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अंबेडकर जयंती विशेष- दलित दौर की दमदार धमक, मिलिए उन दलितों से जिन्होंने बनाई अपनी एक अलग पहचान

डॉ. सूरज येंग्ड़े दलित समुदाय की अपूर्व प्रतिभा से पूरी तरह बावस्ता होने के लिए संपूर्ण दलित अनुभव में...
अंबेडकर जयंती विशेष- दलित दौर की दमदार धमक, मिलिए उन दलितों से जिन्होंने बनाई अपनी एक अलग पहचान

डॉ. सूरज येंग्ड़े

दलित समुदाय की अपूर्व प्रतिभा से पूरी तरह बावस्ता होने के लिए संपूर्ण दलित अनुभव में गहरे गोता लगाने की दरकार है। इन अनुभवों की जड़ें गैर-दलितों के दर्ज एकांगी अफसानों में नहीं हैं। दलित ऐतिहासिक समुदाय है। वे विशिष्ट हैं और विविध रंगों को समेटे हुए हैं। इसलिए उनके अनुभवों को आत्मसात करने के लिए हमें इस सैद्धांतिक प्रश्र की परीक्षा-निरीक्षा की जरूरत है कि वे दुनिया के सबसे समृद्ध क्षेत्र दक्षिण एशिया में तकरीबन ईसा पूर्व 1000 से कैसे सबसे अधिक विद्वेष वाले समूह बन गए। दलितों की अपनी परंपराओं और भौतिक समृद्धि के अनुभव पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस तरह उतरते हैं कि उनके सामाजिक व्यवहार में दलित प्रेम, दलित कला और दलित हास्य के रूप में करुणा पैदा करता रहा है। यह जीव जगत में क्षमा के भाव का ही विस्तार है। साझापन ही जीवन के सह-अस्तित्व का वह मंत्र है, जो एक-दूसरी पीढ़ी को थमाया जाता रहा है। दलित के लिए अपने वजूद का विस्तार सबसे पहले दूसरे के प्रति ज्ञान में है और फिर सच्चे हितों और खांटी सच्चाइयों के साथ सकारात्मक भावनाओं और स्मृतियों की रचना है। अगर दलित जीवन का यह सार है तो राष्ट्र की विरासत इसे तहस-नहस करने के लिए कहां से आ गई?

लालच और शोषण की ताकतों ने एकजुट होकर सबसे पहले प्रेम और मदद का हाथ बढ़ाने के दर्शन पर ही हमला बोला। दलित जीवन-शैली को जमींदोज करने में कई पीढि़यां और सुनियोजित अफसाने लगे। दलितों के राजा-रानी थे, वे अतीत में शासक थे। लेकिन उनका इतिहास और उनकी गौरवमयी कहानियां उनसे छीन ली गईं। दुनिया में और कहीं भी इतने व्यापक और संसाधनों से भरपूर समुदाय पर अस्पृश्यता नहीं थोपी गई। यह प्रेम और दूसरे की परवाह करने वाले दलितों को निशाना बनाने की सोची-समझी चाल थी। दलितों में इन सिद्धांतों की जड़ें गहरी और लोकतांत्रिक थीं। उसमें बराबरी के आधार पर समाज व्यवस्था की अर्थव्यवस्था में सबको भागीदारी की अनुमति थी। इसलिए शोषकों को उन्हें काबू में करने के लिए कुछ अधिक ही भयावह और मारक व्यवस्था लाने की जरूरत थी। सो, दलित अस्तित्व के मूल भाव प्रेम, हास्य और कला को अभिशाप बना दिया गया। यह कैसे किया गया? जो कुछ अच्छा था, उसे अनुकूल बनाकर, संशोधित करके या तोड़-मरोड़कर। बाकी जो बचा, उसे चुराकर शोषकों ने अपना बता दिया।

