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मैं खुद को निर्देशक को सौंप देता हूं : विकी कौशल

चार साल पहले मसान फिल्म से फिल्मी दुनिया में कदम रखने वाले विकी कौशल ने अपनी पहली ही फिल्म से सभी का...
मैं खुद को निर्देशक को सौंप देता हूं : विकी कौशल

चार साल पहले मसान फिल्म से फिल्मी दुनिया में कदम रखने वाले विकी कौशल ने अपनी पहली ही फिल्म से सभी का ध्यान खींच लिया था। राजी (2018) और उड़ी (2019) ने उनके करियर को अलग दिशा दी। उन्होंने आउटलुक को बताया कि आखिर क्यों हिंदी फिल्म उद्योग अपने श्रेष्ठ समय में है क्योंकि अब नए विषयों को तरजीह दी जा रही है।

उड़ी के बाद मैं यह पूछने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं कि, जोश कैसा है?

जोश तो सच में उफान पर है। इसके लिए सच में शानदार अवसर को धन्यवाद देना चाहिए। पिछले साल मेरे काम को लेकर मुझे जो प्यार मिला वो सच में शानदार था। मुझे लगता है कि प्रेरणा का सबसे अच्छा रूप तब है जब कोई आपको अपनी सीमा से बाहर जाकर काम करने के लिए प्रेरित करे। तब और प्रेरणा मिलती है जब लोग आपसे कहते हैं कि वो आपके नए काम का इंतजार कर रहे हैं। जब आप इस तरह की बातें सुनते हैं तो आप और अच्छा देने के लिए प्रेरित होते हैं। और मैं फिलहाल इसी दौर से गुजर रहा हूं।

आपको उड़ी से ऐसे रिस्पॉन्स की उम्मीद थी? यहां तक कि प्रधानमंत्री तक ने जोश पंचलाइन का इस्तेमाल किया था।

नहीं, बिलकुल नहीं। बल्कि हम में से किसी को नहीं था। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कितना कमाएगी यह महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे ज्यादा हमें यह उम्मीद नहीं थी कि रीलिज से दो हफ्ते बाद भी दर्शक फिल्म को हाथों-हाथ लेंगे। छोटे बच्चे से लेकर 90 साल के दादाजी तक हर उम्र वर्ग के लोग मुझे ‘हाउ द जोश?’ संदेश भेजते थे। और जब प्रधानमंत्री ने ‘हाउ द जोश?’ कहा तो बस सोचिए इससे कुछ हो ही नहीं सकता।

उड़ी में क्या था, देशभक्ति या कुछ और ज्यादा?

जब एक कलाकृति सही मायनों में देशभक्ति को उकसाती है, तो इसका असर हिमस्खलन की तरह होता है। बिलकुल वैसा ही जैसे 15 अगस्त और 26 जनवरी को होता है। चाहे जो कारण रहा हो लेकिन इन दिनों हमारे दिलों दबी हुई देशभक्ति की भावना सामने आने लगी हैं। ऐसा ही कुछ उड़ी के साथ हुआ। समाज के हर वर्ग ने फिल्म को पसंद किया।

2015 में आई आपकी पहली फिल्म मसान ने अच्छा प्रभाव डाला था। उसके बाद राजी और उड़ी की भी चर्चा हुई। अपने करियर के इन दो अलग-अलग चरणों में सफलता के मामले में एक अभिनेता के रूप में आपके लिए क्या अलग था?

मसान के बाद, मैं ‘मसान वाला लड़का’ बन गया था। लेकिन राजी और उड़ी के बाद लोग मुझे मेरे नाम विकी कौशल से जानने लगे। मसान के बाद फिल्म उद्योग में मुझे प्रोत्साहन मिलना शुरू हुआ लेकिन जब मैं बाहर जाता था तब कोई पहचानता नहीं था। पर अब ऐसा नहीं है।

हाल के दिनों में यह सिद्ध हो गया है कि अब ‘विषयवस्तु ही सब कुछ है’ क्या आपको लगता है कि हम एक ऐसे युग में हैं जब स्टार सिस्टम धीरे-धीरे मिट जाएगा?

