Advertisement

मनरेगा का धन सूखा, आगामी बजट में सुधार की गुहार

ग्रामीण भारत के लिए आवश्यक मानी वाली योजना की विश्वसनीयता पर सवाल, कामगारों को दिहाड़ी देने के लिए नहीं धन, केंद्र से नीतिगत सुधार करने की मांग
मनरेगा का धन सूखा, आगामी बजट में सुधार की गुहार

महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) गहरे संकट के दौर से गुजर रही है और धनाभाव में इसकी विश्वसनीयता दांव पर लग गई है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री और वित्त मंत्री के बीच हुए पत्राचार से यह साफ होता है कि 30 दिसंबर 2015 तक इस योजना के लिए आवंटित बजट में 95 फीसदी खत्म हो गया है और राज्यों से इतनी मांग आ रही है, जिसे पूरा करना संभव नहीं है। अगले बजट की तैयारियां शुरू हो गई हैं और उसी के तहत मनरेगा के लिए बजटीय आवंटन बढ़ाने के लिए गोलबंदी तेज हो रही है। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि 2012-13 के बाद से इस योजना की पहुंच और पूछ दोनों में भयानक गिरावट आई है।

केंद्र सरकार के मंत्रियों के पत्राचार से यह भी साफ हुआ है कि समय पर भुगतान के मामले पिछले साल के 27 फीसदी से बढ़कर 45 फीसदी हो गए हैं। इन तमाम पहलुओं को आज दिल्ली में मनरेगा और सूचना के अधिकार के लिए संघर्षशील मजदूर किसान संघर्ष समिति की अरुणा राय ने उठाया और केंद्र सरकार को चेताया कि मनरेगा जैसे गरीब जनता को रोजी-रोटी देने वाली योजना को इस तरह से खत्म करना राजनीतिक रूप से भारी पड़ेगा।

 एमकेएसएस से जुड़े निखिल डे ने यह भी आशंका जताई की देश भर में जिस तरह से सूखे का प्रकोप फैल रहा है, उसमें मनरेगा जैसी योजना की अनदेखी घातक हो सकती है। ओडिशा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश जैसे सूखा प्रभावित राज्यों में मनरेगा कामरागों को 50-50 दिन के अतिरिक्त रोजगार देने की सूचना जारी जारी की गई लेकिन इन राज्यों को कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं किया गया। यानी, अभी सिर्फ कागजों पर घोषणाएं हो रही है, धन का आवंटन नहीं। हालात इतने गहरे संकट में हैं कि इन 12 राज्यों में 1.82 करोड़ मनरेगा कामगारों का नाम मसटर रोल में दर्ज है लेकिन पैसा न होने की वजह से उन्हें अप्रैल तक पैसा नहीं मिल सकता।

अर्थशास्त्री जयति घोष का कहना है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार का सारा जोर अलग किस्म के विकास पर है। उनके विकास में देश की आम जनता, गरीब जनता, ग्रामीण जनता नहीं आती है। वे सिर्फ स्मार्ट शहरों की बात करते हैं, बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की बात करते हैं। वह मनरेगा का विफलता की निशानी मानते हैं, जबकि इसी अकेली योजना ने इतने बड़े पैमाने पर रोजगार और मांग पैदा की। अर्थव्यवस्था को तेज किया। अरुणा राय का मानना है कि मनरेगा का हक मार कर दरअसल हम लोकतंत्र में ग्रामीण भारत की शिरकत को बाधित कर रहे हैं। ये एक बहुत बड़ी गलती है

                                                

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad