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प्रकाश मेहरा: जिसने अमिताभ को बनाया 'शंहशाह'

एक लड़का था बरेली का, कम उम्र में मां को खो दिया। मां का जाना,पिता से बर्दाश्त न हुआ तो पिता ने अपना मनसिक सन्तुलन खो दिया। फिर कुछ ही दिनों में ननिहाल, बिजनौर (उत्तर प्रदेश) चला आया।
प्रकाश मेहरा: जिसने अमिताभ को बनाया 'शंहशाह'

विशाल शुक्ला

उदासी और बेकसी के दिनों में मन बहलाने के लिए गाने लिखता था। जितनी बड़ी मुश्किलें थीं, उतने ही बड़े उसके सपने थे। मैट्रिक के इम्तिहान दिए और फिर 13 ₹ लेकर चला आया बम्बई। कुछ दिन फुटपाथ पर रहा पर जब वक़्त और मुकद्दर का सिक्का चला तो बॉलीवुड की कुछ बेहद कामयाब और रियलस्टिक फिल्मे बनाईं और बनाया हिंदी सिनेमा का सबसे चमकता सितारा 'अमिताभ'।

जी हां जंजीर, लावारिस, शराबी जैसी फ़िल्मे देने वाले डॉयरेक्टर 'प्रकाश मेहरा' को आज हम उनके 78वें जन्मदिन पर याद कर रहे हैं।

आसान नही थीं शुरुआती राहें

प्रकाश मेहरा जेब मे 13 रु लेकर निकल तो पड़े बम्बई के लिए पर उनके पास पूंजी कर नाम पर सीने में जुनून और दिल मे हसरत के सिवा कुछ न था। जब बम्बई आए तो वहां एक पहचान के एक नाई मिल गए 'फरीद मियां'। मेहरा काम की तलाश कर रहे थे और रहने का ठिकाना था नही, तो उन्होंने फरीद मियां के वेडलन सैलून के सामने फुटपाथ पर ही सोना शुरू कर दिया। मेहरा दिन भर काम तलाशते और शाम को थक हार कर वहीं फुटपाथ पर आकर सो जाते,कभी खाना मिलता कभी भूखे पेट ही सोना पड़ता। फरीद मियां ने मेहरा को एक दिन बुलाया और बातचीत में जब पता चला कि लड़का बिजनौर का ही है तो फरीद मियां ने एक बेंच उन्हें दे दी और उन्हें अपनी पहचान के प्रोड्यसर्स से मिलवाया। किस्मत से मेहरा को प्रोडक्शन कंट्रोलर की नौकरी मिली गई। पर इतने से मेहरा की बात बन नही रही थी, आर्थिक हालात भी आड़े आ रहे थे। मुफलिसी का एक वक़्त ऐसा भी आया जब मेहरा को पचास रुपये में गीतकार भरत ब्यास को ‘तुम गगन के चंद्रमा हो, मैं धरा की धूल हूं’ गीत बेचने के लिये विवश होना पड़ा था।

रिलेवेंट मुद्दों पर थी गहरी पकड़

कहते हैं फिल्में समाज को आइना दिखाने का काम करतीं रहीं हैं। लेकिन राजेश खन्ना के रोमांटिक दौर और उसके बाद ऋषि कपूर जैसे एक्टर्स ने रोमांटिक फिल्मों की झड़ी लगा दी थी, चूंकि पब्लिक के पास ज्यादा ऑप्शन थे नही औऱ संगीत होता था इन फिल्मों का कर्णप्रिय जबकि देश उस दौर में कुछ बेहद बुनियादी दिक्कतों मसलन गरीबी, बेकारी, माफियाराज, अकाल आदि से जूझ रहा था फ़िल्मकार सिनेमा के बाजार मे प्रेम को लुभावनी पैकिंग मे बेचे जा रहे थे। ऋषि कपूर की फिल्म बॉबी कामयाबी के झंडे गाड़ ही चुकी थी। राजेश खन्ना की दाग और धर्मेंद्र और हेमामालिनी स्टारर जुगनू जैसी रोमांटिक फिल्में कामयाब हो रही थीं।

वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज में एक अलग तरह की आग पनप रही थी। देश में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का बोलबाला था। ऐसे में प्रकाश मेहरा रिलेवेंट और सिस्टम पर चोट करती फिल्में बनाई जो कमर्शियली और क्रिटिकली दोनों तौर पर कामयाब रहीं। जंजीर, लावारिस, शराबी जैसी कई फिल्में बनाई,जिन्होंने कामयाबी के नए रिकार्ड बनाए।

