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बोरवेल में गिरने वाले प्रिंस से लेकर 10 न्यूज मेकर, जानिए अब कैसी हैं उनकी स्थिति

कुछ ऐसी कहानियां जिन्होंने खूब सुर्खियां बटोरीं फिर धीरे-धीरे हमारी स्मृति से गुम हो गईं, लेकिन उनकी...
बोरवेल में गिरने वाले प्रिंस से लेकर 10 न्यूज मेकर, जानिए अब कैसी हैं उनकी स्थिति

कुछ ऐसी कहानियां जिन्होंने खूब सुर्खियां बटोरीं फिर धीरे-धीरे हमारी स्मृति से गुम हो गईं, लेकिन उनकी कच्ची सी याद अभी भी बाकी है।

2007 में प्रसिद्ध लास्ट बॉल वाले जोगिंदर शर्मा याद हैं? या दमदम के पास रेलवे ट्रेक पर आखरी सांस लेने वाले ग्राफिक ट्रेनर युवा रिजवान को भला कौन भूल सकता है? या उससे आठ साल पहले हुई शिवानी की हत्या? हो सकता है ये यादें धुंधली हो गई हो। लेकिन जब भी इनकी चर्चा चलती है ये घटनाएं फिर ताजा हो जाती हैं। कुछ खबरों का रोमांच अभी भी महसूस होता है जैसे टी20 विश्वकप की आखिरी बॉल बस अभी फेंकी गई हो। शंकरबिगहा की घटना हो, ओडिशा में ग्राहम स्टेंस की मौत हो या मणिपुर की मोनोरमा की हत्या, ये घटनाएं अभी भी दिल दहला देती हैं। पांच साल के प्रिंस का गड्ढे में गिरना जैसे टीवी की दुनिया के लिए वरदान था। पूरा देश टीवी पर चिपका था। अब ये लोग कहां हैं, इतने सालों में आखिर क्या बदला.

गड्ढे में गिरा, जीवन में अटका

प्रिंस कुमार, जिसे पूरे राष्ट्र ने 60 फीट खुदे बोरवेल से बचाया था

शायद ही कभी पूरे देश ने इतनी रुचि के साथ जीवन के लिए एक व्यक्ति की लड़ाई देखी हो। खासकर तब जब वह व्यक्ति प्रिय नेता या फिल्म स्टार न हो कर एक पांच साल का बच्चा हो। हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के हल्दाहेरी गांव का प्रिंस जब 60 फीट गहरे खुदे बोरवेल में गिर गए तो सभी न्यूज चैनल उस गांव में पहुंच गए और बिना रुके पल-पल की रिपोर्ट पहुंचाने लगे। बचाव दल के साथ पूरा देश बच्चे की कुशलता की कामना करने लगा।

2006 की जुलाई में प्रिंस अपने बगल की दुकान पर गया जहां एक चूहा बोरी कुतर रहा था। चूहे पर कूदने के इरादे से वह दो बार बोरी पर कूदा। तीसरी बार उसने महसूस किया कि वह एक अंधेरी-गहरी सुरंग में धंसता चला जा रहा है।

सेना, जो बचाव अभियान चला रही थी, ने बोरवेल में एक बल्ब उतारा और पारले-जी बिस्कुट में फेंके। उन्होंने शाफ्ट के बराबर खुदाई की और प्रिंस के लेवल पर आने के बाद उसे आड़ा खोद कर उस तक पहुंच गए। प्रिंस के समान स्तर पर खुदाई करने के बाद, उस तक पहुंचने के लिए क्षैतिज रूप से जमीन को काटा गया। 48 घंटे से अधिक समय तक फंसे रहने के बाद जब प्रिंस ने वर्दीधारी अजनबियों को देखा तो डर गया। उसने साथ आने से इनकार कर दिया। फिर उसके चाचा को बुलाया गया। परिचित चेहरा देख कर वह फौरन उनकी बाहों में समा गया। टेलीविजन से चिपके हजारों लोग खुशी से रो पड़े। वह बहुत भाग्यशाली था, बाद के वर्षों में, कई बच्चों को बोरवेल में गिरने के बाद समय में बचाया नहीं जा सका।

हल्का सा मोटा प्रिंस आज 17 साल का है, जिसके ऊपर के होंठ पर बालों की हल्की रेखा है। जिस बोरवेल में वह गिरा था वो उसके घर से बमुश्किल 50 मीटर दूर था। अब वह ट्यूबवेल बन गया है। उसका स्कूल गर्मियों की छुट्टियों में बंद है। प्रिंस सुबह खेतों में बिताता है, अपने पिता की मदद करता है और घर पर पली दो भैंस और एक गाय की देखभाल करता है। बाकी के दिन वह अपने फोन पर पबजी खेलते है, टिक टॉक पर वीडियो बनाता है और यूट्यूब देखता है। फिर उसकी शाम क्रिकेट और पड़ोस के गांव के जिम में बीतती है। मक्के की रोटी और सरसों का साग शौक से खाता है और गांधी की आत्मकथा पसंदीदा फिल्म है। 

