल्का में भाजपा ने 25 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन सिर्फ चार पर उसके प्रत्याशी जीतने में कामयाब हुए। खन्ना में सिर्फ दो सीटों पर कमल खिल सका। मालवा के अलावा माझा और दोआबा में भी ज्यादातर जगहों पर कांग्रेस को बहुमत मिला है।

इससे उत्साहित कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार अभी से 2022 के चुनावों की तैयारी में जुट गई है। सो, सत्तारूढ़ कांग्रेस विधानसभा के आसन्न बजट सत्र में केंद्र के कृषि कानूनों के तोड़ में अपने कृषि बिल दूसरी बार विधानसभा में ला रही है। ये बिल अक्टूबर 2020 में विधानसभा में लगभग सर्वसम्मति से पारित हुए, मगर राज्यपाल ने उन्हें राष्ट्रपति को नहीं भेजा। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिदंर सिंह का कहना है, “हम विधानसभा में दूसरी बार बिल इसलिए लाने जा रहे हैं क्योंकि दो बार विधानसभा में बिल पारित होने के बाद राज्यपाल के लिए राष्ट्रपति को भेजना संवैधानिक तौर पर अनिवार्य होगा। राज्य को संवैधानिक अधिकार है कि वह धारा 254(ii) के तहत केंद्र के कानून में संशोधन कर सकता है।” इसके अलावा कैप्टन सरकार ने आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले पंजाब के 88 किसान परिवारों में प्रत्येक को पांच लाख रुपए मुआवजा और सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया है। इन परिवारों की पूरी कर्ज माफी भी विचाराधीन है। दिल्ली की जेलों में बंद आंदोलकारी किसानों की पैरवी के लिए 40 सरकारी वकील नियुक्त किए गए हैं। सरकार ने आंदोलनरत किसानों के खिलाफ पंजाब पुलिस में दर्ज 170 मामले भी वापस ले लिए हैं।

अमित शाह ने कृषि कानूनों के फायदे से किसानों को जागरूक करने की बात कही, पर भाजपा नेता जानते हैं कि ऐसा करना आसान नहीं

उधर विधानसभा में विपक्ष के नेता हरपाल सिंह चीमा ने आउटलुक से बातचीत में कहा, “क्या राज्य के ये कानून किसानों को एमएसपी पर फसल खरीद की गारंटी देंगे?” शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल ने कहा, “राज्य के कृषि कानूनों की वैधता पर अक्टूबर 2020 से लेकर अब तक अमरिंदर सिंह ने क्या किया?”     

कृषि कानूनों के विरोध में अगस्त 2020 से पंजाब के रेलवे ट्रैक और टोल प्लाजा पर धरने के बाद दिल्ली की सीमाओं को घेरने वाले पंजाब के किसान नेताओं की आंदोलन की अगुआई को लेकर बरकरार बढ़त 26 जनवरी को दिल्ली के लाल किले पर हुड़दंग के बाद कमजोर पड़ने लगी थी। सिंघू और टिकरी बॉर्डर पर किसान कुछ कम हुए हैं। यही हाल गाजीपुर बॉर्डर का भी है। लेकिन किसान नेता इसकी वजह यह बताते हैं कि अब खेतों में काम शुरू हो गए हैं तो हमने रणनीति बदल दी है। नई रणनीति के हिसाब से हर घर से सिर्फ एक आदमी धरने में शामिल होगा और गांव के लोग उसका काम करेंगे। आउटलुक से बातचीत में राजेवाल ने कहा, “अब पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में खेती के काम को देखकर यही योजना बनाई गई है, ताकि काम भी न रुके और आंदोलन भी जारी रहे। इसके अलावा इलाके में पंचायतों के जरिए दबाव बढ़ाया जाएगा।” उन्होंने बताया कि 26 जनवरी को जिन किसानों की दिल्ली में गिरफ्तारी हुई है, उन्हें छुड़वाने के लिए वकीलों की एक कमेटी गठित की गई जो इन किसानों के केस मुफ्त लड़ेगी। जेल में बंद नौजवानों के खाने-पीने के सामान का बिल संयुक्त किसान मोर्चा कमेटी दे रही है

विपक्ष को मिला दमः  कांग्रेस नेता प्रियंका और राहुल गांधी भी पंचायतों में हिस्सा ले रहे हैं। यह तस्वीर बिजनौर की

