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बॉलीवुडः फिल्मों में स्त्री अभिव्यक्ति

समय के साथ हिंदी फिल्मों में बलात्कार के दृश्यों का फिल्मांकन बदला है। पिछले दिनों निर्देशक मनीष...
बॉलीवुडः फिल्मों में स्त्री अभिव्यक्ति

समय के साथ हिंदी फिल्मों में बलात्कार के दृश्यों का फिल्मांकन बदला है। पिछले दिनों निर्देशक मनीष मुंद्रा की फिल्म सिया रिलीज हुई है, जो हाथरस और उन्नाव में हुई बलात्कार की जघन्य घटनाओं से प्रेरित नजर आती है। फिल्म में इस बात को मजबूती से दिखाया गया है कि किस तरह न्याय हासिल करने के लिए बलात्कार पीडि़ता और उसके परिवार को विभिन्न मोर्चों पर लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है। फिल्मों में बलात्कार के दृश्य भारतीय समाज में स्त्री की अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता और सशक्तीकरण के प्रति बदलते दौर के साथ नजरिये को भी जाहिर करते हैं। जब हम हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर को देखते हैं, तो हमें फिल्मों में पितृसत्ता दिखाई पड़ती है। फिल्मों में महिला किरदारों को अबला और पराधीन दिखाया जाता रहा, जो इस बात का सूचक था कि महिलाओं की स्थिति समाज में दोयम दर्जे के नागरिक की है। इसके साथ ही स्त्री को कमजोर कड़ी की तरह भी पेश किया जाता रहा, जिसके स्त्रीत्व पर ही परिवार की इज्जत टिकी रहती थी। इसलिए जब भी खलनायक किरदार को नायक या उसके परिवार से बदला लेना होता था तो नायक की बहन का बलात्कार किया जाता था। यह वह दौर था जब मुख्य नायिका को सम्भ्रान्त महिला की तरह पेश किया जाता था। इसलिए भले ही उसके बलात्कार की कोशिश की जाती हो मगर उसका बलात्कार नहीं होता था। इसका उदाहरण बिमल रॉय की फिल्म मधुमती है जहां विलेन (प्राण), नायिका (वैजयंतीमाला) का रेप करने का प्रयास करता है। यह तय था कि फिल्मों में बलात्कार या तो नायक की बहन का होगा या फिर किसी गरीब, दलित, पिछड़े वर्ग की कन्या का।

 

 

 

फिल्म अभिनेता यशपाल शर्मा बताते हैं कि सत्तर के दशक की शुरुआत में हिंदी सिनेमा पर बाजारवाद हावी हो चुका था। इसकी झलक हमें मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में साफ तौर पर नजर आती है। जिस तरह फिल्मों में आइटम नंबर, कॉमेडी सीक्वेंस शामिल किए गए, ठीक उसी तरह फिल्मों में घटिया स्तर के रेप सीक्वेंस भी फिल्माए गए। इसी समय ‘बलात्कार विशेषज्ञ’ खलनायकों का हिंदी फिल्मों में पदार्पण होता है। मनोरंजन से पैसा वसूलने पर उतारू फिल्म निर्देशकों ने फिल्मों में अश्लीलता को जगह देनी शुरू की। केवल दर्शकों को सिनेमाघर तक खींच कर लाने की मंशा से रेप सीन फिल्म में डाले जाते थे। इसके अलावा न तो इन दृश्यों की कोई पृष्ठभूमि होती थी और न ही कोई औचित्य। अभिनेता रंजीत स्वयं इस बात को सार्वजनिक मंचों पर कबूल कर चुके हैं कि रेप सीन में अभिनय करते हुए उन्हें खुद से घिन आने लगती थी।

 

 

उपन्यासकार धीरेंद्र अस्थाना कहते हैं, ‘‘सत्तर और अस्सी के दशक में जिस भव्यता के साथ मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्मों में बलात्कार के दृश्य फिल्माने की परंपरा रही, वह दर्शाता है कि फिल्मकार जाने-अनजाने चाहते थे कि बलात्कार में हिंदी सिनेमा के दर्शकों की रुचि पैदा हो। उस दौर में ऐसा चलन देखा गया था कि दर्शक किसी खास फिल्म को केवल इसलिए बार-बार देखने जाते थे क्योंकि उसमें बलात्कार के दृश्य होते थे। फिल्म इंसाफ का तराजू इसका एक बड़ा उदाहरण है। चिंताजनक बात यह है कि उस दौर में स्त्रियों के साथ हुए कई वीभत्स यौन अपराधों के लिए मुजरिमों ने बयान दिया था कि इसकी प्रेरणा उन्हें हिंदी फिल्मों में रेप सीन से मिली।’’

