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परमहंस योगानंद जी की जयंती विशेष: योग में आंनद, योग से आनंद

परस्पर विरोधी दो उक्तियां बहुत ही प्रचलित हैं : ''नाम में क्या रखा है और यथा नाम तथा गुण।'' परमहंस योगानंद...
परमहंस योगानंद जी की जयंती विशेष: योग में आंनद, योग से आनंद

परस्पर विरोधी दो उक्तियां बहुत ही प्रचलित हैं : ''नाम में क्या रखा है और यथा नाम तथा गुण।'' परमहंस योगानंद के लिए तो 'यथा नाम, तथा गुण' ही सार्थक है। आधुनिक विश्व में वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने योग के आनंद की ही नहीं, परमानंद की भी सरल, सहज व्याख्या करते हुए इसकी ओर मानव समाज का ध्यान आकृष्ट कराया। वह भी ऐसे समय में, जब भारत गुलामी की जंजीरों में बंधा हुआ था। यह भी सच है कि काफी पहले स्वामी विवेकानंद अमेरिका जाकर भारतीय संस्कृति का यशोगान कर आये थे, लेकिन अमेरिका और यूरोप में तीन दशक से अधिक समय बिताकर दिन-रात भारतीय संस्कृति और धर्म-विज्ञान की पताका जिस प्रकार परमहंस योगानंद ने फहराई, वह बेमिसाल है। चाहे जिस किसी धर्म और आस्था से जुड़ा व्यक्ति हो, हर किसी की इच्छा-आकांक्षा आनंद प्राप्त करने की ही होती है। कुछ समय तक भले ही यह आनंद-तत्व परिवार और धन-संपत्ति या प्रभुत्व से जुड़ा हो, लेकिन अंतत: यह सब क्षणिक सुख ही साबित होता है। मानसिक शांति और परम सत्ता की अनुभूति ही चरम आंनद देती है, जिसके लिए योग साधना, वह भी क्रियायोग की साधना सबसे तीव्र और सर्वोत्तम राह है। परमहंस योगानंद ने श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण द्वारा उल्लेखित क्रियायोग और इसी तर्ज पर चले जीसस क्राइस्ट की गहन अनुभूति और शिक्षाओंके तार जोड़कर विश्व की आंखें खोली। उन्होंने अपने और ऐसे अन्य महानुभावों के अनुभवों से बताया कि गृहस्थ जीवन बिताते हुए कैसे आत्मा को परमात्मा से जोड़कर अखंड आनंद की प्राप्ति की जा सकती है।

योग का सामान्य अर्थ होता है जोड़ना। गूढ़ार्थ, इसे विस्तृत रूप देते हुए आत्मा को परमात्मा से जोड़ना होता है। परमहंस योगानंद ने बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में, जब पूरब और पश्चिम में घोर असामंजस्य की स्थिति बनी हुई थी, तब दोनों का सामंजस्य बैठाया। उन्होंने बताया कि योगेश्वर कृष्ण और जीसस ने किस प्रकार परम तत्व की प्राप्ति की राह दिखायी। हर महापुरुष का ध्येय मानवता का कल्याण और सांसारिक सुखों की खोज में उपजी बेचैनी को शांत-शमित करना ही रहा है। ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ-साथ मनुष्य की अनियंत्रित होती इच्छाएं उसकी बेचैनी बढ़ाती चली जाती हैं। ऐसे माहौल में भी सांसारिक सुख भोगते हुए शांति और परम आनंद की अनुभूति की जा सकती है। इसका एकमात्र उपाय है शरीर, मन और आत्मा के विज्ञान से परिचित होना। यह परिचय क्रियायोग से ही संभव है। क्रियायोग वह राजयोग है, जो किसी भी सत्यान्वेषी को आत्म-साक्षात्कार कराता है। आत्म-साक्षात्कार होने पर आत्मा और परमात्मा का विभेद मिट जाता है, मुनष्य परम सुख की प्राप्ति कर लेता है।