जंजीर का निर्माण

प्रकाश मेहरा के सफर का जिक्र जंजीर के बगैर ठीक वैसा ही हौ जैसे आजदी की बात हो औऱ महात्मा गांधी का जिक्र न किया जाय। यूं तो मेहरा इससे पहले1968 में ‘हसीना मान जाएगी’ और 1971 में संजय खान, फिरोज खान, मुमताज की फिल्म ‘मेला’ बना चुके थे,जो खासी कामयाब भी रहीं थी। लेकिन नया मोड़ आया 1973 की फिल्म ‘जंजीर’ से। ‘जंजीर’ की कहानी सलमान खान के पिता सलीम खान ने लिखी थी और अभिनेता धर्मेंद्र को ढाई हजार रुपए में बेच भी दी थी। मगर धर्मेंद्र व्यस्त थे इसलिए उस पर फिल्म नहीं बना सके। बाद में सलीम से जावेद जुड़ गए।

इस लेखक जोड़ी ने यह कहानी प्रकाश मेहरा को सुनाई। प्रकाश मेहरा ने देव आनंद, राज कुमार और धर्मेंद्र को फिल्म में लेना चाहा, मगर तीनों अलग-अलग कारणों से फिल्म नहीं कर सके। अंत में अमिताभ बच्चन इसके हीरो बने। मगर उनके फिल्म में आते ही मुमताज ने फिल्म छोड़ दी। सलीम ने किसी तरह जया भादुड़ी को मनाया। लेकिन जंजीर में इंस्पेक्टर विजय की भूमिका को ऐसा जीवंत किया लगातार 12 फ्लॉप देने वाले अमिताभ अपने समकालीन अभिनेताओं से कोसों आगे निकल गए।

निजी जिंदगी से लाए फिल्मों में ठेठपना

मेहरा हिट निर्माता-निर्देशक बन गए। उनके जीवन का फक्कड़पन उनकी फिल्मों के किरदारों में उतरने लगा। उनका नायक कभी शराबी, कभी प्यार का प्यासा तो लावारिस होने लगा।

"हम तो उन लोगों में से हैं,जो इस दुनिया मे सिर्फ शरीर लेकर पैदा हुए हैं.....हमारी न तो तक़दीर लिखी जाती है...और न आसमान में हमारे मुकद्दर के सितारे होते हैं।" फ़िल्म लावारिस के इस डायलॉग में छिपा दर्द निश्चय ही उनके निज़ी जीवन के संघर्षों से आया लगता है।

रिश्तों को निभाया

फरीद मियां, पेशे से एक नाई, जिन्होंने मेहरा की शुरुआती दिनों में मदद की और रहने का आसरा भी दिया,मेहरा ने उन दिनों को भुलाया नही और बॉलीवुड में पैर जमाने के बाद दो काम किए।

पहला यह कि वेडलन सैलून से वह बेंच अपने बंगले पर बुलवा ली, जिस पर उन्होंने कई रातें गुजारी थी। दूसरा काम यह किया कि फरीद मियां से कहा कि वह हर रविवार उनके बाल काटने के लिए उनके घर पर आया करें।

प्रकाश मेहरा हों या ना हो, फरीद मियां उनकी कटिंग बनाएं या नहीं बनाएं, एक लिफाफा उनके लिए अलग रखा हुआ रहता था। घर के लोगों को निर्देश था कि फरीद मियां इस बंगले में बेरोकटोक आ सकें और यह लिफाफा उन्हें दे दिया जाए। इस लिफाफे में पांच सौ रुपए होते थे। फरीद मियां जब तक जिंदा रहे प्रकाश मेहरा के साथ उनका यह रिश्ता बरकरार रहा।

अंतिम यात्रा

"रोते हुए आते हैं सब,हंसता हुआ जो जाएगा,

वो मुकद्दर का सिकन्दर जानेमन कहलायेगा"

कितना सटीक है ये गीत प्रकाश मेहरा की जीवन यात्रा पर...

प्रकाश मेहरा अपने जिंदगी के अंतिम पलों में अमिताभ को लेकर गाली नामक एक फिल्म बनाना चाह रहे थे लेकिन उनका यह सपना अधूरा ही रहा और अपनी फिल्म के जरिये दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करने वाले प्रकाश मेहरा 17 मई 2009 को इस दुनिया को अलविदा कह गये।    

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