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आगे घर पीछे भूख, तस्वीरों में देखें सड़कों पर मजदूरों का क्या है हाल

हमारे शहरों में जब करोड़ों लोग अपने घरों की कैद में महफूज हैं, जिन्होंने ये घर बनाए, सड़कें बनाईं, हमारे...
आगे घर पीछे भूख, तस्वीरों में देखें सड़कों पर मजदूरों का क्या है हाल

हमारे शहरों में जब करोड़ों लोग अपने घरों की कैद में महफूज हैं, जिन्होंने ये घर बनाए, सड़कें बनाईं, हमारे घरों के बरतन-वासन किए, कचरे-मलबे साफ किए, वे करोड़ों बाहर निकल पड़े हैं। वे आपकी बॉलकनियों या खिड़कियों से नहीं दिखते, वैसे भी मई की तीखी धूप से बचने के लिए खिड़कियां परदों से ढंकी हैं। वे भी दिन की चुभती किरणों से दूर ही रहते हैं। दुर्दशा के दरवाजे तो रात में ही खुलते हैं। झुंड के झुंड डरे, भूखे, थके-मांदे लोग थैलों में अपनी छोटी-मोटी थाती समेटे उन शहरों से विदा हो रहे हैं, जो उन्होंने बनाए। उनके पास मोबाइल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर गांवों में अपने परिजनों से संपर्क का साधन है, जहां वे पैदा हुए। कुछ कपड़े, कुछ रोटियां और बिस्कुट के कुछ पैकेट, समझिए यही उनकी थाती है। वे भाग रहे हैं, पैदल, साइकिल पर, कभी-कभार सामान लदे ट्रकों के ऊपर बोरियों जैसे लदे-फंदे। पौ फटने से पहले ही, तारों की झिलमिल बुझते ही वे ठहर जाते हैं-भूखे, प्यासे, थककर चूर-किसी पेड़ के साए में या प्रवासियों के आश्रय में बदल दिए गए किसी स्कूल में दिन काटने को रुक जाते हैं। नासिक में बेघरों के ऐसे ही एक आश्रय में अपने जख्मी पैर की पट्टियां खोलता एक आदमी कह उठता है, “यहीं ठहरो। यह ठीक-ठाक जगह लगती है।” अपने बैग से गंदे अखबार का गोला फैलाकर वह उस पर रात के खाने के लिए कुछ भीगे हुए चने निकालता है और कहता है, “पहले कुछ दिन तो मैं डर की वजह से बाहर नहीं निकला। फिर पैसे और खाना दोनों खत्म हो गया। जब मैं मदद की आस में बाहर निकला तो लगा जैसे लाचार हो गया हूं। मेरा मन कांप उठा। मैंने कभी भीख नहीं मांगी। मैंने सोचा, यह सब बुरे कर्मो का नतीजा है।” किसी छोटी फैक्ट्री या निर्माण स्थल से वह हर रात थका- हारा घर लौटता था। हर दिन दिहाड़ी पाने वाले इस मजदूर के पास काम की जगहें बहुत कम हैं। फिर संक्रमण की रोकथाम के लिए ये काम भी बंद हो गए। इस खुद्दार आदमी को इसकी परवाह नहीं। लेकिन सख्त प्रतिबंधों से जिंदगी ही ठहर गई। सो, खाने-पीने या किराया चुकाने का पैसा न होने से वह भी शहरों से पलायन करने वाले हजारों प्रवासी मजदूरों में शामिल हो गया। उसने सुना है कि सरकार और “कुछ अमीर लोग” गरीबों को पैसा दे रहे हैं। साथ ही, विशेष ट्रेनें लोगों को निशुल्क घर पहुंचा रही हैं। उसने सोचा कि ट्रेन के लिए अपनी बारी आने का इंतजार करे। वह कहता है, “लेकिन इसके फायदे कम, नुकसान ज्यादा हैं।” जैसे रात ‌िघरती है, मानो समय दौड़ने लगता है। कुछ दार्शनिक-से अंदाज में वह कहता है, “हम किसी कारण से जीवित हैं। यह रास्ता खत्म नहीं होता, सर।” ढहती आशा के बीच कुछ दम भरकर, लंबी सांस लेकर वह बाहर निकलता है और फिर मानो जिंदगी की कुछ सार्थकता तलाशने रास्ता नापने चल पड़ता है।

पूरे रास्ते मोटरसाइकिल पर मैं उनके पीछे चलता हूं, कुछ दूर से फोटो खींचता हुआ, इस डर से कि कहीं कोई कोरोना संक्रमित न हो। फिर भी मैं उनकी दुर्दशा, उनकी व्यथा-कथा बताना चाहता हूं। एक मायने में देखा जाए तो हम सभी ढोंगी हैं, बस अंतर इतना है हम किस स्तर के हैं।

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