प्रिंस ने दसवीं की परीक्षा दी थी लेकिन इंग्लिश और गणित के पेपर पास नहीं कर सका। वह अपने सीनियर्स से बात करना चाहता है ताकि आगे की पढ़ाई के बारे में योजना बना सके। वह सेना में जाना चाहता है। प्रिंस कहता है, “वहां पर तनख्वाह अच्छी है, खूब भत्ते मिलते हैं और आप देश के लिए लड़ सकते हैं।” हालांकि, गांव के अन्य लोग औद्योगिक प्रशिक्षण में पाठ्यक्रम पूरा करने या स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बावजूद नौकरी नहीं पा सके हैं। दूसरे जीवन के तेरह साल बाद प्रिंस को किस्मत के एक और मौके का इंतजार है।

कुरुक्षेत्र से सलीक अहमद

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मोतीहारी का करोड़पति

सुशील कुमार, कौन बनेगा करोड़पति के विजेता

“कंप्यूटर जी, लॉक कर दिया जाए?” आठ साल पहले जब सुशील कुमार ने अमिताभ बच्चन को हां कहा था तो वह भारतीय टेलीविजन के शो कौन बनेगा करोड़पति के पहले विजेता बने थे, जिसने पांच करोड़ रुपये जीते थे। ईनाम जीतते ही इतिहास में एमए यह व्यक्ति बिहार के एक ऊंघते से शहर मोतीहारी में सेलेब्रिटी बन गया। सारे अखबारों में उनका नाम छा गया, टीवी वाले उन्हें बार-बार दिखाने लगे। आज शायद ही कहीं उनका नाम आता है। कुमार सुर्खियों से दूर अपने जीवन से संतुष्ट हैं।

31 साल के कुमार आउटलुक से कहते हैं, “व्यावहारिक व्यक्ति होने के नाते मैं जानता था कि यह प्रसिद्धि 15 मिनट की है। मैं बहुत साधारण परिवार से हूं और जानता हूं कि इस तरह के क्षणों का जीवन बहुत छोटा होता है।” टैक्स कटने के बाद वह पुरस्कार राशि से सिर्फ 3.5 करोड़ रुपये घर ले जा पाए थे। उस पैसे से उन्होंने घर बनाया जिसमें 18 सदस्य एक साथ रहते हैं। उनकी पांच साल की बेटी और एक बेटा है।

कुमार कंप्यूटर ऑपरेटर हैं। किसी वक्त वे एक सरकारी अधिकारी होना चाहते थे लेकिन केबीसी की सफलता के बाद उन्होंने यह प्रयास छोड़ दिया। मीडिया के बार-बार आने और ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ के बीच वह पढ़ने के लिेए बमुश्किल समय निकाल पाते थे। कुमार अब समाजसेवा करते हैं और पर्यावरण एक्टिविस्ट हैं। वह निर्धन परिवार के 100 बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी उठाते हैं।  

वह गोरैया संरक्षण अभियान से जुड़े हुए हैं, जिसकी संख्या हाल के दिनों में अचानक से बहुत कम हो गई है। उन्होंने 20 मार्च को ‘विश्व गोरैया दिवस’ पर अपना प्रोजेक्ट लॉन्च किया था। पिछले साल उन्होंने एक और अभियान शुरू किया है जिसमें चंपा फूल के 58,000 पौधे रोंपने का लक्ष्य है। भीनी खुशबू वाले इसी फूल के कारण ही इस जिले का नाम चंपारण पड़ा था।

क्या उन्हें आखिरी सवाल याद है जिसने उन्हें इनाम दिलाया? मैं उसे कभी नहीं भूल सकता। अमिताभ जी ने पूछ था, 18 अक्टूबर 1868 को किस औपनिवेशिक सत्ता ने निकोबार द्वीप समूह अंग्रेजों को बेच दिया था? कुमार को ज्यादा सोचना नहीं पड़ा। बिहार सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के वर्षों ने उन्हें ज्ञान का भंडार बना दिया था। यदि आपको इस सवाल पर आश्चर्य है, तो जवाब डेनमार्क है।

मोतीहारी से आर. एन. सिन्हा

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क्रिकेट शोहरत देता है, पुलिस लोगों को समझना सिखाती है

जोगिंदर शर्मा, भूतपूर्व क्रिकेटर

पाकिस्तान को एक ओवर में 13 रन चाहिए थे। उनका एक विकेट बाकी था। यह 2007 के टी20 का फाइनल था और पाकिस्तान अपने कट्टर प्रतिद्ंवद्वी भारत के खिलाफ खेल रहा था। जोगिंदर बताते हैं, “माही (एम.एस. धोनी) ने मुझे बॉल दी और कहा, खुल कर डाल।” यह वह बॉलर हैं जिन पर कप्तान ने सबसे कठिन समय में भरोसा किया। पहली बॉल बाहर निकल कर वाइड हो गई। “सब लोग तनाव में थे लेकिन मैं मुस्करा रहा था क्योंकि बॉल स्विंग हो रही थी। स्विंग मेरी ताकत थी।” शर्मा ने डॉट बॉल फेंकी जो छह रन के लिए बाउंड्री पार हो गई। उसके बाद अगली ही कोशिश में मिस्बाह-उल-हक शर्मा की फिरकी में फंस गए और आउट हो गए और विश्वकप भारत का हो गया।  