मुझे नहीं लगता कि स्टार सिस्टम खत्म होने जा रहा है। इसके अलावा, दुनिया भर के सभी लोकप्रिय फिल्म उद्योग दशकों तक स्टार पावर पर फलते-फूलते रहे हैं। यह उद्योग के अस्तित्व के लिए अच्छा है। यूरोपीय सिनेमा अभी भी आला सिनेमा बना रहा है क्योंकि वहां कोई स्टार सिस्टम नहीं है। लेकिन अब यहां जो बात अलग है वह यह है कि ‘विषयवस्तु ही सब कुछ है’ का फॉर्मूला बड़े पैमाने पर लागू हो रहा है। दर्शक कहानियों में हिस्सा ले रहे हैं। नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम के इश युग में फोन पर ही विश्व का बेहतरीन मनोरंजन उपलब्ध है। यदि किसी फिल्म को दर्शकों को आकर्षित करना है और उनसे 400 रुपये खर्च कराने हैं तो फिल्म के कंटेंट को फोन पर उपलब्ध कंटेंटे को बेहतर होना चाहिए। यही वजह है कि हम सब लोग कमर कस कर तैयार हैं। यही वजह है कि फिल्म उद्योग में अच्छा समय आया है।

क्या यही कारण है कि बड़े सितारे भी आजकल अच्छी स्क्रिप्ट की तलाश में हैं? एक वक्त ऐसा भी था कि जब फिल्म बनाने वाले पहले स्टार को साइन करते थे और उसके बाद सक्रिप्ट का चुनाव करते थे।

उस वक्त स्टार बहुत रहस्यमयी हुआ करते थे। औसत सिनेकला प्रेमी की उन तक पहुंच ही नहीं थी। मेरे पिता (एक्शन कोऑर्डिनेटर श्याम कौशल) बताते हैं कि उस वक्त यदि कोई धर्मेन्द्र को देखना चाहता था तो इसके लिए फिल्म ही एकमात्र माध्यम था। लेकिन आज कई माध्यमों से स्टार तक पहुंच बनाई जा सकती है।

गुणवत्ता के तौर पर देखें तो क्या यह हिंदी सिनेमा का श्रेष्ठ दौर है?

ऐसा मुझे लगता है। साथ ही फिल्म उद्योग ज्यादा लोकतांत्रिक हुआ है और रचनात्मक लोगों को तवज्जो दे रहा है। अब यह कुलीन वर्ग के अधीन नहीं है। अतीत में फिल्म निर्माता ब्रुकलिन में एक कहानी कहने के मौके तलाश करते थे, लेकिन अब वे चाहते हैं कि लेखक बरेली के बारे में कहानियां बताएं।

आपके लिए, फिल्मों के चयन में स्क्रिप्ट ही सब कुछ है? बड़े बैनर के बारे में आपके क्या खयाल हैं?

जब एक प्रतिष्ठित प्रोडक्शन हाउस किसी कहानी को आपको सुनाना चाहता है, तो आप जानते हैं कि आप तक पहुंचने से पहले इस पर जरूर काम किया गया होगा। आपको पता है कि वे ऐसी फिल्म बनाएंगे जो दर्शकों तक पहुंचेगी। फिर भी, स्क्रिप्ट मेरे लिए सबसे पहले आती है। मैं एक बार में एक स्क्रिप्ट पढ़ना पसंद करता हूं। अंतिम पृष्ठ पढ़ने के बाद, यदि मुझे चरित्र के लिए अनुभूति होती है तो मैं इसे तुरंत अपने परिवार के साथ साझा करना चाहता हूं। फिर मैं देखता हूं कि निर्देशक कौन है क्योंकि आखिरकार सिनेमा निर्देशक का माध्यम है।

निर्देशकों की बात करें तो आपने एक विविधता वाले समूह के साथ काम किया है- अनुराग कश्यप, मेघना गुलज़ार से लेकर राजकुमार हिरानी। उनका दृष्टिकोण कितना अलग है?

सबकी अपनी शैली है। अनुराग सर स्क्रिप्ट को लेकर कतई सख्त नहीं हैं। वो सेट पर बहुत ज्यादा इम्प्रोवाइज करते हैं। वह कलाकार को खुद करने देने में यकीन करते हैं। जैसा मैंने मनमर्जियां (2018) में किया था। मेघना गुलज़ार स्क्रिप्ट से बाहर नहीं जातीं। राजी की स्क्रिप्ट इतनी परिष्कृत थी कि उसमें कुछ भी बदलने की जरूरत नहीं थी। करण जौहर दोनों का मिश्रण है, जबकि संपादक के रूप में हिरानी क्या चाहते हैं इस बारे में बिलकुल स्पष्ट रहते हैं। एक अभिनेता के रूप में, मैं खुद को निर्देशक की दृष्टि के सामने समर्पित करने में यकीन करता हूं। मैं खुद को शेफ के हाथों मौजूद सब्ज़ी के रूप में देखता हूं।

आपने इंजीनियरिंग किया है। सिनेमा के कीड़े ने कब काट लिया?