मूलतः बंगाल के 24 परगना जिले के बैरकपुर उपमंडल के अंतर्गत इच्छापुर निवासी सामान्य किंतु कुलीन परिवार के भगवती चरण घोष और ज्ञान प्रभा घोष की चौथी संतान थे परमहंस योगानंद, जिनको माता-पिता ने मुकुंद लाल घोष नाम दिया था। उनके पिता रेलवे में अधिकारी थे, और उनका पदस्थापन उस समय गोरखपुर में था, जब 5 जनवरी 1893 को मुकुंद का वहाँ जन्म हुआ। श्यामाचरण लाहिड़ी उर्फ लाहिड़ी महाशय से उनके माता-पिता ने क्रियायोग की दीक्षा ली थी। श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित क्रियायोग लुप्तप्राय हो गया था, जिसकी दीक्षा हिमालय में भ्रमणशील, अमर्त्यसंत महावतार बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय को दी थी। उन्होंने क्रियायोग से आधुनिक मानव समाज को अवगत कराने का निर्देश लाहिड़ी महाशय को दिया था।

मुकुंद शैशवकाल से ही सत्यान्वेषी प्रवृत्ति के थे। वे पथ-प्रदर्शक की खोज में थे, जबकि लाहिड़ी महाशय के ज्ञानरूपशिष्य बंगाल स्थित श्रीरामपुर निवासी युक्तेश्वर गिरि मुकुंद जैसे परम शिष्य की खोज में थे। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि को लाहिड़ी महाशय और खुद महावतार बाबाजी ने मुकुंद से भेंट को इंगित किया था और कहा था कि तुम्हारा यह शिष्य क्रियायोग के माध्यम से पूरब-पश्चिम में समन्वय स्थापित करेगा। और यही हुआ। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने मुकुंद को क्रियायोग की दीक्षा देकर नया नाम योगानंद दिया और परहमहंस की उपाधि दी। धार्मिक उदारतावादियों के वैश्विक सम्मेलन में भारत की ओर से भाग लेने के लिए योगानंद महज 27 वर्ष की उम्र में अमेरिका गये। उसके बाद उनके प्रवचनों की अमेरिका और यूरोप में धूम मच गई।

अमेरिका जाने के तीन साल पहले 1917 में उन्होंने वर्तमान झारखंड की राजधानी रांची में योग विद्यालय और योगदा सत्संग सोसाइटी की स्थापना की। अमेरिका के लॉस एंजिलिस में उन्होंने सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना की। इन्हीं दो संस्थाओं के माध्यम से पूरी दुनिया में क्रियायोगियों की लड़ी लग गई। यह सुखद आश्चर्य की बात है कि स्थापना काल के सौ वर्षों बाद भी इन संस्थाओं की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती जा रही है और वैसे ही क्रियायोगियों की संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है। और तो और परमहंस योगानंद द्वारा 1946 में पूरी की गई अपनी जीवनी 'ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी' (योगी कथामृत) आज की तारीख में 13 भारतीय भाषाओं और विश्व की 52 भाषाओं में अनूदित होकर बेस्ट सेलर आध्यात्मिक ग्रन्थ बन गई है। अब तो इसका निःशुल्क डिजिटलसंस्करण भी आ गया है।

क्रियायोग स्नायुओं को शांत और शुद्ध कर, शरीर और मन को ऊर्जस्वित कर, श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करनेवाले प्राणायाम और ध्यान की वह तकनीक है, जो मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार की स्थिति में पहुंचा देती है। यह जीवन शैली में शुद्धता और आनंद लाती है। साधक सेवा और सहयोग की ओर उन्मुख होता है। उसकी सोच सकारात्मक बनती है, जो उसको अपने-पराये के भेदभाव से मुक्त करती है और मानव जीवन की वास्तविकता से परिचित कराती है। उसमें धैर्य और साहस का संचार होता है। श्रीयुक्तेश्वरजी ने कहा,''क्रियायोग एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा मानवी क्रमविकास की गति बढ़ायी जा सकती है।'' निश्चय ही यह प्रविधि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग के अंतर्गत आती है, जिन्होंने कहा, ''उस प्राणायाम द्वारा मुक्ति प्राप्त की जा सकती है,'' जिसको साधकर महात्मा अर्जुन श्रीकृष्ण के कहे अनुसार योगी बने थे और धर्म-अधर्म के महायुद्ध में विजयी हुए थे। श्रीकृष्ण ने महासमर में उनको समझाया था, ''योगी को शरीर पर नियंत्रण करने वाले तपस्वियों, ज्ञान के पथ पर चलने वालों से भी अथवा कर्म के पथ पर चलने वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, हे अर्जुन, तुम योगी बनो!'' —ईश्वर-अर्जुन संवाद, श्रीमद्भगवद्गीता: 6:46। 

छविश्रेय: सेल्फ-रियलाइजेशनफेलोशिप / योगदासत्संगसोसाइटीऑफइंडिया

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