उनके इस कारनामे से खुश होकर उसी साल हरियाणा सरकार ने उन्हें पुलिस विभाग में नौकरी दे दी। अब वह पुलिस अधीक्षक हैं और हिसार में तैनात हैं। क्रिकेट से लेकर पुलिस तक यह दूसरी दुनिया में छलांग जैसा है। जोगिंदर कहते हैं, कि उनकी नौकरी उन्हें जमीनी बनाए रखती है। “क्रिकेट में आपका का दायरा बहुत छोटा होता है। लेकिन पुलिस के रूप में आप हर दिन अलग-अलग लोगों से मिलते हैं। क्रिकेट आपको शोहरत देता है लेकिन पुलिस की नौकरी लोगों को समझने का मौका देती है।”    

घर के खराब हालातों के बीच जोगिंदर ने 10 साल की उम्र ही अलग-अलग तरह के काम करना शुरू कर दिया था। उनके पिता की छोटी सी दुकान थी। गिल्ली डंडा, कंचे, लकड़ी की छड़ी से गोल्फ, क्रिकेट बॉल से फुटबॉल जोगिंदर छोटे से ही काम चला लेते थे। उन्हें कभी क्रिकेट खेलने के बारे में याद नहीं आता। लेकिन अब कभी-कभी वे वर्दी में ही युवाओं के साथ क्रिकेट खेलने पहुंच जाते हैं। ऐसा करना निश्चित रूप से उन्हें फिट रखता है। हालांकि नौकरी की मांग ऐसी है कि उनके लिए दोस्तों के लिए समय निकालना कठिन है।  

जोगिंदर कहते हैं, “लेकिन किसी के दुख को कम करने का अवसर जो आपको इस नौकरी में मिलता है, इससे आपको बहुत संतुष्टि मिलती है।” शीर्ष पुलिसकर्मियों का व्यस्त रहना नौकरी की मांग है। 12 और 8 साल के उनके बच्चे, पत्नी और माता-पिता पास में ही रोहतक में रहते हैं। वह कहते हैं कि बच्चे उन्हें हमेशा घर में रहने का कारण देते हैं। जोगिंदर अपनी सफलता का पूरा श्रेय अपनी मां को देते हैं और हमेशा उनके उपदेशात्मक वाक्य याद रखते हैं, जितना सोएगा, उतना खोएगा।

सलीक अहमद हिसार में

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“मैं चाहता हूं लोग ऐसे व्यक्ति की तरह याद करें जिसने लाखों लोगों को रोजगार दिया”

शेर सिंह राणा, फूलन देवी का हत्यारा

हरियाणा के भिवानी जिले के बांद के सामुदायिक हॉल में डिस्पोजेबल गिलास में कोल्ड ड्रिंक पीते हुए, पुरुष पट्टेदार दरियों पर बैठे हैं। सभा को संबोधित कर रहा व्यक्ति शेर सिंह राणा है जिसे 2001 में दस्यु सरगना से नेता बनी फूलन देवी की हत्या में सजा हुई थी। राणा को 2016 में दिल्ली हाइ कोर्ट से जमानत मिली थी और तब से वह इस तरह की “सामाजिक गतिविधियों” में हिस्सा लेते हैं। बांद सभा में पीले रंग के कुर्ते में, वह एक राजपूत राजनीतिक बैनर के तले हिंदू और मुस्लिम राजपूतों के बीच एकता की बात करते हैं और समुदाय के युवाओं को रोजगार खोजने में मदद करने के लिए राजनीतिक रसूख का फायदा उठाने के बारे में बताते हैं। इस साल के अंत में होने वाले हरियाणा विधानसभा चुनावों पर नजरें टिकाए उन्होंने 12 साल से कम उम्र की लड़की के बलात्कार के लिए मृत्युदंड, किसानों के लिए आयोग बनाने जैसी मांगों के लिए समर्थन जुटाने के लिए 50 दिवसीय यात्रा शुरू की है। और एक कानून के लिेए भी जो प्रत्येक घर से एक व्यक्ति को नौकरी देने का वादा करता हो। वह चाहते हैं कि उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाए जिसने लाखों लोगों को रोजगार दिया।

हालांकि सभा में उनका परिचय “जिसने फूलन देवी द्वारा की गई 22 राजपूतों की हत्या का बदला लिया था, जिसने 1981 में बेहमई गांव के राजपूत पुरुषों द्वारा उनके साथ सामूहिक बलात्कार का बदला लिया था” ही दिया गया था। फिर भी वह कहते हैं, “मुझे फंसाया गया है लेकिन मेरा मानना है न्याय होगा और मुझे बरी किया जाएगा।” वह आगे कहते हैं, “जिसने भी उसे मारा उसने सही काम किया। मैं उसके साथ खड़ा होता अगर उसने उन लोगों को मार दिया होता जो वास्तव में उसके साथ दुर्व्यवहार के लिए जिम्मेदार थे। लेकिन उसने गांव के निर्दोष लोगों को मार डाला।”