हालांकि वे जीवंत अनुभव और स्मृतियों को पूरी तरह मिटा नहीं सके, जो हर पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को बड़े करीने से सौंप जाती है। दलित जीवन-शैली का सार यह है कि जिस निर्वाण की प्राप्ति के लिए साधु-संन्यासी गृहस्थी छोड़ देते हैं, वही निर्वाण दलित मां अपने शिशु को देखकर पाती है। घर और खेल में काम करने के हुनर ने समुदाय में एका का भाव पैदा किया है। यही दलित जीवन ब्राह्मणवाद के साम्राज्य के लिए खतरे जैसा है। सो, दलितों को सामाजिक जीवन के आनंद से दूर करने के उपाय सोचे गए। उन्हें अछूत बना दिया गया। उनके लिए मानव जीवन अभिशाप बना दिया गया। इसके बावजूद दलित समुदाय ने सदियों पुरानी जाति व्यवस्था को भेद डाला है। नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग करके प्रभुत्व संपन्न जातियों ने चुपचाप आंबेडकर की प्रतिभा और उनके महत्व को स्वीकार कर लिया है। क्या यह सत्यमेव जयते की बात नहीं है?

इस विशेष अंक में चुनी गई अजीम शख्सियतें दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश में अपना योगदान देने की प्ररेणा से लैश हैं। वे आकर्षक और हर वक्त आगे बढ़ने को तत्पर हैं। वे बेहद साधारण मगर ऐसे विरले हैं कि उनसे हर कोई जुड़ना चाहे। वे खुदमुख्तार हैं और वे दूसरों को आश्चर्यजनक छलांग लेने को प्रेरित करते हैं। उनकी प्रतिभा और मानवता की सेवा से कोई अनछुआ नहीं जाता। उनके चरित्र की बानगी विनम्रता है और अपने साहसिक प्रयासों से उन्होंने ऐसी राह बनाई है, जो नई पीढ़ी की प्रेरणा के लिए काफी है। उन्होंने अपने लोगों के प्रति ईमानदार रहने के लिए कई तरह के जोखिम उठाए हैं। ऐसी फेहरिस्त बनाने का विचार मेरे मन में पहली दफा तब आया जब मैं हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में अफ्रीकन और अमेरिकन अफ्रीकन स्टडीज विभाग से जुड़ा।

बेशक, इक्कीसवीं सदी की रूपरेखा दलितों के दिमाग और दिल से आकार लेगी। वे ऐसे सुर्खियों के किरदार होंगे कि दुनिया में चर्चा का विषय बनेंगे। तब तक आइए उन लोगों को जीवन और काम का जश्र मनाएं, जो बराबरी वाली दुनिया के लिए संघर्षरत हैं।

जॉनी लीवर
अभिनेता

अपने चेहरे से ही हंसी बिखेर देने की क्षमता रखने वाले जॉनी लीवर आज भी सबसे ज्यादा पैसे पाने वाले कॉमेडियन हैं। उनकी कहानी भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। गरीबी की वजह से उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा और बंबई की गलियों में पेन बेचने का काम करना पड़ा। लेकिन फिल्म जगत में एक दलित के रूप में उनकी सफलता निश्चित तौर पर 108 साल के फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में उल्लेखनीय है। उनके बेटे की बीमारी एक अहम मोड़ लेकर आई, जब कैंसर की लड़ाई से उम्मीदों के विपरीत वे जीत कर आए। वे अब ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं। ऐसे में दक्षिणपंथी उन पर धर्म परिवर्तन कराने का आरोप लगाने लगे हैं।

हिमा दास 
एथलीट

असम के एक छोटे से गांव की एक लड़की, जो एक समय बेहद सस्ते जूते पहनकर दौड़ती थी। क्योंकि उसके पिता की हैसियत नहीं थी कि वे एडिडास के जूते खरीद कर बेटी को दे पाएं। लेकिन अब समय बदल चुका है, अब हिमा एडिडास के उनके लिए बनाए गए खास जूतों को पहनती है, जिस पर उनका नाम होता है। छोटे शहर से निकली हिमा आज भारत की टॉप एथलीट में शामिल हैं। उन्हें धींग एक्सप्रेस भी कहा जाता है। जब उन्होंने अंडर-20 विश्व चैम्पियनशिप में 400 मीटर का स्वर्ण पदक फिनलैंड में 2018 में जीता तो अचानक सबकी नजर में आ गईं। 21 साल की हो चुकी हिमा के पास शायद अब ज्यादा करियर नहीं बचा है लेकिन इतना तो तय है कि वे कई युवाओं का रोल मॉडल बन चुकी हैं।

