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भीमा कोरेगांव केस में नवलखा की याचिका पर सुनवाई से पांच जजों का इन्कार, जानें किन हालातों में केस छोड़ते हैं जज

भीमा कोरेगांव केस में मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों ने...
भीमा कोरेगांव केस में नवलखा की याचिका पर सुनवाई से पांच जजों का इन्कार, जानें किन हालातों में केस छोड़ते हैं जज

भीमा कोरेगांव केस में मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों ने सुनवाई से इन्कार करते हुए खुद को अलग कर लिया। एक के बाद एक पांच जजों द्वारा सुनवाई से इन्कार करना थोड़ा असामान्य अवश्य है। केस भी बहुत संवेदनशील है क्योंकि आरोपी नवलखा पर देशद्रोह का मामला है। जिसमें शहरी नक्सलवाद से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या तक के आरोप हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट और निचली अदालतों के जजों के बीच केस से हटाना सामान्य है। फैसले की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए जज सुनवाई से खुद को अलग कर लेते हैं।
एक के बाद एक जज का सुनवाई से इन्कार
गुरुवार को नवलखा की याचिका पर सुनवाई करने से जस्टिस वाली बेंच से जस्टिस एस. रविंद्र भट ने खुद को अलग कर लिया था। सुप्रीम कोर्ट के वह पांचवें जज थे जिन्होंने केस की सुनवाई करने से इन्कार कर दिया। नवलखा ने कोरेगांव भीमा हिंसा केस में खुद के खिलाफ दायर की गई एफआइआर को खारिज करने के लिए बांबे हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। इसे अस्वीकार किए जाने के हाई कोर्ट के फैसले को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के लिए यह याचिका दायर की थी। उससे पहले पिछले 30 सितंबर को मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने भी नवलखा की याचिका पर सुनवाई करने से खुद को अलग कर दिया। इसके बाद एक अक्टूबर को बेंच के तीन जजों एन. वी. रमन, आर. सुभाष रेड्डी और बी. आर. गवई ने भी मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया।
फैसले की निष्पक्षता के लिए पड़ी परंपरा
किसी एक केस से एक के बाद एक जजों द्वारा सुनवाई से इन्कार करना न्यायपालिका की उस परंपरा का एक ताजा उदाहरण है जिसके तहत किसी केस के फैसले की निष्पक्षता और किसी भी संदेह को खारिज करने के लिए जजों द्वारा निभायी जाती है। सुप्रीम कोर्ट के एक वकील ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के 67 फीसदी जज उन्हें बनाया जाता है जो पहले अधिवक्ता के तौर पर अनुभव ले चुके हों। इस वजह से ज्यादातर मामलों में जज किसी केस की सुनवाई से इन्कार करते हैं क्योंकि वे कभी केस के किसी भी पक्ष के वकील रहे हैं।
किसी पक्ष के वकील रहना आम वजह
अदालतों में यह सामान्य परंपरा है कि अगर कोई जज पहले वकील के तौर पर किसी पक्ष का केस लड़ चुका है तो माना जाता है कि उसके फैसले पर सवाल उठ सकता है। ऐसे में किसी भी संदेह को खारिज करने के लिए जज केस की सुनवाई से खुद को अलग कर लेते हैं। चूंकि अधिकांश जज पहले अधिवक्ता रह चुके होते हैं, ऐसे में इसी बात की संभावना ज्यादा होती है कि वे कभी किसी पक्ष के वकील रहे हों।
कभी-कभी व्यावसायिक हित भी आधार
सूत्रों का कहना है कि अगर कोई जज किसी केस से अलग होता है तो इसकी कोई और वजह भी हो सकती है। यह भी हो सकता है कि जज या उसके परिवारीजन के व्यावसायिक या पेशेगत हितों का टकराव होता हो। अगर किसी जज के व्यावसायिक हितों में टकराव होता है तो भी वह केस से अलग होने का फैसला कर लेते हैं।
नवलखा केस में जजों ने वजह नहीं बताई
नवलखा केस में खास बात यह रही है कि केस से अलग हुए किसी भी जज ने अपने फैसले की वजह नहीं बताई। विधिक क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि केस से अलग होना तो सामान्य बात है लेकिन वजह बताना जज के लिए अनिवार्य नहीं है। कई बार वे खुद ही बता देते हैं, कई बार वह नहीं बताते हैं। लेकिन वजह न बताने से ज्यादा अहम केस से अलग होने का उनका फैसला होता है।
केस की संवेदनशीलता हो सकती है वजह
एक के बाद एक जज के नवलखा केस से अलग होने की बात असामान्य लगती है। इसके बारे में अधिवक्ताओं का कहना है कि भीमा कोरेगांव हिंसा का मामला देशद्रोह का मामला है। इसके अलावा यह अत्यंत संवेदनशील और बहुप्रचारित भी है। इस वजह से जज बहुत सतर्कता बरत रहे हैं। वैसे तो जजों ने वजह नहीं बताई है लेकिन संभव है कि केस की संवेदनशीलतता की वजह से उन्होंने केस से अलग होने का फैसला किया हो।

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