राणा बताते हैं कि 15 साल परिवार से दूर रहना कठिन था। वकीलों की फीस चुकाने के लिए करोड़ों की प्रापर्टी बिक गई। जब वे अफगानिस्तान में थे और उनके दोनों भाई जेल में तब 2004 में उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। वह कहते हैं, “उनका कोई भी बेटा चिता को अग्नि नहीं दे सका।” रुड़की में सेंट गैब्रियल अकादमी के पूर्व छात्र, राणा सेना अधिकारी बनने के लिए इच्छुक थे। वह कहते हैं, “लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि मुझे बड़े काम करने हैं।” उन्हें 2001 में गिरफ्तार किया गया था जहां दिल्ली की तिहाड़ जेल से वो फरार हो गए थे। वहां से वे बांग्लादेश, दुबई और अफगानिस्तान चले गए। 2006 में उन्हें फिर से कोलकाता में गिरफ्तार किया गया। उन्होंने अपनी किताब ‘जेल डायरी: तिहाड़ से काबुल-कंधार’ तक में इन अनुभवों के बारे में लिखा है। उनका कहना है कि जल्द ही उनके जीवन पर फिल्म बनने जा रही है और जल्द ही इसकी घोषणा होगी। पिछली फरवरी में राणा ने शादी कर ली और उनकी सात महीने की बेटी है।

भिवानी से सलीक अहमद

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नेटवर्क का बादशाह

केतन पारेख, दागी स्टॉक ब्रोकर

मुंबई में प्रमुख शेयर बाजार निवेशकों के बीच यह राय एकमत है कि केतन पारेख बहुत सक्रिय हैं। उन पर प्रतिबंध रहे या न रहे, वे कहते हैं, पारेख अपना रास्ता खोज लेते हैं। पारेख को सालों से देख रहे एक निवेशक कहते हैं, “ शेयरों में निवेश करना उनकी लत है। उन्होंने कभी बाजार नहीं छोड़ा।”

उदारीकरण वाले भारत में सबसे बड़े शेयर बाजार घोटालों में शामिल तेज-तर्रार हर्षद मेहता और एकांतप्रिय पारेख की वजह से कई निवेशकों के कपड़े तक उतर गए थे। दोनों व्यक्तियों ने बैंकों से उधार लिए गए धन का उपयोग बाजार में निवेश करने और अपनी इच्छा अनुसार कीमतों में हेरफेर करने के लिए किया। पारेख ने छोटे बाजार पूंजीकरण वाली कंपनियों में बड़े शेयर खरीदे। इन कंपनियों के प्रमोटरों और व्यापारियों के साथ नजदीकी से काम करने के कारण उन्हें मालूम था कि इनकी कीमत में उछाल आएगा। एक दूसरे निवेशक कहते हैं, “वह कंपनी को ऑर्डर मानने को बाध्य कर सकता था और प्रमोटर्स परास्त हो जाते। इसके लिए एक अच्छे नेटवर्क की जरूरत थी और यह पारेख की सबसे बड़ी शक्ति थी।” पारेख के पसंदीदा शेयरों को के -10 के रूप में जाना जाता है और, जैसा कि उनके मूल्यांकन था, वह समान नहीं था। वह भव्य पार्टियां दिया करता था जिसके कारण उन्हें उद्योगपतियों, फिल्म स्टारर्स और दूसरे प्रभावशाली लोगों के करीब रहने का मौका मिलता था। आईटी और मीडिया उनके पसंदीदा क्षेत्रों में से एक थे। कई प्रमोटर इस खेल से खुश थे क्योंकि उन्हें अपने स्टॉक की कीमतें उच्च स्तर पर देखने के अलावा और कुछ भी उन्हें रोमांचित नहीं करता था। यह सौदा 500-5,000 करोड़ रुपये के बाजार पूंजीकरण के साथ उन कंपनियों में निवेश करने के लिए था, जो अक्सर लालची प्रमोटरों को खोजने के लिए सबसे आसान था। मार्च 2001 के अंत तक, पारेख का खेल खत्म हो गया था और यह स्थापित हो गया था कि वह कम से कम पांच वर्षों में 10 शेयरों की कीमतों में हेराफेरी के लिए जिम्मेदार था।

2001 में अपनी गिरफ्तारी के बाद से पारेख कठिन लड़ाई लड़ रहा है। कानून उससे ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन, आज तक, विशेष रूप से पिछले छह महीनों में, ऊंचाई पाने के बाद कई मिडकैप शेयरों की दुर्दशा के बाद उसका नाम आता है कि इसके पीछे पारेख है।