ज्योति कुमारी 
छात्रा

अपने चोटिल पिता को लॉकडाउन के समय गुरुग्राम से मई की गर्मी में 15 साल की ज्योति साइकिल पर बिठाकर 1200 किलोमीटर दूर अपने घर दरभंगा के लिए निकल पड़ी थी। ज्योति की हिम्मत ने पूरी दुनिया में उन्हें चर्चित कर दिया। द न्यूयार्क टाइम्स ने उन्हें शेरनी की संज्ञा से नवाजा। यही नहीं भारत सरकार ने प्रधानमंत्री बाल पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए साइकिल संघ उन्हें खिलाड़ी के रूप में तैयार करना चाहता है, वहीं फिल्म निर्माता उन पर फिल्म बनाने की चाह में हैं। हालांकि ज्योति केवल पढ़ाई करना चाहती हैं।

मनोरंजन ब्यापारी
लेखक/ नेता

बंगाल भारतीय “पुनर्जागरण” का जन्मस्थान है। फिर भी, सैकड़ों लेखकों, कवियों और रचनात्मक पेशेवरों के बीच, किसी भी ऐसे नाम की पहचान करना लगभग असंभव है जो सवर्ण नहीं है। लेकिन इसी संघर्ष में मनोरंजन ब्यापारी ने जाति, वर्ग, शरणार्थी की दीवारों को तोड़ने वाली अपनी आत्मकथा 2016 में जारी की। बांग्लादेश से आए शरणार्थी, नक्सलवादी आंदोलन में शामिल होने वाले ब्यापारी जेल गए, रसोइया बने। जब उनकी आत्मकथा जारी हुई तो उसके बाद उन्होंने कई पुरस्कार जीते, प्रतिष्ठित साहित्य समारोह में आमंत्रित हुए। अब वे टीएमसी की ओर से पश्चिम बंगाल के बालागढ़ से विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं।

मारी सेलवराज 
निर्देशक

अपनी दूसरी फिल्म कर्णन (तमिल) से ही वे सभी घरों में लोकप्रिय हो गए। उनकी फिल्म में एक डॉयलाग था जिसमें नायक धनुष पुलिस अधीक्षक से कहता है, “आप परवाह नहीं करते हैं कि हमारी वास्तविक समस्याएं क्या हैं। इसके बजाय आप हमारे नामों से परेशान हैं - (जैसे कर्णन, दुर्योधन और अभिमन्यु) क्योंकि आप हमें बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं।” इसी तरह पहली फिल्म पेरियारुम पेरुमल ज‌िसमें वे तमाम मुद्दों, कॉलेज शिक्षा और उच्च जाति की लड़की से प्यार को उठाते हैं। फिल्म के अंत के बारे में वे कहते हैं कि किसी भी विवाद का हल बातचीत से ही निकलता है। यही फिल्म का संदेश है। वे कहते हैं वास्तव में इस समाज के लोग यही चाहते हैं।

नीरज घेवान 

फिल्मकार

हमारे सामने आज सफल दलितों की एकदम नई पीढ़ी है। वे अपनी पहचान और वंचित पृष्ठभूमि को छुपाते नहीं हैं, बल्कि वे यह बताते हैं कि कैसे इस भेदभाव वाले समाज में संघर्ष कर उन्होंने अपनी जगह बनाई है। नीरज घेवान ने कान में एफआइपीआरईएससीआई पुरस्कार जीता है। उन्होंने ब्रिटिश एयरलाइंस के लिए विज्ञापन का निर्देशन किया है और दक्षिणपंथी पोस्टर ब्वॉय विवेक अग्निहोत्री का ट्विटर पर मुंह भी चुप कराया है। आज वे बिजनेस क्लास में सफर करते हैं। उनका सपना है कि वे उस बॉलीवुड में सबके लिए समान मौके लेकर आएं, जहां खत्री और पठान राज कर रहे हैं।

