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“ऐसा लग रहा था कि स्वतंत्र होकर काम नहीं कर रहे थे चीफ जस्टिस मिश्रा”

जस्टिस कुरियन जोसेफ 29 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत हो गए। जस्टिस जोसेफ उन चार वरिष्ठ...
“ऐसा लग रहा था कि स्वतंत्र होकर काम नहीं कर रहे थे चीफ जस्टिस मिश्रा”

जस्टिस कुरियन जोसेफ 29 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत हो गए। जस्टिस जोसेफ उन चार वरिष्ठ न्यायाधीशों में से एक थे, जिन्होंने 12 जनवरी को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर परोक्ष रूप से तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ मोर्चा खोला था। जनहित के मामले में एक दयालु न्यायाधीश के रूप में विख्यात जस्टिस जोसेफ के पिता केरल हाईकोर्ट में एक क्लर्क थे और जस्टिस जोसेफ ने उसी हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक का सफर तय किया। आउटलुक के उश्‍ाीनर मजूमदार के साथ उन्होंने अपनी यात्रा और 12 जनवरी की विवादास्पद प्रेस कॉन्फ्रेंस समेत तमाम मुद्दों पर बातचीत की।

आप छात्र नेता कैसे बने?

मैं केरल कांग्रेस का हिस्सा हुआ करता था, लेकिन आपातकाल के बाद जनता पार्टी में शामिल हो गया। मैं कलाडी में अपने कॉलेज के दिनों में पढ़ाई के साथ-साथ छात्र राजनीति में था और यह सफर लॉ कॉलेज तक जारी रहा। मैंने पहली बार चुनाव लड़ा और अकादमिक परिषद में जगह बनाई। बाद में, विद्यार्थी जनता की तरफ से चुनाव लड़ा और विश्वविद्यालय में पहले गैर-कांग्रेसी/ गैर-केएसयू महासचिव के रूप में चुना गया। पूर्व सांसद सुरेश कुरुप छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। हम विचारधारात्मक आधार पर विद्यार्थी जनता से अलग हुए और केरल कांग्रेस में फिर से शामिल हो गए, इसलिए मैंने महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया।

आपके पिता केरल हाईकोर्ट में क्लर्क थे, तो क्या उनसे प्रभावित होकर आपने लॉ प्रोफेशन को चुना?

एक छात्र के रूप में मुझमें सार्वजनिक मंचों पर बोलने की कला थी। मैंने स्कूलों और कॉलेज में भाषण प्रतियोगिता में भाग लिया और एक बार मैंने स्वर्ण पदक भी जीता। यह महज संयोग था कि मैंने उसी हाईकोर्ट में प्रैक्टिस किया, जहां मेरे पिता ने क्लर्क के रूप में काम किया। जब मैं महज 42 साल का था, तो मुझे एक वरिष्ठ वकील के रूप में नामित किया गया, तो उन्हें गर्व हुआ। 1980 के दशक के मध्य में मैंने राजनीति से किनारा करना शुरू कर दिया और 1980 के दशक के बाद में इसे कुछ समय तक छोड़ दिया। मैं 1987 में सरकारी कानून अधिकारी और 1994 में एएजी बना।

क्या राजनीतिक संबंधों के बिना सरकारी कानून अधिकारी बनना संभव है?

निश्चित रूप से, लेकिन जब मैं 1987 में सरकारी कानून अधिकारी बना तो मेरे राजनीतिक संबंध थे। वह कुछ समय के लिए था। जब मैं केरल का एडिशनल एडवोकेट जनरल (एएजी)  नियुक्त किया गया, तो मेरे पास कोई राजनीतिक संबंध नहीं थे।

ऐसे में क्या हम लॉ ऑफिसर की निष्पक्षता पर भरोसा कर सकते हैं? खासकर उन पर जो बाद में न्यायपालिका में आते हैं।

लॉ ऑफिसर के रूप में नियुक्ति राजनीतिक फैसला होता है, जो स्वाभाविक रूप से अपने फैसलों के प्रति उनसे निष्ठा की उम्मीद करेंगे। लॉ ऑफिसर आमतौर पर कोई स्वतंत्र रुख नहीं अपना सकते हैं। यह आजादी सिर्फ महाअधिवक्ता को मिली है। एक संवैधानिक पद होने के नाते वह सरकार के प्रवक्ता नहीं हैं। मेरी नियुक्ति होने पर मुझे भी राजनीतिक झुकाव वाले व्यक्ति के रूप में माना जाता था। यह उस वक्त की बात है, जब करुणाकरन केरल के मुख्यमंत्री और के.एम. म‌णि कानून मंत्री थे। इसलिए लोगों को लगता था कि मैं कांग्रेस और केरल कांग्रेस दोनों के करीब हूं। हालांकि, मेरी जड़ें केरल कांग्रेस में थीं। के.एम. म‌णि की ही तरह कांग्रेस के मुख्यमंत्री मुझे पसंद करते थे।

क्या छात्र नेता होने के नाते इसने आपके कानूनी/न्यायिक करिअर में योगदान दिया?

छात्र राजनीति और सार्वजनिक जीवन में होने से मुझे मानवीय समस्याओं को समझने का व्यापक नजरिया मिला। मैं कानून के तकनीकी पहलुओं से परे किसी भी संघर्ष में मानवीय चेहरा पहचाहनने में सक्षम था।

क्या न्यायाधीश अपने दृष्टिकोण में निष्पक्ष और स्वतंत्र रह सकते हैं?