कृष्ण गोपालन

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एकांतवासी बैरागी

आर.के. शर्मा, पूर्व आइपीएस ऑफिसर, हत्या का दोषी बरी

इंडियन एक्सप्रेस अखबार की पत्रकार शिवानी भटनागर की 23 जनवरी 1999 में दिल्ली में उनके घर में चाकू घोंप कर हत्या कर दी गई। हरियाणा काडर के पूर्व आइपीएस ऑफिसर रविकांत शर्मा का इस मामले में मुख्य आरोपी के रूप में नाम आया। लगभग दो महीने वह छुपते रहे लेकिन बाद में दिल्ली पुलिस के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। यह मामला अब तक के सबसे हाई-प्रोफाइल मर्डर केस में से एक बन गया। यहां तक कि केंद्रीय सरकार के एक मंत्री का नाम भी इसमें आया। शर्मा की पत्नी मधु ने भाजपा के नेता प्रमोद महाजन पर हत्या का षडयंत्र रचने का आरोप लगाया। 1976 बैच के ऑफिसर शर्मा, आई. के. गुजराल के अंडर पीएमओ में रहे थे। इस घटना के अलावा उनका सर्विस रिकॉर्ड काफी अच्छा था। 2008 में उन्हें एक ट्रायल कोर्ट ने तीन अन्य लोगों के साथ हत्या का दोषी ठहराया था।   

तीन साल बाद, उन्हें और दो अन्य को दिल्ली उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया, लेकिन चौथे आरोपी प्रदीप शर्मा की सजा को बरकरार रखी। आर. के शर्मा का एक बैचमेट, नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहते हैं, कि हत्या के बाद से वे एक वैरागी में बदल गए और बरी होने के बाद से ही वे हरियाणा के पंचकुला के एक पॉश इलाके में अपने घर पर रह रहे हैं। उनके घर का नाम मैसन डेमोर है जिसका अर्थ होता है, प्यार का घर। 

आउटलुक ने जब फोन पर उनसे संपर्क किया तो उन्होंने विनम्रता से बात करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, “मैं लंबे समय तक चर्चा में रहा हूं और अब और खबरों में रहना नहीं चाहता।” आस-पड़ोस के लोग उन्हें कम ही बाहर देखते हैं।

पास ही के बाजार में सिटी मेडिकोज के मालिक तीन महीने पुरानी घटना को याद करते हुए कहते हैं, “वो आए थे और हेयर कलर के बारे में पूछा। जब बिल बनाने के लिए उन्होंने अपना नाम बताया तभी मैं उन्हें पहचान सका।”  

शर्मा को मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद ही सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। बरी होने के बाद, उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्रालय से बहाली की मांग की, लेकिन उनकी मांग को रद्द कर दिया गया क्योंकि उनके बरी होने के खिलाफ याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित थी।

सलीक अहमद

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एक रुका हुआ फैसला

एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार का बेटा और बड़े बिजनेसमैन की बेटी जिन्हें शादी ने मिलाया और एक त्रासदी ने जुदा कर दिया। यह घटना ऐसी थी जिसने बंगाल और पूरे देश को झकझोर दिया था। 21 सितंबर, 2007 को, कलकत्ता के 29 वर्षीय रिजवान के भाग्य से झटका लगा, जिसे 23 साल के एक अमीर होजयरी व्यापारी की बेटी प्रियंका तोदी से प्यार हो गया था। हालांकि टोडी परिवार के उग्र प्रतिरोध के बावजूद रिजवान और प्रियंका ने गुपचुप तरीके से शादी कर ली थी। वे रहमान के घर में सिर्फ एक हफ्ते तक रह सकते थे। उनकी शादी के मुश्किल से एक महीने बाद इस जोड़े को अपने प्यार की भयानक कीमत अदा करनी पड़ी। रिजवान का क्षत-विक्षत शरीर उसके घर से कुछ ही किलोमीटर दूर एक रेलवे ट्रैक पर पाया गया।

मृत्यु के बाद रिजवान का नाम अचानक हर जगह लिया जाने लगा। कोलकाता में उसकी हत्या के विरोध की बाढ़ आ गई। एक पढ़े-लिखे, गरीब, मुस्लिम व्यक्ति से पैसे वाले ससुर द्वारा की जाने वाली नफरत वाली इस कहानी में ड्रामा, साजिश, उदात्त प्रेम सब कुछ समान मात्रा में था। शीर्ष पुलिस अधिकारियों द्वारा कथित तौर पर जोड़े को अलग करने के लिए टोडी के इशारे पर काम करने की रिपोर्ट सामने आने के बाद आग की लपटों को और भड़का दिया गया। ममता बनर्जी जो उस वक्त विपक्ष की नेता थीं ने रिजवान के लिए न्याय की मांग की। वाम सरकार के लिए यह मुद्दा उगलत-निगलत पीर घनेरी की तरह हो गया।

एक दशक से ज्यादा समय से, पार्क सर्कस के बगल में घोष बागान के श्रमिक वर्ग की एक पतली गली के प्रवेश द्वार पर एक पट्टिका है, जिस पर लिखा है, प्यार करना और उसे जीतना बेहतर है जिसने कभी प्यार न किया हो। दिवंगत बेटे की तस्वीर के नीचे बैठी 74 साल की किश्वर जहां आउटलुक को कांपती हुई आवाज में कहती है, “मरने से पहले मैं रिजवान के लिए न्याय चाहती हूं। मुझे नहीं पता कि वे (सीबीआई) मामले में देरी क्यों कर रहे हैं। मेरे बेटे की मौत के लिए जिम्मेदार उन (लोगों) को दंडित किया जाना चाहिए। ममता बनर्जी सहित प्रमुख लोग, हर साल मुझसे मिलने आते हैं, ने मुझे न्याय दिलाने का वादा किया है। मेरा बेटा प्यार के लिए मर गया और मैं वह लड़की (प्रियंका टोडी) जिसे मैं आज भी अपनी बहू मानती हूं अच्छी रहे। उम्मीद है वह खुश होगी।”  