अरिवू 

रैपर

अगर कभी किसी गैर-फिल्मी तमिल गीत ने इंटरनेट पर तूफान मचाया है तो वह गायक धी और रैपर अरिवू (अरिवरासु कल्यानसेन) का एन्जॉय एनजामी ही है। अरिवू ने गीत को लिखा है और साथ ही संगीत भी दिया है। अरिवु के गीत प्रकृति और उसके कई पहलुओं - झीलों, भूमि, पेड़ों और जानवरों का जश्न मनाते हैं। झीलों और तालाबों का संबंध लोमड़ी, कुत्तों और बिल्लियों से भी है, जो वास्तव में समतावाद को रेखांकित करता है। अरिवू कहते हैं, “यह गीत मेरी दादी वल्लियम्मा को एक व्यक्तिगत श्रद्धांजलि है, जिसे श्रीमाव-शास्त्री अधिनियम के तहत भारत वापस भेज दिया गया था। यह एक दलित के रूप में उनके साथ किए गए भेदभाव को दिखाता है।”

गदर 

लोकगायक

एक दमदार आवाज, दयालु इंसान और संघर्षों से भरा जीवन, बंटवारे के पहले के आंध्र प्रदेश के ग्रामीण लोग इसी अंदाज में गुमाठी विट्टल राव को याद करते हैं। वे गदर नाम से भी मशहूर हैं। एक इंजीनियरिंग का छात्र जिसने गीतकार, संगीतकार और गायक के रूप में अपनी प्रतिभा को पहचाना, जो मार्क्स-लेनिन की विचारधारा से भी प्रभावित था। वे जल्द ही भूमिगत हो गए और माओवादियों के कवि के रूप में वारंगल के जंगल में लोगों के बीच लोकप्रिय हो गए। करीब 40 वर्षों के संघर्ष के बाद उन्होंने 2010 में आत्मसमर्पण करने और आंबेडकरवादी बनकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। ‌िफर भी कॉमरेड के बीच लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई।

राजा नायक 

बिजनेसमैन

उन्होंने फुटपाथ पर शर्ट बेचने के काम से शुरुआत की थी। सत्तर के दशक में जब बंेगलूरू की एक फैक्ट्री के सामने राजा ने यह कारोबार शुरू किया तो वे व्यस्क भी नहीं थे। लेकिन यह साफ था कि राजा की यह मंजिल नहीं थी, फिर 90 के दशक में जिस तरह से आर्थिक उदारीकरण से देश नए करवट ले रहा था, उसी का फायदा राजा ने उठाया। उन्होंने कंप्यूटर उत्पादों की पैकिंग के लिए कार्डबोर्ड के कार्टन बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद लॉजिस्टिक बिजनेस शुरु किय। नायक दलित इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के साथ जुड़कर नए आंत्रप्रेन्योर को बिजनेस के नुस्खे सिखा रहे हैं।

विनोद कांबली ‌

क्रिकेटर

पलवणकर बालू के विपरीत विनोद कांबली ने अपनी आस्तीन पर कभी अपनी जाति नहीं लिखवाई और न ही क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद दलित कार्यकर्ता बने। मुंबई की मलिन बस्तियों से उनके उदय ने शायद उन्हें सिखाया था कि क्रिकेट में जीवित रहने और चमकने के लिए उन्हें न केवल निर्धनता से लड़ना होगा, बल्कि सबसे विशिष्ट क्लब बीसीसीआइ की टीम इंडिया में जाति की बाधा भी तोड़नी होगी। कुछ समय के लिए उन्हें बैट्समैन के रूप में खेलने का मौका भी मिला। लेकिन फॉर्म में मामूली गिरावट ने उन्हें टीम से हमेशा के लिए बाहर कर दिया। वे अपने आंसुओं के लिए याद किए जाएंगे। वे 1996 के वर्ल्ड कप सेमीफाइलन में हारने के बाद रोते हुए पवेलियन लौट गए थे।