जब लोग जानते हैं कि आप बेदाग हैं और भ्रष्ट नहीं हो सकते हैं, तो वे आपको परेशान नहीं करेंगे। मेरे पास किसी भी क्लब की सदस्यता नहीं है, मैं अक्सर फिल्में नहीं देखता हूं। जबसे मैं इस पेशे को लेकर गंभीर हुआ, तब से मेरा एकमात्र शौक संबंधों को बनाना है। किसी ने कभी मुझे प्रभावित नहीं किया है और उन्होंने न ही कभी जानबूझकर या अनजाने में ऐसी कोशिश की। जब लोग आपके रुख और विचारों को जानते हों, तो वे कभी कोशिश भी नहीं करेंगे।

अभी आपातकाल जैसी स्थिति होने का आरोप लगाया गया है। क्या आपने कभी ऐसा दबाव महसूस किया है?

एक जज के रूप में कभी नहीं।

चाहे अभी की बात हो या पांच साल पहले, जब कॉलेजियम प्रणाली के जरिए जजों की नियुक्त होती थी। क्या आप उसमें हितों के टकराव को नहीं देखते हैं?

कार्यपालिका के लोगों का का चयन कौन करता है? निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं। विधायक या सांसद अपने मंत्रियों का चयन करते हैं। यदि आप न्यायपालिका की स्वतंत्रता को पवित्र रखना चाहते हैं, तो यह माना जाना चाहिए कि नियुक्त व्यक्ति का कार्यपालिका के लोगों के प्रति कोई दायित्व नहीं है। यदि राजनेता चयन में हस्तक्षेप करते हैं, तो हमेशा दायित्व की भावना होगी। मौजूदा भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह निर्णय लिया गया था कि यह देश के सबसे अच्छे हित में है कि नियुक्ति का अधिकार कॉलेजियम के पास हो। एक ऐसा भी समय था, जब राजनेताओं ने नियुक्तियों में हस्तक्षेप किया, लेकिन इसे चुनौती दी गई क्योंकि यह ठीक से काम नहीं कर रहा था। फिर संवैधानिक निर्णयों के जरिए कॉलेजियम प्रणाली लाई गई।

क्या आपको लगता है कि कॉलेजियम प्रणाली में हालिया सुधार लोकतांत्रिक हैं?

चीजें काफी बदल गई हैं। ऐसा नहीं है कि आप कॉलेजियम के अन्य सदस्यों से हर मुद्दे पर आपत्ति जताते हैं। बेहतर सामूहिक निर्णयों के लिए विचारों का आदान-प्रदान और चर्चाओं के कई दौर चलते हैं। पहले कोई चर्चा नहीं होती थी।

आप कॉलेजियम प्रणाली में क्या वास्तिवक बदलाव देखना चाहते हैं?

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों के लिए स्थायी सचिवालय होना चाहिए, ताकि आप जिस व्यक्ति को नियुक्त करना चाहते हैं, उसकी प्रामाणिकता की जांच कर सकें। सचिवालय डेटा इकट्ठा कर सकता है और स्वतंत्र रूप से जानकारी सत्यापित कर सकता है। इससे आपको उम्मीदवार के बारे में कुछ जानकारी मिलेगी।

जजों का उत्तराधिकारी चुनते समय क्या आपने कभी विकल्पों पर विचार किया है?

एनजेएसी मामले के दौरान कई विकल्पों पर तर्क दिया गया और विचार किया गया। के.के. वेणुगोपाल और फली नरीमन ने इस तरह के वैकल्पिक सुझाव दिए थे और उन्हें माना भी गया।

भारत में पहचान एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट में कुछेक नियुक्तियों को छोड़कर अल्पसंख्यकों, एससी/एसटी का उचित प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है?

भारत विविधताओं का देश है, लेकिन आप हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों के दौरान विविधता के नाम पर गुणवत्ता से समझौता नहीं कर सकते, क्योंकि ये संवैधानिक पद हैं। चयन और नियुक्ति योग्यता पर आधारित होनी चाहिए और उस प्रक्रिया के भीतर, यदि आपको लगता है कि यह विविधता को प्रतिबिंबित नहीं करता है, तो आप गुणवत्ता से समझौता किए बिना विविधता का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं। तभ्‍ाी सुप्रीम कोर्ट ऐसा लगता है कि यह भारत का सर्वोच्च न्यायालय है।

जनवरी 2018 के प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान व्यक्तिगत रूप से आपको क्या लगा, जिससे आपने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया?

 यह व्यक्तिगत निर्णय नहीं था, बल्कि सामूहिक विकल्प था। हममें से चार (जस्टिस चेलमेश्वर, गोगोई, जोसेफ और लोकुर) कॉलेजियम के सदस्य के नाते एक साथ खड़े रहे। हमने इसे सीजेआई दीपक मिश्रा के ध्यान में लाया कि चीजें सही दिशा में नहीं बढ़ रही थीं। तो, हम उनसे मिले, उन्हें बताया और उन्हें लिखा और फिर भी चीजें सुधर नहीं रही हैँ। इसलिए, हमने लोगों के ध्यान में लाने के लिए सामूहिक निर्णय लिया। साथ ही, मीडिया को भी बताने के लिए कि यह एक निगरानी संस्था है और संस्थान की आजादी की रक्षा करना इसका कर्तव्य है।

आपने सीजेआई पर बाहरी प्रभाव की बात की। क्या यह एक धारणा भ्‍ार थी या उसके ठोस कारण थे?

ऐसी एक धारणा थी कि वह स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर रहे।

12 जनवरी की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद आपके साथी न्यायाधीशों के बीच क्या प्रतिक्रिया थी?

उनकी मिलीजुली प्रतिक्रिया थी। उनमें से कुछ ने कहा कि हमने सही काम किया है। कुछ को लगा कि उन्हें भी भरोसे में लिया जाना चाहिए था। हमने तत्कालीन सीजेआई (न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा) से इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए अदालत के सभी जजों की बैठक बुलाने का अनुरोध किया, लेकिन इन मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुई। 

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