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प्रमोशन में आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कांग्रेस-लोजपा समेत कई दल असहमत

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण न तो मौलिक अधिकार है, न ही राज्य...
प्रमोशन में आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कांग्रेस-लोजपा समेत कई दल असहमत

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण न तो मौलिक अधिकार है, न ही राज्य सरकारें इसे लागू करने के लिए बाध्य है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने अपने एक निर्णय में इस बात का जिक्र किया है। इसे लेकर कांग्रेस ने असहमति जताई है। वहीं लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने भी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए फैसले के प्रति नाराजगी जाहिर की है।

कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का संसद में विरोध करेंगे। साथ ही उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस) देश से आरक्षण खत्म करना चाहती है।

खड़गे ने बेंगलुरु में कहा, 'सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि नौकरियों और पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। इस फैसले ने हाशिए के समुदायों को चिंतित किया है। हम इसके खिलाफ संसद के भीतर और बाहर विरोध करेंगे। भाजपा और आरएसएस लंबे समय से आरक्षण को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं।'

लोजपा ने भी जताई असहमति

इससे पहले लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने भी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए फैसले के प्रति नाराजगी जाहिर की है। सांसद चिराग पासवान ने ट्वीट कर कहा है, 'सुप्रीम कोर्ट द्वारा 7 फरवरी 2020 को दिए गए निर्णय जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि सरकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग को सरकारी नौकरी/पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है।'

लोजपा सांसद ने लिखा है, 'लोक जनशक्ति पार्टी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सहमत नहीं है यह निर्णय पूना पैक्ट समझौते के खिलाफ है। पार्टी भारत सरकार से मांग करती है कि तत्काल इस संबंध में कदम उठाकर आरक्षण / पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था जिस तरीके से चल रही है उसी तरीके से चलने दिया जाए।'

क्या है अदालत का फैसला?

खंडपीठ ने कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण नागरिकों का मौलिक अधिकार नहीं है और इसके लिए राज्य सरकारों को बाध्य नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, कोर्ट भी सरकार को इसके लिए बाध्य नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) तथा (4ए) में जो प्रावधान हैं, उसके तहत राज्य सरकार अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) के अभ्यर्थियों को प्रमोशन में आरक्षण दे सकते हैं, लेकिन यह फैसला राज्य सरकारों का ही होगा। अगर कोई राज्य सरकार ऐसा करना चाहती है तो उसे सार्वजनिक सेवाओं में उस वर्ग के प्रतिनिधित्व की कमी के संबंध में डाटा इकट्ठा करना होगा, क्योंकि आरक्षण के खिलाफ मामला उठने पर ऐसे आंकड़े अदालत में रखने होंगे, ताकि इसकी सही मंशा का पता चल सके, लेकिन सरकारों को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

दरअसल, पीठ का यह आदेश उत्तराखंड हाईकोर्ट के 15 नवंबर 2019 के उस फैसले पर आया, जिसमें उसने राज्य सरकार को सेवा कानून, 1994 की धारा 3(7) के तहत एससी-एसटी कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए कहा था, जबकि उत्तराखंड सरकार ने आरक्षण नहीं देने का फैसला किया था। यह मामला उत्तराखंड में लोक निमार्ण विभाग में सहायक इंजीनियर (सिविल) के पदों पर प्रमोशन में एससी/एसटी के कर्मचारियों को आरक्षण देने के मामले में आया है, जिसमें सरकार ने आरक्षण नहीं देने का फैसला किया था, जबकि हाईकोर्ट ने सरकार से इन कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण देने को कहा था। राज्य सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने कहा था कि सहायक अभियंता के पदों पर प्रमोशन के जरिये भविष्य में सभी रिक्त पद केवल एससी और एसटी के सदस्यों से भरे जाने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के दोनों फैसलों को अनुचित करार देते हुए निरस्त कर दिया है।

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