राधिका वेमुला

एक्ट‌विस्ट

उनकी किस्मत में शायद एक शोक संतप्त मां बनना लिखा था, जो अपने होनहार बेटे रोहित की मौत की खबर की तरह धीरे-धीरे लोगों की स्मृति से गायब हो जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ उन्होंने अपने आपको एक ऐसी मां के रूप में स्थापित किया, जो 2016 के बाद से हर प्रगतिशील प्रदर्शनों में हजारों प्रदर्शनकारियों के बीच खड़ी रही। वे छात्रों, अल्पसंख्यकों, हाशिए और उत्पीड़ित समुदायों, किसानों, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की आवाज बनीं। रोहित वेमुला को न्याय दिलाने के अभियान को आगे बढ़ाने के साथ वे पीड़ितों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को भी आगे बढ़ा रही हैं।

डॉ. दसारी प्रसाद राव
कॉर्डियोथोरैसिक सर्जन

अस्सी के दशक के मध्य में, राव ने आंध्र प्रदेश में पहली कोरोनरी बाईपास सर्जरी की। उस समय, यह भारत में एक बहुत सामान्य बात नहीं थी। राव उस दौर को याद करते हुए कहते हैं कि वे भारत आने वाले उन युवा सर्जनों में शामिल थे जो विदेश में प्रशिक्षण प्राप्त करके आए थे। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित 71 वर्षीय दास ने कहा, "सस्ती कीमत पर उन्नत दवा, वह आदर्श वाक्य था जिसके साथ हमने काम किया था।" आज भी रोगी की सामर्थ्य के हिसाब से उन्नत चिकित्सा के खर्च को सीमित करना एक चुनौती है। लेकिन मेरा मानना है इस मोर्चे पर देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे प्रयास आखिरकार रंग लाएंगे।

सुखदेव थोराट 

शिक्षाविद

यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष, अर्थशास्त्री, जेएनयू के प्रोफेसर एमेरिटस - सुखदेव थोराट की कई पहचान है। लेकिन सरकार की नीति और शिक्षण अनुसंधान के कार्य में उन्हें अपने ही सहकर्मियों और वरिष्ठों के भेदभाव का सामना करना पड़ा। ऐसे में जब उन्हें मौका मिला तो उन्होंने उदारीकरण के बाद के भारत में सरकार की उन नीतियों से अस्पृश्यता और भेदभाव को खत्म करने की कोशिश की जो वर्षों से चली आ रही थी।

पा रंजीत 

फिल्म निर्माता

बॉलीवुड फिल्म बिरादरी को जिन मुद्दों पर फिल्म बनाने में डर लगता है, वे निडर होकर उन मुद्दों को उठाते हैं। भारतीय सिनेमा में जहां गांधी और बोस जैसे राज्य-स्वीकृत प्रतीकों के तस्वीरों को कार्यालय भवनों की दीवारों पर सजाया जाता है, उन्होंने अपनी पहली स्क्रिप्ट के पहले पृष्ठ पर आंबेडकर की एक तस्वीर लगाई। इसके बाद से रंजीत के करियर ने पीछे मुड़कर कर नहीं देखा। एक से बढ़कर एक ब्लॉकबस्टर फिल्में दीं और सभी में दलित चेतना को बखूबी पेश किया। एक निम्न मध्यम वर्ग पैदा होने वाले रंजीत को बचपन में ही शायद समान अवसर के खोखलेपन का आभास हो गया था। और यही उनकी सफलता का राज है।