महापंचायतों के जरिए किसान आंदोलन को गति देने की रणनीति पर सेंटर फॉर रिसर्च ऐंड इंडस्ट्रियल डवलपमेंट (क्रिड) के राजनीतिक विश्लेषक आरएस घुम्मण का कहना है, “उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं की सक्रियता से केंद्र पर दबाव बढ़ेगा, क्योंकि अगले साल पंजाब के साथ यूपी में भी विधानसभा चुनाव हैं। उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं, जबकि पंजाब में सिर्फ 13 हैं। इसी के चलते राकेश टिकैत की किसान महापंचायतों की रणनीति बनाई गई है।”

जाहिर है, दोनों तरफ से फिलहाल तो तेवर सख्त ही दिख रहे हैं लेकिन माहौल अनुकूल हों तो बेहतर है। किसान नेताओं का कहना है कि अनुकूल माहौल बनाना सरकार का काम है। उनकी मांग है कि न सिर्फ गिरफ्तार किसानों को छोड़ा जाए, बल्कि मुकदमे वापस लिए जाएं। किसान नेता आंदोलन का समर्थन करने वाले लोगों, कार्यकर्ताओं और कुछ पत्रकारों के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई पर भी सवाल उठाते हैं। अब देखना है कि कहां से बात आगे बढ़ती है।

सवाल यह भी है कि क्या यह आंदोलन देश में नई सियासी फिजा तैयार कर सकता है? गौरतलब है कि 2018 में मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में मंदसौर में किसानों पर गोलीकांड का असर भी दिखा था, जिससे कांग्रेस को बड़ी कामयाबी हासिल हुई थी। यह अलग बात है कि बाद में ज्योतिरादित्य सिंधिया के खेमे के कांग्रेस से टूटने के बाद फिर भाजपा सत्ता में काबिज हो गई। तो, क्या इस आंदोलन के असर भी चुनावों में दिखने शुरू होंगे? यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इतना तय दिखता है कि इसका दीर्घकालीन असर देखने को मिल सकता है।

-साथ में चंडीगढ़ से हरीश मानव

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हरियाणा

नाम गुम जाएगा

एक नवम्बर 1966 को पंजाब से अलग होकर अस्तित्व में आए हरियाणा की सरकार अपने सभी 163 कानूनों से ‘पंजाब’ शब्द हटाने जा रही है। कानून वही रहेंगे, सिर्फ नाम में पंजाब की जगह हरियाणा हो जाएगा। राज्य सरकार की समिति ने इस बारे में अपनी सिफारिशें सौंप दी हैं। अब 5 मार्च से शुरू हो रहे बजट सत्र में इसका बिल पेश किया जा सकता है।

हरियाणा विधानसभा अध्यक्ष ज्ञानचंद गुप्ता ने आउटलुक से कहा, “पंजाब से 1966 में अलग होने के बाद हरियाणा के सभी कानून पंजाब के नाम पर थे। गत 55 वर्षों से राज्य की शासन व्यवस्था इन्हीं कानूनों के आधार पर चल रही है।” जब पंजाब को विभाजित कर हरियाणा बना, तब पंजाब में जो कानून थे, वे उसी रूप में हरियाणा में लागू कर दिए गए थे। तब यह व्यवस्था बनी थी कि 1968 में हरियाणा अपनी जरूरतों के मुताबिक इनमें आवश्यक संशोधन कर सकेगा। अब नाम बदलने के लिए गुप्ता ने ही पहल की है। रोचक बात है कि गुप्ता मूल रूप से पंजाब के डेराबस्सी के हैं। पंजाब में भाजपा की सियासत में लंबे समय तक उनका दखल रहा है।

नाम बदलने पर सुझाव देने के लिए राज्य सरकार के कानूनी सलाहकार बिमलेश तंवर की अध्यक्षता में समिति बनाई गई थी। इसकी सिफारिशों को मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की मंजूरी मिल चुकी है। अब संसदीय कार्य विभाग इसके आधार पर विधेयक का मसौदा तैयार करेगा। गुप्ता ने बताया कि बजट सत्र में इसका विधेयक प्रस्तुत किया जा सकता है। राज्य सरकार के इस कदम पर हरियाणा के पूर्व एडवोकेट जनरल हवा सिंह हुड्डा का कहना है, “बाप का नाम हटाकर संतान आखिर क्या हासिल करना चाहती है। बाप तो बाप ही रहेगा और उसकी पहचान भी उसी से रहेगी।”

चंडीगढ़ से हरीश मानव

 

 

 

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