रिजवान की मौत हत्या है या आत्महत्या यह अभी तक विवाद का विषय है। शहर के सेशन कोर्ट में यह सनसनीखेज मामला घिसट रहा है। वहीं पास में बैठे रिजवान के बड़े भाई रुकबानुर रहमान दो बार तृणमूल कांग्रेस से विधायक रह चुके हैं। वह न्याय के लिए दृढ़संकल्पित हैं। वह कहते हैं, “जरूरत पड़ी तो हम सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ का रुख करेंगे।” हत्या के बाद इस पर विवाद बहुत बढ़ गया तब 2007 में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने रिजवान की मौत की सीबीआई जांच का आदेश दिया। 2011 में एक फास्ट-ट्रैक सिटी कोर्ट ने आत्महत्या के लिए उकसाने के प्रयास पर प्रियंका के पिता अशोक कुमार टोडी और उनके भाई प्रदीप के खिलाफ आरोप तय किए।  

रुकबानुर कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया है कि इसी आरोप के साथ जांच जारी रखे। हम अमीर नहीं हैं। यह पैसे की ताकत के खिलाफ निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए न्याय का अधिकार मांगने जैसा है। यह आम आदमी के अधिकारों को स्वीकार करने की लड़ाई है।” पति रिजवान की मौत के बाद प्रियंका को बमुश्किल ही किसी ने बाहर कहीं देखा है। माना जाता है कि शायद वह देश से बाहर जाकर वहीं बस गई है।

कोलकाता से प्रोबीर प्रमाणिक

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मृत्यु के बाद जीवन

ग्लेडिस स्टेंस, ग्राहम स्टेंस की पत्नी

“ईसाई धर्म को दफनाने” की चाहत रखने वाली भीड़ ने उनके पति और दो बेटों को जिंदा जला दिया। इस घटना ने भी ग्लेटिस स्टेंस को अपने मिशन से नहीं रोका। वह अपने पति ग्राहम स्टेंस के साथ ओडिशा के बारीपाड़ा में कुष्ठ रोगियों के लिए काम करती थीं। आस्ट्रेलियाई ग्राहम 1965 से वहां थे। 1999 में उनके पति और बेटों की हत्या की दुनिया भर ने निंदा की थी। लेकिन इस पर ग्लेडिस की प्रतिक्रिया असाधारण थी।

उन्होंने कहा, “मेरे दिमाग में दूर-दूर तक नहीं है कि उन लोगों को दंडित करूं जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन मेरी इच्छा है कि वे पश्चाताप करें और सुधर जाएं।” ग्लेडियस ने सार्वजनकि रूप से हत्यारों को माफ कर दिया और वापस ओडिशा आकर 1890 के दशक में स्थापित कुष्ठ गृह के लिए अपना काम जारी रखा। उन्होंने अपने पति के कुष्ठ रोगियों के लिए एक शल्य चिकित्सा क्लिनिक के सपने को पूरा किया। ग्राहम की हत्या के पांच साल बाद शहर के बाहरी इलाके में 15 बिस्तरों वाले ग्राहम स्टेंस मेमोरियल अस्पताल का उद्घाटन हुआ। यह काम इतना आसान भी नहीं था। वह स्वीकारती हैं, “मैं अपने पति और उनके नेतृत्व की कमी को महसूस करती हूं। नेतृत्व मेरे स्वभाव में नहीं है। मैं वहां से काम शुरू करने की कोशिश की जहां वे छोड़ गए थे।”

23 साल तक भारत में रहने के बाद वह 2004 में टाउंसविले, ऑस्ट्रेलिया लौट गईं। किस वजह से उन्होंने यह फैसला लिया? “मेरी बेटी एस्थर ने ऊटी के हेब्रोन से अपना स्कूल खत्म कर लिया था। वह अपने पासपोर्ट वाले देश में मेडिसिन की पढ़ाई करना चाहती थी। मेरी बेटी कभी भी ऑस्ट्रेलिया में रही नहीं थी, बस दो-दिन बार गई जरूर थी। मैं उसे देश और यूनिवर्सिटी दाखिले में मदद करना चाहती थी। उसी वक्त मेरे पिता को भी मेरी जरूरत थी। वे 90 साल से ऊपर के थे।” 

भारत में गुजारे समय के बारे में वह कहती हैं, “मैं यहां की संस्कृति और सामुदायिक भावना से प्यार करती हूं। उस दुर्घटना के बाद पूरा देश मेरे साथ संवेदना प्रकट कर रहा था। सब ने मिल कर मुझे दोबारा खड़ा किया। यहां तक कि आज भी कोई भारतीय मुझे ऑस्ट्रेलिया में मिलता है तो अभिवादन करता है और संवेदना प्रकट करता है। मेरे मन में कोई कड़वाहट नहीं है।”