नागराज मंजुले

फिल्म निर्माता

नागराज मुंजुले की फिल्में चौंकाने वाले कथानक लेकर नहीं आतीं, न ही वे मुख्यधारा के अफसानों से बहुत अलग लगती हैं। फिर भी दर्शकों को उन्हीं कहानियों के दम पर बड़े पैमाने पर खींचे चले आते हैं, जिन्हें व्यासायिक तौर पर काम का नहीं माना जाता। मसलन, सैरात सबसे चर्चित मराठी फिल्म बन गई और 2016 में प्रदर्शन के बाद पांच अलग-अलग भाषाओं में बनाई गई। अब बॉलीवुड में पूरी तरह जम गए मंजुले देखना है अमिताभ बच्चन के साथ क्या कर पाते हैं क्योंकि जून में उनकी फिल्म झुंड प्रदर्शित होने वाली है।

चंद्रभान प्रसाद 

समाज विज्ञानी

वे अपने आपको स्वयं-प्रशिक्षित मानव विज्ञानी और सामाजिक मनोविज्ञानी के रूप में कहलाना पसंद करते हैं। 1980 के दशक में प्रसाद सीपीआइ (एमएल) में शामिल हो गए थे। हथियार उठाने का मकसद भारतीय समाज से जातिवादी व्यवस्था को खत्म करना था। आज वे एक दलित चिंतक और व्याख्याता के रूप में मशहूर हैं और दलित तथा निचले तबके के लोगों (अस्पृश्य) के सशक्तीकरण के लिए काम करते हैं। उनकी किताबों का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है और भारतीय जाति व्यवस्था को समझने के लिए पूरी दुनिया में उनकी किताबें लोकप्रिय हैं। इन उपलब्धियों के बावजूद वे कहते हैं कि वे कभी न खत्म होने वाली लड़ाई लड़ रहे हैं।

अशोक दास
संस्थापक संपादक, दलित दस्तक

अशोक दास कहते हैं कि आप कभी नहीं समझ पाएंगे कि सदियों के जुल्म से जख्म कितने गहरे हो गए हैं। वे याद करते हैं कि कैसे उनकी मां सुनैना देवी को जातिसूचक शब्द सुनने पड़ते थे और उनके दिवंगत पिता अशर्फी दास को कैसे अदालत में टूटी हुई कप में चाय मिलती थी। दास पेशे से पत्रकार हैं। उन्होंने मुख्यधारा की मीडिया में जातिगत हिंसा और भेदभाव की घटनाओं पर नाराजगी में एक तरह का सतहीपन देखा। जून 2012 में, जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार और आंबेडकरवाद‌ियों के साथ मिलकर दलित दस्तक मासिक पत्रिका लांच की। 15 हजार प्रतियों के साथ शुरू हुआ सफर अभी तक जारी है। उनका एक यूट्यूब चैनल है जिसके आठ लाख से अधिक सब्सक्राइबर हैं।

भंवर मेघवंशी

एक्टिविस्ट

राजस्थान के भीलवाड़ा में रहने वाले भंवर मेघवंशी ने 1992 में जब 5 साल आरएसएस की शाखा में शामिल होने के बाद उसे छोड़ा तो व 18 साल के थे। लेकिन उस वक्त उनके इस फैसले पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। फिर 2019 में जब उन्होंने मैं एक कारसेवक था पुस्तक लिखी, फिर उसका अंग्रेजी अनुवाद मैं हिंदू नहीं हो सका: एक दलित की आरएसएस में कहानी छपी, तो वह काफी लोकप्रिय हो गई। तब से वे आरएसएस की हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के खिलाफ बोलने वाले प्रमुख चेहरा बन गए हैं। उनका मिशन दलितों की आवाज बनकर उनकी मदद करना है। साथ ही इस धारणा को तोड़ना है कि आरएसएस की तरफ से स्वीकृत हिंदू ही भारत के ल‌िए अच्छा है।

सुधीर राजभर
संस्थापक चमार स्टूडियो

चमार स्टूडियो के संस्थापक सुधीर राजभर अपनी जाति को किसी सम्मान की तरह लेकर चलते हैं। वे जाति से चमार हैं और उन्होंने इसे ही अपने स्टूडियो के नाम में रखा है। 34 साल के सुधीर शुरू से मुंबई में ही रहते आए हैं। उनकी कंपनी पर्स, बेल्ट और बैग बनाती है। उनके कर्मचारी दलित मोची, चमड़े का काम करने वाले और गली की सफाई करने वाले हैं। सुधीर कहते हैं कि कंपनी का नाम रखते समय उन्हें स्वाभाविक रूप से 'चमार' शब्द ही समझ आया। इसके जरिए हमारी कोशिश है कि लोगों को हिंदू धर्म में सबसे निचली जाति की पहचान से अलग भी कोई पहचान मिले। उनके उत्पाद न केवल भारत, बल्कि यूरोप में भी बेचे जाते हैं।

