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राजेंद्र राव की कहानी 'दोपहर का भोजन'

राजेंद्र राव शिक्षा और पेशे से भले ही इंजीनियर रहे हों, मगर उनका मन सदैव साहित्य और पत्रकारिता में ही रमा रहा । तकनीकी और प्रबंधन के क्षेत्र में काफी समय बिताने के बाद अवसर मिलते ही साहित्यिक पत्रकारिता में आ गए। कृतियों में एक उपन्यास, सात कथा संकलन और कथेतर गद्य के बहुचर्चित संकलन उस रहगुजर की तलाश है । संप्रति दैनिक जागरण में साहित्य संपादक।
राजेंद्र राव की कहानी 'दोपहर का भोजन'

दर्जनों लाल बत्तियों और कदम-कदम पर ट्रैफिक फंसाव झेलते हुए किसी तरह एक बजे वे  'टेस्टिस्तान-द प्राइड ऑफ इंडिया’ नाम के उस मशहूर रेस्त्रां तक पहुंच तो गए मगर तब तक पार्किंग के लिए बित्ते भर जमीन भी वहां नहीं बची थी। लंबे कद वाली वह लडक़ी न जाने कब से पार्किंग में खड़ी हम लोगों की प्रतीक्षा कर रही थी। वैभव जब तक कार को कहीं बाहर पार्क करने की जुगत भिड़ाता उसने आगे की खिडक़ी को छेंक कर बताया कि उसकी एक दोस्त खाना खाकर बैठी है, वह अपनी गाड़ी निकालेगी तो वहीं कार पार्क हो जाएगी। वैभव ने ड्राइविंग सीट से पीछे मुडक़र कहा, 'पापा-मम्मी, यह है वंदना। आप लोग इसके साथ अंदर जाइए। मैं गाड़ी पार्क करके आता हूं।’ सुखदेव प्रसाद और कल्पना नीचे उतरे तो उसने दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते की। उन्हें हलका सा धक्का लगा। शायद वह चरण-स्पर्श की अपेक्षा कर रहे थे। वह सम्मानपूर्वक उन्हें अंदर ले गई जहां उसकी सहेली का छोटा सा परिवार प्रतीक्षा में टेबल घेरे बैठा था। दोनों को उसी टेबल पर बैठा कर वे लोग बाहर पार्किंग कराने निकल गए। सुखदेव प्रसाद और कल्पना जैसे प्रथम मिलन के झटके से उबरे। इस लडक़ी को अपने कल्पनालोक में जाने कब से देखते आए थे। आज रू-ब-रू हुई तो वे सारी खयाली तस्वीरें फना हो गईं। जितना सोचा था वह उससे ज्यादा लंबी और गोरी थी। नैन-नक्‍श कुछ कम तीखे थे। इस पार्किंग प्रसंग से पता लगा कि लडक़ी स्मार्ट है। एकदम मेट्रो सिटी की लड़कियों की तरह। लेकिन वह तो मेट्रो सिटी की नहीं हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा शहर की थी।

मौन कल्पना ने तोड़ा, 'लडक़ी खूब लंबी है। गोरी भी है।’ सुखदेव प्रसाद ने चेहरे को पढ़ कर यह अनुमान लगाया कि उनकी पत्नी को वह प्रथम दृष्टया अच्छी लगी है। एक फरमाबदार पति की तरह वह चुप होकर उन्होंने आगे की बात के लिए कान लगाए रखा। 'देखने में भी ठीक-ठाक है। हां कोई सोचे एकदम फिल्मी हीरोइन जैसी हो तो वह नहीं है, और अपने को करना। क्या है जी कोई हीरोइन लाकर, कोई शोकेस सजाना है क्या। क्यों जी आपको कैसी लगी? वैभव तो इसकी तारीफ में जमीन-आसमान के कुलाबे बांधे था कि वह तो ऐसी है, वैसी है लेकिन असलियत तो सामने देखे से पता चलती है।’ सुखदेव प्रसाद ने सतर्कता का पल्लू नहीं छोड़ा। धीरे से बोले, 'लगती तो ठीक ही है।’ तभी वैभव खुशी-खुशी उसे साथ लेकर आता दिखाई दिया। शायद उसने अनुमान लगा लिया था कि मम्मी-पापा को वंदना ठीक-ठाक लगी है।

दोनों सामने की कुर्सियों पर बैठ गए। बीच में कुछ फासला रख कर। बैरा पानी की बोतल, गिलास और मीनू रख गया। वैभव ने मीनू में आंखें गड़ा लीं तो वंदना ने दोनों कोहनियां टिका कर पूछा, 'आंटी, आप लोग कल रात पहुंचे हैं न? आपकी जर्नी कैसी रही? कोई तकलीफ तो नहीं हुई रास्ते में? कल्पना ने बोतल खोल कर पानी गिलास में डालते हुए कहा, 'हम लोग बड़े आराम से आए। तुम्हारे अंकल तो ट्रेन चलते ही जैसे घोड़े बेच कर सो गए। कुल मिला कर राजधानी का सफर ठीक था। तुम कब आईं कोलकोता से?’