अपने मूल देश ऑस्ट्रेलियाई में वह अपना नर्सिंग पंजीकरण फिर से लेने के लिए विश्वविद्यालय गई, जिसे उन्होंने 2008 में हासिल किया था। अब वे एक अस्पताल में नर्स के रूप में काम करती हैं और प्राइमरी स्कूल के छात्रों को बाइबल पढ़ाती हैं। ग्लेडिस को 2005 में पद्मश्री और 2015 में मदर टेरेसा मेमोरियल अवॉर्ड फॉर सोशल जस्टिस मिल चुका है।

उनके अंदर ओडिशा के धान के खेत और जंगल के साथ सिमलिपाल पहाड़ियों की यादें बनी रहती हैं। क्या वे वापस लौटना चाहती हैं? “मैं भारत को मिस करती हूं पर वापस लौटने की मेरी कोई योजना नहीं है। वह कहती हैं, “हमारा जीवन ऋतुओं से मिल कर बना है और भारत में मेरा वक्त खत्म हो गया। अब यह वक्त मेरे परिवार, मेरी बेटी के करीब रहने का है। वह अपने नाती-नातिनों के साथ समय बिता कर बहुत खुश हैं। “एस्थर और रूबेन के चार बच्चे हैं और वे चाहते हैं कि उनकी नानी बच्चों के पास ही रहें।”

सईद साद अहमद

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ये दाग अच्छे नहीं

रणवीर सेना, बिहार की जाति-वर्चस्व सेना

पटना से लगभग 70 किलोमीटर दूर एक गांव शंकरबिघा में मौसम की पहली बारिश से हरियाली उग आई है। इन सबके बीच सोना झारी की आंखों में आज भी खून के धब्बे देखे जा सकते हैं, जिसने 1999 के गणतंत्र दिवस की शाम उनके धूलभरे आंगन में अंधियारा कर दिया था। जब यह हुआ तब वह 20 साल की थी। उच्च जाति के लोगों द्वारा बनाई गई रणवीर सेना के आदमी दलितों के गांव में घुस आए थे। उस नरसंहार में 23 लोग मारे गे थे जिनमें झारी के दो और तीन साल के दो बच्चे, उसकी सास और ननदोई मारे गए थे। उसे भी मारा गया था। लेकिन बंदूक के बैरल से चोट लग कर वह गिर कर बेहोश हो गई। उनका दोष केवल यही था कि वे दलित थे। “मैं उन लोगों को मार देना चाहती हूं जिन लोगों ने मेरे बच्चों को मारा। लेकिन मेरे पास ताकत नहीं है।”

बिहार में 1990 के दशक के अंत में जातिगत हिंसा प्लेग की तरह फैली थी। इसके पीछे रणवीर सेना थी, जिसमें ज्यादातर भूमिहार जमींदार थे जो दलितों के खून के प्यासे थे। इसके बाद माओवादियों के जवाबी हमले हुए। दिसंबर 1997 में जहानाबाद के लक्ष्मणपुर बाथे में भीषण नरसंहार हुआ जिसमें पुरुष, महिला और बच्चों सहित 58 लोग मारे गए। जहानाबाद तब तक जातिगत संघर्ष का पर्याय बन गया था। शंकरबिगहा, जो अब अरवल जिले का हिस्सा है, तब जहानाबाद का  हिस्सा था। जहानाबाद के सेनारी में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के सदस्यों ने 1999 में 35 ऊंची जाति के लोगों को मार डाला।

शंकरबिगहा का एक बूढ़ा व्यक्ति, जो उस तकलीफदेह दिन छिपकर भागने में सफल रहा था का कहना है कि गांव के एक या दो लोग एमसीसी की बैठकों में शामिल होते थे। उन्हीं लोगों के कारण रणवीर सेना का क्रोध भड़का था।

जहानाबाद के कोर्ट ने 2015 में हुए शंकरबिगहा नरसंहार के सभी दोषियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। झारी कहती हैं, “सभी लोग बरी हो गए थे। हमारे पास ताकत नहीं है इसलिए हमने शांति बनाए रखी। हम और कर भी क्या सकते थे। लड़ाई करते तो हमारी रोजी-रोटी का क्या होता? झारी के पति मजदूर हैं जबकि वह घर पर पली दो भैंसों की देखभाल करती हैं। नरसंहार के वक्त मारे गए उनके दो बच्चों के बाद उनकी फिर दो संताने हुईं जो अब सात और पांच साल की हैं।

नरसंहार के बाद मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने अपने पति लालू प्रसाद के साथ गांव का दौरा किया था और 1.4 लाख के मुआवजे की घोषणा की थी। पीड़ित परिवार से प्रत्येक को घर बनाने के लिए 20,000 रुपये दिए गए थे। उन्हीं में से एक विधवा ने मुआवजे के बजाय बंदूकें मांगी थीं। राष्ट्रीय जनता दल ने न्याय का विश्वास दिलाया था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लक्ष्मणपुर बाथे के आरोपी भी पटना हाइकोर्ट से बरी हो गए।

