Advertisement

कहानी - फिर भी यह मन

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले की रुद्रपुर तहसील के एक गांव सिलहटा में जन्म। बी.ए. तक की पढ़ाई गांव और गोरखपुर में। जवाहर लाल विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एम.ए., एम.फिल और पी-एच.डी.। इन दिनों हालचाल, अनभै कथा, असुंदर सुंदर, बिल्कुल तुम्हारी तरह, कायांतरण कविता संग्रह। हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी में भी लेखन। कुछ कविताएं अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया और पंजाबी में अनूदित। लंबी कविता सोनचिरई की कई नाट्य प्रस्तुतियां। आलोचना पर पुस्तकें - भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समय, आलोचना का मानुष-मर्म, सर्जक का स्वप्न, विचारधारा, नए विमर्ष और समकालीन कविता, उपन्यास की परिधि। प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘उम्मीद’ का संपादन। कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान और आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान सहित हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘कृति सम्मान’, उ.प्र. हिंदी संस्थान का ‘रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार’, उ. प्र. हिंदी संस्थान का ‘विजयदेव नारायण साही पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का युवा पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान और परंपरा ऋतुराज सम्मान।
कहानी - फिर भी यह मन

शाम ढल रही थी। विदा को उत्सुक किरणें पहाड़ियों से छुपम-छुपाई खेल रही थीं। डॉ. रमेन्द्र नारायण सिन्हा को वह पहली शाम याद आई जब वह इस पहाड़ी कस्बे में बैग-बक्सा लिए उतरे थे। उस दिन सांझ की ललाई आकांक्षा के उन्नत शिखरों पर आसीन प्रियतमा के होठों जैसी लगी थी लेकिन आज लग रहा था जैसे हत्या के बाद आसमान से धरती तक खून पसर गया हो। भीतर की उथलपुथल और गहरी उदासी सारे अर्थों और परिभाषाओं को बदल रही थी। कुछ भी पहले जैसा नहीं था। न भीतर, न बाहर।

डॉ. सिन्हा दस दिनों बाद आज ही कॉलेज लौटे थे। यह लंबी छुट्टी उन्होंने एक से दो होकर जीवन की नई पारी शुरू करने के लिए ली थी और मित्रों के अनुसार उनका विवाह धूमधाम से हुआ था। खूब मौज मस्ती हुई थी। सिन्हा जी मनोनुकूल साथी पाकर खूब गदगद थे। यानी कि रौनक ही रौनक थी मन की सभी दिशाओं में। उनकी आत्मा नई ऋचाओं के सृजन में लगी थी। लेकिन ऐसी स्थिति में जो हमेशा होता है, सबके साथ होता है, सिन्हा जी के साथ भी हुआ। समय पर पंछी उड़ गया। वसंत ने विदा का राग छेड़ दिया। छुट्टियां बीत गईं। सिन्हा जी घर से चले तो बहुत पहले की सुनी दो पंक्तियां याद आती रहीं।

हर क्षण तुमसे भरा-भरा

फिर भी यह मन नहीं भरा

आज भरे मन का अधूरापन लिए वह जैसे ही कॉलेज के सामने उतरे तो देखा कि बड़े बाबू उन्हीं की ओर लपके आ रहे हैं। वह तत्काल इसका कारण नहीं समझ पाए। सेकंड के सौंवें क्षण में उनके मन में आया कि शायद बधाई देने के लिए लपके आ रहे हों। लेकिन बड़े बाबू ने जो कहा उसे सुनते ही उनके हाथ से अटैची छूट गई। उस पल आत्मा के भीतर जो घटा, उसे दुनिया की किसी भी भाषा के लिए व्याख्यायित करना असंभव है। बड़े बाबू ने कहा, 'साहब, अनर्थ हो गया है। आपकी जगह मेरठ के एक साहब की नियुक्ति हो गई है। आपकी सेवा अब समाप्त हो जाएगी। आज ही इलाहाबाद जाकर हाईकोर्ट से स्टे ले लीजिए, तभी कुछ बात बनेगी।’

बड़े बाबू सहानुभूति की मुद्रा में आ गए। कहने लगे, 'अभी अभी तो शादी हुई है आपकी। अनर्थ, बड़ा अनर्थ हो गया साहब। हम लोग परसों बात कर रहे थे कि अब सिन्हा साहब का कष्ट दूर हो गया है और कल ही यह ससुरी चिट्ठी नागिन बनकर डंसने आ गई।’