एक वक्त था जब अपनी बैच के हर छात्र की तरह मैं भी पोस्टग्रेजुएट करना चाहता था। मेरे माता-पिता चाहते थे कि मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाऊं और वहीं बस जाऊं। क्योंकि न तो पिताजी न ही दादा जी किसी के पास स्थाई नौकरी कभी नहीं रही। लेकिन जब ग्रेजुएशन के बाद मुझे एक मल्टीनेशनल में काम करने का मौका मिला तो मुझे लगा कि मैं 9-5 की दिनचर्या के लिए नहीं बना हूं। मुझे पता था कि यह काम मुझे खुशी नहीं देगा। 

इसके बाद मैंने अपनी खुशी के कारण खोजना शुरू किए। नाटकों में काम करना मुझे खुशी देता था। जैसे स्कूल और कॉलेज के दिनों में क्रिकेट खेलना। लेकिन मैं अभिनय में जल्दबाजी नहीं करना चाहता था। इसलिए मैंने किशोर नमित कपूर के अभिनय वर्गों में मुंबई में दाखिला लिया, ताकि यह विश्लेषण किया जा सके कि अभिनय मुझे खुशी दे रहा है या नहीं। शुक्र है कि कठिन परिश्रम के बाद भी मैंने पाया कि इससे मुझे खुशी मिलती है। बाद में, फिल्म निर्माण की बारीकीयां सीखने के लिए गैंग्स ऑफ़ वासेपुर (2012) के सेट पर अनुराग कश्यप के सहायक निर्देशक के रूप में काम करने से पहले मैंने मानव कौल के थिएटर ग्रुप में भी शामिल हुआ। उनके सेट्स पर मैंने काम के तौर-तरीकों के साथ बहुत सी बातें सीखीं। इसके अलावा मुझे नामी अभिनेताओं, मनोज वाजपेयी, पीयूष मिश्रा, नवाजुद्दीन सिद्दिकी और राजकुमार राव से बात करने, मिलने का मौका भी मिला।

मसान कैसे मिली?

मसान से पहले मैं जुबान नाम की फिल्म कर रहा था। जुबान की शूटिंग खत्म करने के बाद मैं मसान के निर्देशक नीरज घायवन के साथ पुणे जा रहा था। वे भी गैंग्स ऑफ वासेपुर में असिस्टेंट डायरेक्टर थे। उन्होंने मुझे मसान का पांच मिनट का प्रोमो दिखाया जो वे निर्माताओं को भेजने वाले थे। उस वक्त मनोज वाजपेयी या राजकुमार राव के इसमें होने की संभावना थी। इसके कुछ दिन बाद ही कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा ने मुझे फोन कर पूछा कि नीरज की फिल्म के लिए क्या मैं ऑडिशन के लिए आ सकता हूं। फिर मुझे पता चला कि तारीख की समस्या के चलते राजकुमार राव इसे नहीं कर रहे हैं तो यह रोल मुझे मिल गया।

हर अभिनेता को टाइपकास्ट होने का खतरा है। मुझे यकीन है कि आप हाल ही में उरी जैसी भूमिका में गले-गले डूब गए हैं। इससे कैसे निजात पाएंगे?

ऐसा होता है। मसान के बाद मेरे पास वाराणासी-कानपुर इलाके के चरित्रों की भरमार हो गई थी। उन लोगों को लगता था कि मैं यूपी से हूं। मैंने उनमें से किसी ऑफर को हां नहीं कहां क्योंकि मैं अलग-अलग तरह की भूमिकाओं में अपनी प्रतिभा साबित करना चाहता था। मसान के बाद अगली फिल्म साइन करने के लिए मुझे आठ से नौ महीने का समय लगा। इसलिए जब अनुराग सर ने मुझे रमन राघव 2.0 में ड्रग एडिक्टेड पुलिस वाले की भूमिका ऑफर की तो मैंने इसे स्वीकार कर लिया क्योंकि यह मसान में मेरे द्वारा निभाए गए दीपक के रोल से बिलकुल विपरीत थी। ऐसा ही अब उड़ी के साथ हो रहा है।

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