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नेहरू के दौर में भ्रष्टाचार

भारत सरकार में इंटेलीजेंस ब्यूरो के पूर्व अधिकारी और विवेकानंद फाउंडेशन के फेलो आरएनपी सिंह को खुफिया से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में गहरा अनुभव है। उनकी राइट्स एंड रांग्स, बांग्लादेश डिकोडेड और हिंदी में दो पुस्तकें बहुत चर्चित रहीं। नेहरू: ए ट्रबल्ड लीगेसी से उन्होंने कुछ मौलिक सवाल उठाए हैं: क्या हमने कभी नेहरू के बारे में ईमानदारी से मूल्यांकन किया है और इस प्रभाव में क्या हमने देश के समकालीन इतिहास का निष्पक्ष मूल्यांकन किया है? इस पुस्तक में नेहरू के सिद्धांतवाद या अपने हित में दोहरे मानदंड अपनाने पर सवाल उठाए गए हैं।
नेहरू के दौर में भ्रष्टाचार

इन सवालों से विवाद भी खड़ा हो सकता है। उनकी इसी पुस्तक की पृष्ठ संख्या 102-108 तक के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं:

 

 भ्रष्टाचार के बारे में नेहरू के रुख को आजादी के पंद्रह साल बाद दिए गए उनके इस हैरानी भरे बयान के जरिये मापा जा सकता है, जब इस संबंध में आरोपों के जवाब में उन्होंने कहा था, 'अगर मैं कहूं तो, भ्रष्टाचार दरअसल लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही नतीजा है, और मुझे डर है कि जैसे-जैसे यह प्रक्रिया बढ़ेगी, साथ-साथ भ्रष्टाचार भी गांवों तक पहुंच जाएगा।’ शुरुआत से ही नेहरू ने नैतिक मूल्यों को अपनाए जाने और भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर कोई ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस के 1948 में हुए अधिवेशन में जब शंकर राव देव ने 'सार्वजनिक आचरण के मानक’ पर एक प्रस्ताव पेश किया तो बिहार से एक सदस्य ने इसमें एक संशोधन किया, जिसमें कहा गया था, 'सभी कांग्रेसियों, केंद्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों के सदस्यों और खास तौर पर कैबिनेट के सदस्यों को एक उदाहरण पेश करते हुए आचरण के उच्चतम मानक स्थापित करने चाहिए।’ इस संशोधन को कांग्रेस ने 52  के मुकाबले 107 वोटों से पारित कर दिया। अगले ही दिन नेहरू ने उस संशोधन को वापस न लिए जाने पर इस्तीफे की धमकी दे दी क्योंकि उनका मानना था कि यह प्रस्ताव उनकी सरकार के खिलाफ टिप्पणी करता था। तब अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की विशेष रूप से बुलाई गई बैठक में इस प्रस्ताव को संशोधित किया गया और उसमें से विधायिका के सदस्यों और मंत्रियों के बारे में सभी जिक्र को हटा दिया गया। नेहरू ने जनप्रतिनिधियों और मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर न केवल कभी ध्यान नहीं दिया बल्कि उनके बारे में यह धारणा रखी कि ऐसे आरोप राजनीति-प्रेरित होते हैं और उनका कोई तथ्यात्मक आधार नहीं होता। एस. गोपाल के शब्दों में- 'यह यकीन करते हुए कि बाकी दुनिया की जगह भारत में भ्रष्टाचार कम है, नेहरू को यह संदेह रहता था कि विपक्षी दल सरकार और कांग्रेस को नीचा दिखाने के लिए हमेशा भ्रष्टाचार की मौजूदगी को बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे हैं।’

 

कभी-कभी तो नेहरू भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को बचाने के लिए बड़ी अजीबोगरीब दलीलें दिया करते थे। कांग्रेस संगठन में महासचिव का पद संभाल चुके एक वरिष्ठ कांग्रेस सदस्य ने 1960 के दशक के शुरुआती सालों में एक बार टिप्पणी की थी, 'पिछले पांच सालों में जहां 44,000 सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत, भ्रष्टाचार आदि के मामले में दंड मिल चुका है, वहीं एक भी मंत्री को कानून का सामना नहीं करना पड़ा।’ हैरानी की बात तो यह थी कि नेहरू ने ऐसे मंत्रियों के नाम तक जानने की कोशिश नहीं की और उसके बजाय अपने एक दोस्त को कहा, 'मैंने ईमानदार लोगों के साथ मिलकर काम करने की कोशिश की है लेकिन देश ज्यादा आगे नहीं जा पाया। ये जिन दो-तीन मंत्रियों का जिक्र तुमने किया है, मुझे पता है कि वे भ्रष्ट हैं लेकिन वे कुशल हैं। और देश की तरक्की के लिए मैं यह कीमत भी चुकाने को तैयार हूं।’ नेहरू संभवतया यह भूल गए थे कि भ्रष्टाचार वह संक्रामक बीमारी है, अगर वह ऊपर के लोगों को पकड़ लेती है तो वह किसी सुनामी की तरह नीचे तक तेजी से फैलती है। भ्रष्टाचार के प्रति यह रवैया दिखलाकार, नेहरू दस साल पहले संसद में की गई अपनी ही घोषणा को भूल गए थे, 'अगर हम भ्रष्टाचार और कालाबाजारी से सख्त से सख्त कदम उठाकर निबट पाते हैं, तभी आप यह पाएंगे कि हमने कुछ अच्छा काम किया है।’