सुश्रुत जाधव

मनोचिकित्सक

प्राचानी भारतीय इतिहास में सुश्रुत एक महान आयुर्वेदाचार्य थे। उन्हीं के नाम के अनुरूप सुश्रुत जाधव ने भी अपना करियर चुना। वे यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के तेजी से उभरते मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने कई उल्लेखनीय पेपर जैसे रि-कास्टिंग फूड लिखे हैं, जिसमें उन्होंने बताया है कि गुजरात में छह साल से कम उम्र के बच्चे राज्य के पोषण कार्यक्रम से अलग क्यों छोड़ दिए जाते हैं।

आनंद तेलतुंबडे

एक्टविस्ट, शिक्षाविद

आनंद तेलतुंबडे की कई कहानियां हैं। बहुत से लोग यही जानते हैं कि उन्होंने बाबासाहेब आंबेडकर की पोती से शादी की थी। लेकिन आइआइएम अहमदबाद से एमबीए के साथ वे एक मैकेनिकल इंजीनियर भी हैं। एक शानदार कॉरपोरेट करियर को उन्होंने बीच में ही छोड़ एक शिक्षाविद के रूप में शानदार कैरियर को आगे बढ़ाया। भारत में जो चीज उन्हें वास्तव में अद्वितीय बनाती है, वह यह है कि वे मार्क्सवादी की नजर से आंबेडकर को कैसे पढ़ते हैं। भीमा-कोरेगांव में 2018 एल्गर परिषद की घटना के आसपास प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने के आरोप में उन्हें अप्रैल 2020 से यूएपीए लगाकर जेल में डाल दिया गया है।

वामन मेशराम

अध्यक्ष बामसेफ

महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के एक्टिविस्ट वामन मेशराम, ईवीएम के खिलाफ अनवरत लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका दावा है कि इनमें आसानी से छेड़छाड़ की जा सकती है। साल 2017 में उन्होंने चुनाव आयोग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने मतदान के समय वीवीपीएटी अनिवार्य करने को कहा था। अब पेपर ट्रेल को कई चुनावों में सफलतापूर्वक लागू किया जा चुका है। साल 2017 में एक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा था “दुनिया में ईवीएम से चुनाव होना से सबसे खराब व्यवस्था है। हम उस वक्त तक लड़ते रहेंगे, जब तक ईवीएम व्यवस्था खत्म नहीं हो जाती है।”

लाहौरी राम बाली

पत्रकार और एक्टिविस्ट

आज ऐसे बहुत कम लोग जीवित हैं जो दावा कर सकते हैं कि डॉ बी.आर. आंबेडकर से उनकी मुलाकात हुई थी। बाली की 30 सितंबर 1956 को बाबा साहेब की मुलाकात हुई थी। जालंधर स्थित लाहौरी राम बाली मूल आंबेडकरवादियों में से हैं। वे 30 सितंबर की उस घटना को याद करते हुए कहते हैं कि उस वक्त मैंने उनसे एक वादा किया था कि “मैं अपनी मृत्यु तक उनके आदर्शों के साथ जीऊंगा और उनके संदेश का प्रचार करूंगा। पिछले 64 वर्षों से, मैं अपने शब्दों पर कायम हूं।” 1958 में बाली ने उर्दू भाषा में भीम पत्रिका लॉन्च की और फिर 1965 में, उसे हिंदी में प्रकाशित करने का फैसला किया। आज भी उसका प्रकाशन जारी है।