'मैं तो आंटी सुबह छह बजे पहुंची। मेरा टिकट आखिर तक आरएसी ही बना रहा। समझिए बैठे-बैठे ही आई हूं। वैभव लेने आ गया था। इसी ने मुझे मेरी फ्रेंड के घर छोड़ दिया।’

'कितने दिन की छुट्टी लेकर आई हो वंदना?’

'आंटी, छुट्टियां हैं कहां? बड़ी मुश्किल से दो दिन की कैजुअल मिली है। मैंने ऑफिस में बोला कि कनाडा से मेरी आंट आ रही हैं। उनसे मिलना जरूरी है। वैसे यहां काम भी क्या है, आपके दर्शन करने करने थे, बस।’

कल्पना ने अर्थपूर्ण दृष्टि से पति की ओर देखा। क्लू पाकर सुखदेव प्रसाद ने कहा,  ‘वंदना, हमें अपने घर-परिवार के बारे में बताओ। आपके घर में कौन-कौन हैं, आपके पापा क्या करते हैं, आप घर से इतनी दूर नौकरी क्यों कर रही हैं, क्या आपके घरवाले एतराज नहीं करते?’

वंदना ने जवाब देने से पहले एक बार हसरत भरी निगाह से पानी की बोतल और गिलास को देखा मगर संकोच आड़े आ गया। पानी पीने का इरादा तर्क कर बोलना शुरू किया, 'अंकल, हम लोग कांगड़ा जिले के सिरमौर कस्बे के रहने वाले हैं। हम लोग हिमाचली ब्राह्मण हैं -भारद्वाज। मेरे पिता पंडित दीनानाथ जी इलाके के जाने-माने ज्योतिष हैं। हमारे खानदान के लोग कांगड़ा दरबार में पुरोहित होते आए हैं। लेकिन मेरे चाचाओं ने यह लाइन नहीं पकड़ी, पढ़-लिख कर कनाडा चले गए और वहां अच्छा रसूख बना लिया। धीरे धीरे सारे लोग वहां माइग्रेट कर गए, एक मेरे पिताजी हैं जो अभी भी पुरोहिताई से चिपके हैं। हम दो बहनें हैं, बड़ी वाली की शादी हो चुकी है। उसने इंटरकास्ट मैरिज की है इस लिए घर आना-जाना बंद है। वह आजकल चेन्नई में है। रही बात दूर की नौकरी की तो अंकल कनाडा के मुकाबले कोलकाता पास ही माना जाएगा। अभी पिछले साल तक तो मैं यहीं पोस्टेड थी।’

उसके जवाब से सुखदेव प्रसाद भौंचक रह गए। कहां पहाड़ के भारद्वाज की बिटिया और कहां बनारस के कायस्थों का कुलदीपक। कैसे होगा यह रिश्ता? उन्होंने चिंतित होकर पूछा, 'बेटे, क्या आपने अपने घरवालों से इस संबंध के बारे में बात की है? क्या पंडितजी इस शादी के लिए तैयार होंगे?’

'सवाल ही नहीं उठता अंकल। इस बारे में उनसे बात करने से कोई फायदा नहीं है। मेरी बड़ी बहन ने उनकी मर्जी के खिलाफ शादी की है अभी तो वह उसके सदमे से ही नहीं उबरे हैं। अब मैं भी वही स्टोरी दोहराऊं तो पिताजी का दिल एकदम टूट जाएगा। फिर आपने भी तो मुझे कहां देखा था। आपकी ओ.के. मिलने के बाद मैं अपने घरवालों के बारे में सोचूंगी।’ कल्पना ने कुछ हिचकते हुए पूछा, 'तुम्हारी बहन ने किससे शादी की है? वे कौन लोग हैं?’

वंदना ने तपाक से कहा, 'आंटी, मेरे जीजाजी सरदार हैं। खत्री सिख, अमृतसर के। उनके घरवाले भी खुश नहीं हैं। समझिए मायके और ससुराल दोनों ने बहिष्कार कर रखा है। एक बच्चा भी हो गया है मगर कोई पिघलने को तैयार नहीं है। सोचिए मेरी बहन की जिंदगी कैसी गुजर रही है। बच्चे के दादा-दादी, नाना-नानी सब होते हुए भी उसे आया पाल रही है। बहन-बहनोई दोनों नौकरी करते हैं। थोड़ा बड़ा हो जाएगा तो क्रेच में छोडऩे लगेंगे।’

