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पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम क्या सरकार के लिए ''ओनियन प्राइस मोमेंट'' है?

ये सबको पता है कि प्याज के दाम सरकारें बना और गिरा सकते हैं। बीस साल पहले भाजपा ने ये महसूस किया, जब...
पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम क्या सरकार के लिए ''ओनियन प्राइस मोमेंट'' है?

ये सबको पता है कि प्याज के दाम सरकारें बना और गिरा सकते हैं। बीस साल पहले भाजपा ने ये महसूस किया, जब प्याज के दाम बढ़ने की वजह से वह दिल्ली में विधानसभा चुनाव हार गई थी। 1980 में भी भारतीय जनता पार्टी के साथ यही हुआ था जब प्याज के दामों को लेकर लोग शिकायत कर रहे थे।

अब 2018 में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ रहे हैं और मोदी सरकार के लिए ये ''ओनियन प्राइस मोमेंट'' हो सकता है। हालांकि ये समझना जरूरी है कि पेट्रोल-डीजल को छोड़कर दूसरी कई कैटेगरी में महंगाई की स्थिति अब ठीक है। अगर हम इसे 1998 (दिल्ली चुनाव जब प्याज के दाम बड़ा मुद्दा थे) और 1980 (लोकसभा चुनाव) के डबल डिजिट महंगाई दरों से तुलना करें तो कुल महंगाई आज 4 फीसदी (अगस्त में 3.7%) के आसपास है।

आइए इस बारे में कुछ आंकड़ों को समझने का प्रयास करते हैं। सीपीआई डेटा के अनुसार, इस साल जनवरी और अगस्त के बीच पेट्रोल और डीजल के दाम क्रमश: 10 फीसदी और 18 फीसदी बढ़ें हैं। इसी समय में खाद्य पदार्थों के दाम केवल 0.6 फीसदी ही बढ़े हैं। पिछले पांच सालों में ईंधन महंगाई कभी इतनी ज्यादा नहीं रही। लेकिन इसी समय पिछले पांच सालों में खाद्य महंगाई इतनी कम नहीं रही जितनी आज है। कहने का ये मतलब नहीं है कि औसत भारतीय ग्राहक ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी से प्रभावित नहीं होता। महीने का बिल बढ़ जाता है। जब ईंधन के दाम हेडलाइन्स में हैं तो खाद्य पदार्थों की महंगाई दर के ट्रेंड पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है और इसकी वजह से पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों से हो रही तकलीफों में कमी आ सकती है। आखिरकार 40 फीसदी औसत भारतीय ग्राहक का खर्च खाने पर होता है।

आलोचक तर्क दे सकते हैं कि दूसरे चरण में प्रभाव होंगे। वह यह कि ईंधन के बढ़ते दाम ट्रांसपोटेशन की लागत बढ़ा देंगे, जिसका असर अर्थव्यवस्था पर होगा। यह कुछ हद तक सही है लेकिन हम पहले नतीजे पर पहुंचकर इसके असर को ज्यादा नहीं आंकेंगे। हाल ही के अध्ययन बताते हैं कि सामान्य महंगाई पर ईंधन के दामों का असर कम हुआ है।

रविंद्र ढोलकिया और विरिंची कडियाला ‘’चेंजिग डायनमिक्स ऑफ इन्फ्लेश गल इंडिया’’ (मार्च 2018) में कहते हैं कि पिछले पांच सालों में मुद्रास्फिति के डायनमिक्स में बदलाव हुए हैं। वे विशेष रुप से इस तरफ इशारा करते हैं कि ईंधन में बढ़ोतरी का मुद्रास्फिति पर असर कम हुआ है।

आईएमएफ सितंबर, 2017 की तरफ से प्रकाशित “ऑइल प्राइज एंड इन्फ्लेश डायनमिक्स: एविडेंस फ्रॉम एडवांस्ड एंड डेवेलपिंग इकोनॉमिक्स” में संज्यूप चोई कहते हैं जब केंद्रीय बैंक मुद्रास्फिति पर ध्यान देने का मन बनाता है (भारत के मामले में 4 फीसदी) इससे मुद्रास्फिति को संबल मिलता है, जिससे तेल की कीमतों का असर मुद्रास्फिति पर कम होता है।

इसे इस तरह देखें- अगर हम सब आशा करें कि केंद्रीय बैंक मुद्रास्फिति को 4 फीसदी से ज्यादा नहीं होने देगा, हम वेतन में डबल डिजिट बढ़ोतरी की मांग नहीं करेंगे। इस तरह कम ‘आशा’ देश में कम मुद्रास्फिति की तरफ ले जाएगी। हमारी नजर में ज्यादा बड़ा रिस्क है एक्सचेंज रेट, जोकि इस समय लगातार रुपये का गिरना है। मुद्रा कमजोर होने से न सिर्फ तेल बल्कि सारे आयात महंगें हो जाते हैं और इसका असर बड़े पैमाने पर होता है। रिजर्व बैंक ने अप्रैल की मॉनिटरी पॉलिसी में आकलन किया था कि रुपये में पांच फीसदी की गिरावट से खुदरा मुद्रास्फिति 20 bps बढ़ जाएगी। अब तक इस साल रुपये में 12 फीसदी की गिरावट हुई है।  

मुद्रास्फिति से अलग रुपये की गिरावट से जुड़े दूसरे मुद्दे हैं। भारत का लघुकालीन बाहरी कर्ज मार्च 2018 के हिसाब से 102 बिलियन डॉलर था। 64.7 रुपये प्रति डॉलर एक्सचेंड रेट के हिसाब से बाहरी कर्ज 6.6 ट्रिलियन के आसपास होता। अब 70.6 रुपये प्रति डॉलर के औसतल एक्सचेंज रेट के हिसाब से 600 बिलियन रुपये की अतिरिक्त भार पड़ सकता है।

तुलना के लिए यह उतनी ही रकम है जितनी केंद्र सरकार हैल्थ केयर में खर्च करती है। जिन कंपनियों ने विदेश से कर्ज लिया है उनका अतिरिक्त सर्विस भार कर्ज की दर आर्थिक वृद्धि पर बड़ा असर डालेगी।

संक्षेप में तेल की बढ़ती कीमतें एक समस्या है लेकिन इस तरह की चीजों से हम 2017 यानी पिछले एक साल से निपट रहे हैं। जोकि बड़ी समस्या है और जो तेल के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के दूसरे मुद्दों को बदत्तर कर सकता है वो है रुपये का गिरना।

हम इसे सरकार के लिए प्याज के दामों वाली स्थिति कहने की सीमा तक नहीं ले जाएंगे लेकिन इसे रोकने की जरुरत है। इससे पहले कि ये कभी ना रुकने वाला चक्र बन जाए और रुपया फ्री फॉल की स्थिति में आ जाए। इसके लिए पहला चरण है समस्या को पहचानना। अगर सरकार और रिजर्व बैंक अपना मन बदल ले और रुपये की गिरावट को एक संकट की तरह देखे जिसे दूर किए जाने की जरूर है तो ही चीजें बदल सकती हैं। रुपये में उतार-चढ़ाव को रोकने के लिए कई सारे विकल्प हैं। देखते हैं कि कब एक्शन की शुरुआत होती है।

 

अभीक बरूआ  एचडीएफसी बैंक के  चीफ इकोनॉमिस्ट और तुषार अरोड़ा  सीनियर इकोनॉमिस्ट हैं। 

(ये लेखकों के निजी विचार हैं।)               

          

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