 

 

 

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, दिल्ली से पढ़ी अभिनेत्री सुनीता रजवार कहती हैं, ‘‘हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों को सेक्सुअल ऑब्जेक्ट मानने की रवायत रही है। फिल्म, टीवी, विज्ञापन के माध्यम से यह विचार पोषित किया गया है कि स्त्री केवल एक भोग की वस्तु, एक देह है।’’ जैसे-जैसे भारत में समानांतर सिनेमा, नारीवादी आंदोलन, मीडिया क्रांति ने रफ्तार पकड़ी, हिंदी फिल्मों में महिला किरदारों की उपस्थिति में भी बदलाव नजर आया। इसके साथ ही फिल्मकारों ने स्त्री यौन शोषण को गंभीरता से लेते हुए वैचारिक स्तर पर बड़े परिवर्तन किए। आर्ट सिनेमा के स्तंभ श्याम बेनेगल की शुरुआती फिल्में निशांत, अंकुर इस बात का उदाहरण हैं कि हिंदी सिनेमा में एक नई बयार बहने लगी थी। इन फिल्मों में मुख्य नायिका के यौन उत्पीड़न को केंद्र बनाकर पितृसत्ता को चुनौती देने का काम किया गया। कमर्शियल सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा और फिल्म प्रेम रोग में पद्मिनी कोल्हापुरी, फिल्म प्रेम ग्रंथ में माधुरी दीक्षित और फिल्म क्रांतिवीर में डिंपल कपाड़िया के बलात्कार चित्रण से महिला यौन उत्पीड़न के मुद्दे को मुख्यधारा में मुखरता से उठाया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि बलात्कार का भड़काऊ चित्रण केवल बी और सी ग्रेड हिंदी फिल्मों तक सिमट गया।

 

 

 

फिल्म समीक्षक दीपक दुआ के अनुसार हिंदी फिल्मों में बलात्कार के चित्रण में ऐतिहासिक परिवर्तन दिल्ली के निर्भया रेप केस के बाद आया है। निर्भया रेप केस ने भारतीय समाज को झकझोर कर रख दिया था। सभी सोचने पर मजबूर हो गए थे कि आखिर मनुष्यों में ऐसी हैवानियत, ऐसी वहशियत, ऐसी दैत्य प्रवृति कहां से प्रवेश कर रही है। सिनेमा जगत की सोच भी कुछ बदली। निर्देशक अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15, अभिनेत्री श्रीदेवी की फिल्म मॉम, अभिनेत्री तापसी पन्नू की पिंक इस बात को पुख्ता तौर पर स्थापित करती हैं कि निर्भया रेप केस के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बलात्कार के मुद्दे पर संवेदनशील हुई है। इन फिल्मों से समाज में स्त्री के स्वाभिमान, अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता को बल मिला है। इन फिल्मों से बलात्कार के सामाजिक, मनोवैज्ञानिक पक्ष और प्रभाव पर बात हो रही है।

 

 

 

पहले फिल्मों में बलात्कार पीडि़ता को अछूत, अपराधी और हीन दिखाने की परंपरा रही थी। बलात्कार के मामलों में जटिल न्याय प्रक्रिया के चित्रण के माध्यम से ऐसी तस्वीर पेश की जाती रही जिससे आम आदमी का कानून और न्याय व्यवस्था से विश्वास खत्म हो जाए। संवेदनशील निर्देशकों ने इस परंपरा को तोड़ने का काम किया है और उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से यह स्थापित किया है कि संघर्ष की राह चाहे कितनी भी कठिन हो, हिम्मत करने पर न्याय अवश्य मिलता है।

 

 

 

आज हिंदी सिनेमा में इतनी संवेदनशीलता और जागरूकता पैदा हो चुकी है कि फिल्मकार अच्छी और कसी हुई स्क्रिप्ट के माध्यम से महिला अपराधों से निपटने के प्रयास कर रहे हैं। यह शुभ संकेत है कि अब किसी भी कलाकार को महिलाओं पर की गई भद्दी, अश्लील, द्विअर्थी टिप्पणी के लिए किसी तरह का समर्थन प्राप्त नहीं होता है। जाहिर है, फिल्म जगत ने लंबा सफर तय किया है, और हमारे समाज ने भी।

 

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