यह सुन कर सुखदेव प्रसाद और कल्पना के चेहरे उतर गए। वैभव ने इस संबंध में उन्हें कुछ भी नहीं बताया था। मान लो हम हां कह भी दें तो क्या फर्क पड़ता है। इस लडक़ी के मां-बाप कैसे मानेंगे। वह तो पहले से ही दुखी हैं। कलेजे पर पत्थर रखे हैं। इस शादी की सुन कर तो उन पर वज्रपात हो जाएगा। उन्हें दुखी करके, उनकी इच्छा के विरुद्ध कदम उठा कर क्या यह लडक़ी अपनी गृहस्थी में सुखी रह पाएगी? वह मन ही मन सोच में डूबे जा रहे थे।

टेबल के इर्द-गिर्द एक सन्नाटा छा गया। वैभव बड़े गौर से यह वार्तालाप सुन रहा था। उसने यकायक मीनू खोल कर कहा, 'पापा आपके और मम्मी के लिए पिस्ता-बटर-चिकन और कश्मीरी नान मंगा लेते हैं। हम दोनों तो वेजीटेरियन लेंगे। वंदना, यहां का पालक-मशरूम-पनीर बहुत बढिय़ा होता है, ठीक है न। दाल फ्राय, पाइनेप्पल रायता और सलाद। चलो ऑर्डर करते हैं।’ उसके इशारा करते ही बैरा ऑर्डर नोट करने आ गया।

दोनों को धर्मसंकट में पड़ा देख कर वंदना ने बहुत संजीदगी से कहा, 'देखिए अंकल और आंटी, आप इसे लेकर बहुत परेशान न हों। हमारा प्लान बन चुका है, बस आपके हां का इंतजार है। आपका आशीर्वाद मिल जाए तो हमें किसी की परवाह नहीं। मैं और वैभव फैसला कर चुके हैं कि हम जीवन साथी बन कर साथ-साथ रहेंगे।’

कल्पना ने बहुत मृदु स्वर में कहा, 'यह तो ठीक है मगर वंदना मुझे लगता है कि मां-बाप को नाराज करके जो काम किया जाए उसमें सच्ची खुशी नहीं मिलती। वैभव ने जब तुम्हारे बारे में बताया तो हमें भी कुछ अच्छा नहीं लगा था। लेकिन इसने जोर देकर कहा कि मम्मी एक बार आप लोग उसे देख लो, अगर आपको पसंद नहीं आएगी तो मैं शादी नहीं करूंगा। और उससे नहीं करूंगा तो और किसी से भी नहीं करूंगा। सोचो कि यह सुन कर हमारे ऊपर क्या गुजरी होगी। हमारा एक यही बेटा है, और दो-चार बच्चे होते तो इतना नहीं अखरता। सो, हमने तो हथियार डाल दिए। तुम्हें मिलने भागे-भागे आ गए। मुझे तुम जैसी भी हो पसंद हो। मैं तो यही कहूंगी कि एक बार अपने पैरेंट्स को अपनी पसंद के बारे में साफ-साफ बता दो। अगर वे चाहें तो वैभव को कांगड़ा ले जाकर उनसे मिलवा दो। शायद वे लोग भी मान जाएं। हमसे मिलने आना चाहें तो शौक से आ जाएं। कुछ दिन हमारे पास बनारस में रहें। हम लोग भले ही कायस्थ हों मगर हमारे संस्कार और आस-पास रहने वाले ज्यादातर लोग पंडित हैं। बिलकुल अस्सी घाट के पास घर है।’

वंदना ने बुझे हुए स्वर में कहा, 'आंटी, आप मां होने के नाते मेरे मां-बाप की पीड़ा को आसानी से समझ सकती हैं। दीदी ने गैर जात में ब्याह रचा लिया तो ऐसा झटका लगा कि पापा हार्ट पेशेंट होकर रह गए हैं। उन्हें समझाने का कोई तरीका नहीं है। अब उनमें एक और सदमा झेलने की ताकत नहीं बची है। इसके अलावा इस जमाने में पुरोहिताई में कोई खास आमदनी भी नहीं रह गई है। हम दोनों बहनों ने पढ़-लिख कर नौकरियां इसलिए की हैं। उन्हें हम ही सपोर्ट कर रहे हैं और करते रहेंगे। आपने मुझे स्वीकार कर लिया यह मेरी खुशकिस्मती है लेकिन मेरे पिता शायद ही वैभव को दामाद के रूप में स्वीकार कर पाएं। अब बताए इसमें क्या किया जा सकता है?’

सुखदेव प्रसाद द्रवित स्वर में बोले, 'तो यह शादी किस तरह होगी?  क्या तुम लोग कोर्ट मैरिज करोगे?’ वंदना ने कुछ संभल कर दृढ़ता से कहा,  'अंकल, कोई जरूरी नहीं है कि शादी के नाम पर होने वाले नाटक को स्टेज पर ही किया जाए। आपका आशीर्वाद मिल जाएगा तो हम साथ रहना शुरू कर देंगे। मैं कोलकाता से ट्रांसफर करवा लूंगी या फिर वैभव कोलकाता आ जाएगा। पिताजी की जान बचाने का यही तरीका हो सकता है।’

तभी दो बैरे खाना लेकर आ गए और दस्तरखान सजाने लगे।

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