सलीक अहमद

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मणिपुर के खूनी मैदान

थंगजम मोनोरमा

10 जुलाई, 2004 की मध्य रात्रि के करीब, असम राइफल्स के जवानों ने मणिपुर के इंफाल ईस्ट में मेइती परिवार के छह बच्चों में से दूसरे नंबर की, थंगजम मोनोरमा के घर में प्रवेश किया। उस वक्त वह 32 साल की थी। उसे खींच कर घर से बाहर निकाला गया और ‘पूछताछ’ के बाद हिरासत में ले लिया गया। वह आखरी दिन था जब उनके परिवार वालों ने उन्हें जिंदा देखा था। अगले दिन सुबह घर से 3 किलोमीटर दूर गोलियों से छलनी उनका शरीर मिला।  

असम राइफल्स ने मोनोरमा पर पीएलए कैडर होने का आरोप लगाया था। उनका दावा था कि भागने की कोशिश के दौरान उन्हें गोली मारी गई थी। राइट एक्टिविस्ट और फैक्ट फाइंडिंग टीमों को ‘कहानी’ में कई खामियां मिलीं। उनके शरीर पर चोट के निशान अत्याचार की ओर इशारा कर रहे थे। फोरेंसिक टेस्ट में उनके कपड़ों पर वीर्य के धब्बे मिले, जिससे लगता था शायद उनके साथ कई बार बलात्कार किया था। लेकिन इस मामले में अब तक किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया। यह मामला ज्यादा दूर तक नहीं जा पाया क्योंकि असम राइफल्स ने सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम (अफ्सा) की शरण ली जो एक विवादास्पद कानून है और सुरक्षाकर्मियों को रक्षा प्रदान करता है।

हत्या को लेकर मणिपुर भड़क उठा। सुरक्षा बलों के खिलाफ जनता सड़कों पर उतर आई। लेकिन एक विरोध ने पूरे देश का ध्यान खींचा। ऐतिहासिक कांगला किले के सामने करीब एक दर्जन महिलाएं निर्वस्त्र हो गईं, जो कि 17 असम राइफल्स का ऑफिस था। महिलाओं ने सेना को नीचा दिखाते हुए बैनर लगाए। उनमें से एक बैनर पर लिखा था, “भारतीय सेना, हमारा बलात्कार करो।” यह मोनोरमा के परिवार के लिए न्याय की कभी न खत्म होने वाली लड़ाई की शुरुआत भी थी। यह एक विचलित माँ के लिए एक अंत के बिना प्रतीक्षा है। मनोरमा की 70 साल की मां थंगजम ओंगबी खुमानेली कहती हैं, “मैं जब भी इस घटना को याद करती हूं, मेरा दम घुटने लगता है। मुझे नहीं पता कि मैं क्या कहूं।”

मोनोरमा के छोटे भाई, 42 साल के थंगजम डोलेंड्रो को अब तक वह रात याद है। वह कहते हैं, “उस वक्त रात के लगभग 11 बजे होंगे। बाहर हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। तभी हमने आवाज सुनी। सेना के लोग आए और मेरी बहन को घसीट कर बाहर ले गए।” डोलेंड्रो उस ‘पूछताछ’ को याद करते हैं जो एक घंटे से अधिक समय तक चली। हर सवाल पर उसका जवाब था, “मुझे नहीं पता।” परिवार ने राज्य सरकार का मुआवजा ठुकरा दिया। डोलेंड्रो कहते हैं, “अगर हम इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते तो परिवार को चलाने के लिए पर्याप्त कमाई कर सकते थे। लेकिन न्याय ही वह चीज है जो हम चाहते हैं। न मुआवजा, न नौकरी चाहिए तो बस न्याय।”

पहले कभी स्वतंत्र साम्राज्य, मणिपुर ब्रिटिश शासन के तहत एक रियासत बन गया और 1949 में भारत में शामिल हो गया। हालांकि, कई मणिपुरियों का कहना है कि उनके राजा को नई दिल्ली द्वारा विलय समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था। कई सशस्त्र समूह वर्षों से मणिपुर में ‘स्वतंत्रता’ के लिए जूझ रहे हैं। केंद्र ने राज्य को ‘अशांत’ घोषित कर दिया और विद्रोहियों को काबू करने के लिए सेना भेज दी। इन वर्षों में, सुरक्षा बलों और विद्रोहियों द्वारा सैकड़ों आम नागरिकों को मार दिया गया। सैकड़ों लोग ‘लापता’ हैं। सुरक्षा बलों पर अतिरिक्त न्यायिक हत्याओं के आरोप हैं। ऐसी ही एक घटना, 2 नवंबर, 2000 को मालोम नरसंहार की है, जब मालोम शहर में एक बस स्टॉप पर प्रतीक्षा करते समय सुरक्षा बलों द्वारा 10 नागरिकों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इरोम शर्मीला ने एएफएसपीए को हटाने के लिए 16 साल लंबी भूख हड़ताल की थी।

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