आशा कोवटाल

एक्टिविस्ट

एक दशक से ज्यादा समय से जाति आधारित लैंगिक हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ रही आशा कोवटाल कहती हैं, इस संघर्ष ने मुझे जीवन के कई अहम सबक सिखाए हैं। वे कहती हैं, “ऐतिहासिक उत्पीड़न यही सिखाता है कि कैसे इसके जरिए संसाधनों, अवसर और सत्ता तक पहुंच को रोका गया है।” अखिल भारतीय दलित मनीला आदर्श मंच की पूर्व महासचिव, कोवटाल का उद्देश्य दलित महिला सम्मेलनों, स्वाभिमान यात्रा और दलित महिलाओं के लिए राष्ट्रीय न्यायाधिकरण जैसे केंद्रों में महिलाओं की आवाज उठाना और राजनीतिक चर्चा के केंद्र में लाना है। वे मानवाधिकार रक्षकों के लिए स्पेशल स्कीम तैयार करने में लगी हैं।

मालविका राज

चित्रकार

एक बार उन्हें इस बात के लिए तिरस्कार झेलना पड़ा था, क्योंकि वे दलित होकर भी मुधबनी पेंटिंग तांत्रिक स्टाइल में बनाना चाहती थीं। असल में ऐसी पेंटिंग बनाने का विशेष अधिकार केवल ब्राह्मणों के पास होता था। वे कहती हैं कि समाज में जाति व्यवस्था इतनी घर कर गई है कि मुझे कई दलित चित्रकारों ने इस तरह की पेटिंग न करने की सलाह दी थी। बिहार की मालविका की हिंदू और बौद्ध धर्म की कहानियों को पेटिंग के रूप में पेश करना पूरी दुनिया में सराहा जा रहा है। उनकी बाबा साहेब आंबेडकर की पेटिंग यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबरा में लगी हुई है। इसी से पता चलता है कि उन्होंने कहां से कहां तक का सफर किया है।

दिशा पिंकी शेख

ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट

जन्म से ही तिरस्कार झेलने वाली दिशा पिंकी का एक ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट के रूप में काम उल्लेखनीय रहा है। आज वे लेखक, वक्ता और प्रकाश आंबेडकर की पार्टी वंचित बहुजन अघाड़ी की राज्य प्रवक्ता हैं। वे बाबा साहेब आंबेडकर के कार्यों और उनकी शिक्षाओं से बेहद प्रभावित हैं। कुछ साल पहले वे दादर में शिवाजी पार्क के पास किताब बेचने वाली पहली ट्रांसजेंडर के रूप में चर्चा में आईं थीं। वे अपने भाषणों और सोशल मीडिया में गतिविधियों की वजह से भी काफी लोकप्रिय हैं।

इल्लैया राजा

संगीतकार

उन्होंने तमिल सिनेमा के संगीत को पूरी तरह से बदल दिया है। एक समय तमिल सिनेमा के संगीत में बांसुरी और ऑर्केस्ट्रा का बोलबाला था। लेकिन इल्लैया राजा ने पश्चिमी संगीत की धुनों को स्थानीय संगीत से रिमिक्स करके जो कमाल किया, उसने तमिल सिनेमा की तस्वीर बदल दी। उन्होंने करीब 1,000 फिल्मों में 7,000 गाने दिए  और 20 हजार से ज्यादा कन्सर्ट में भाग लिया। कमल हसन और रजनीकांत की कई फिल्मों की सफलता में उनका योगदान रहा। वे 5 बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता रहे हैं। उन्हें पद्म विभूषण से भी नवाजा गया है।

गोपाल गुरू 
शिक्षाविद

राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर, हमेशा अपने कार्यस्थल, जेएनयू के लिए श्रद्धा और प्रेम रखते हैं। लेकिन भारत की सबसे प्रसिद्ध समीक्षित समाज विज्ञान पत्रिका इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) के संपादक नियुक्त किए जाने के बाद वे चर्चा में आए। अपमान के मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर उनका शोध पथ-प्रदर्शक है कि कैसे दलितों और अन्य वंचित समुदायों पर सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से अत्याचार किया जाता है।

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