 

यह बात नेहरू के संज्ञान में थी कि उद्योगपति कांग्रेस पार्टी को धन उपलब्‍ध करा रहे हैं। इस संदर्भ में कानपुर के एक पूंजीपति हरिदास मूंधड़ा का थोड़ा विस्तार से विशेष उल्लेख करने की जरूरत है क्योंकि नेहरू ने एक बार यह टिप्पणी की थी, 'जहां तक मेरी जानकारी है, इस व्यक्ति की छवि अच्छी नहीं है।’ लेकिन हरिदास मूंधड़ा की एक निजी कंपनी में भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) द्वारा निवेश किए जाने के औचित्य के मसले पर सितंबर 1957 में संसद में हुई बहस के दौरान नेहरू के साथी और वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी के खिलाफ मूंधड़ा का पक्ष लिए जाने के आरोप लगे थे। जब टीटी कृष्णमाचारी ने इसका कड़ाई से जवाब दिया तो कांग्रेस के कुछ बागी सांसदों ने उनके तीखे सवाल करने शुरू कर दिए। इनमें प्रमुख थे प्रधानमंत्री के दामाद रहे फिरोज गांधी। उनका दावा था कि मूंधड़ा के शेयर इसलिए खरीदे गए ताकि उनकी कीमत उनके वास्तविक बाजार मूल्य से ऊपर चढ़ जाए। फिरोज ने इस बात पर हैरानी जताई कि कैसे भारतीय व्यावसायिक अंडरवर्ल्ड के इस रहस्यमयी व्यक्ति के साथ एक विवादास्पद सौदा करने में एलआईसी स्वेच्छा से अलग पक्ष बन गया। फिरोज गांधी ने इसे '(सरकारी स्वामित्व वाले) निगम को उसके कोष से वंचित करने की एक साजिश’ बताया।

 

आलोचना के आगे झुककर सरकार ने इस मामले में जांच के लिए एक आयोग गठित कर दिया। दरअसल, इसकी दो लगातार जांचें हुईं और दोनों का ही नेतृत्व एक-एक प्रमुख जज ने किया। उनके निष्कर्ष कांग्रेस सरकार के लिए सुखद नहीं थे। जस्टिस विवयन बोस ने अपने निष्कर्ष में कहा, 'यह पाया गया है कि मूंधड़ा ने कांग्रेस पार्टी और दो कांग्रेस सरकारों (केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारों) को राजनीतिक कारणों से दो अवसरों पर बड़े तरीके से उपकृत किया है। उन्होंने चुनावों से ऐन पहले उत्तर प्रदेश कांग्रेस पार्टी को डेढ़ लाख रुपये और केंद्रीय पार्टी को एक लाख रुपये अदा किए हैं- मूंधड़ा ने केंद्र और राज्य सरकारों को उपकृत करने के लिए ब्रिटिश इंडिया कॉरपोरेशन के निदेशक मंडल को इस बात के लिए राजी किया कि वह कानपुर मिल्स के क्लोजर नोटिस को वापस ले लें इस तथ्य को जानते हुए भी कि नतीजे में ब्रिटिश इंडिया कॉरपोरेशन को 20 से 25 लाख रुपये का खमियाजा भुगतान पड़ेगा..  चंदे के मामले में मूंधड़ा ने कहा कि उन्होंनें चंदा इसलिए दिया क्योंकि उन्हें पार्टी में 'विश्वास’ था। मिलों के बारे में उन्होंने कहा कि उन्हें मदद का वादा किया गया था... और हमारी जानकारी में यह तथ्य आया है कि उन्हें कुछ ही समय बाद सवा करोड़ रुपये वाकई प्राप्त हुए थे।’

 

न्यायाधीशों की अंतिम रिपोर्ट बड़ी तीखी थी और उनकी कीमत कांग्रेस को चुकानी ही पड़ी। वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी और उनके सचिव, दोनों को पद छोड़ना पड़ा। मूंधड़ा स्कैंडल ने कांग्रेस की गांधीवादी नैतिकता के दावे को पहली गंभीर चोट पहुंचाई थी।

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