सिन्हा साहब ने बड़े गौर से बड़े बाबू को देखा। वह उस क्षण बड़े बाबू की सहानुभूति का रंग पहचान न सके। स्वयं उनका अपना रंग उतर गया था। उन्होंने देखा कि अचानक कई लोग अगल बगल खड़े हो गए हैं। वह कुछ समझ पाते उससे पहले बड़े बाबू ने ही कहा, 'छोटा कस्बा है साहब। लोगों को कानों कान खबर हो ही जाती है। हम नहीं चाहते थे कि खबर फैले लेकिन सच कब तक छिपता है साहब। लोग जान ही जाते हैं और आप तो बहुत लोकप्रिय हैं साहब। विद्यार्थी भी बहुत दुखी हैं साहब। आइए, अंदर चलते हैं। आपको आदेश दिखाता हूं। मेरा तो मन नहीं कर रहा है उस ओर ताकने का भी लेकिन क्या करूं साहब। बड़ा बाबू हूं, देखना ही पड़ता है। आइए।’ और उन्होंने स्वयं अटैची उठा ली थी।

भीतर कुर्सी पर बैठते ही सिन्हा साहब को याद आया वह तदर्थ नियुक्ति का विज्ञापन। मित्रों ने कहा था, 'स्थाई हो जाओगे, आज तक सरकारी सेवा से कोई हटा है भला। आखिर कोर्ट कचहरी किसलिए हैं। आवेदन करो और प्रार्थना भी कि चयन हो जाए।’ यह मित्रों की शुभकामनाएं थीं या सिन्हा जी की प्रार्थना या महज संयोग या इन सबसे अलग उनकी प्रतिभा कि उनका चयन हो गया था। चयन के बाद उन्हें पर्वतीय संवर्ग के इस कॉलेज में नियुक्ति मिली थी। मन हरिया गया था। उम्मीदों को पंख लग गए थे। घर में भी सब खुश थे। बिना किसी सिफारिश के डिग्री कॉलेज में नौकरी मिलना खुद सिन्हा जी को अचरज में डाले हुए था लेकिन नियुक्ति एक वर्ष या स्थाई शिक्षक के आने तक के लिए ही थी। कॉलेज में कार्यभार ग्रहण कराते हुए प्राचार्य महोदय ने भी आश्वस्त किया था, 'कहीं नहीं जाओगे। मस्ती और जिम्मेदारी से नौकरी करो। खूब मेहनत से पढ़ाओ। कोई आएगा तुम्हारी जगह तो ज्वाइन ही नहीं कराऊंगा। क्या समझते हो मुझे। अभी धीरे-धीरे मेरी हैसियत जानोगे। वैसे एडहाक लोगों के कई बैच कंनर्फम हो चुके हैं। एक तुम्हारी ही किस्मत मूसल से थोड़े लिखी है। ज्वाइन करो, मस्त रहो।’

बड़े बाबू ने सिन्हा जी को सरकारी आदेश दिखाया। नीचे संयुक्त सचिव का हस्ताक्षर था। सिन्हा जी को याद आया, उनके नियुक्ति पत्र पर भी संयुक्त सचिव का ही हस्ताक्षर था। वैसे नियुक्ति का आदेश महामहिम राज्यपाल महोदय ने दिया था। सिन्हा जी के भीतर कुछ अजीब सा हुआ। कैसी विडंबना है। जिस हस्ताक्षर ने बुलाया था, वही विदा कर रहा है। असमय यह जाने बिना कि नाव अभी अधर में है। अचानक उन्हें पत्नी की याद आई। इस समय अकेली क्या कर रही होगी। शायद प्रत्याषा में होगी। अपने कमरे की खिड़की से पक्षियों की घर वापसी देख रही होगी। प्रिय के बिना उदास होगी लेकिन कोई उम्मीद उसके मन को हंसा रही होगी। लेकिन यहां तो कुछ और है। उदासी में लिपटी वापसी कैसी होगी। क्या कहूंगा उससे जाकर कि अब नौकरी नहीं रही। तुम्हारे साथ भी छल हो गया।

सिन्हा जी अपने को रोक नहीं पाए। उनकी आंखें सजल हो गईं। कहां तो पत्नी को पहाड़ों की सैर करानी थी, उपहार देने थे। लेकिन अब तो अपनी हार देनी है। उन्होंने कसकर अपनी आंखें बंद की। वह कुछ भी देखना नहीं चाहते थे। लेकिन यह क्या सामने पीत वसना प्रिया मुस्करा रही है। उन्हें निराला याद आए, राम का विरह याद आया लेकिन कहां राम और कहां वह।  उनके पास चमत्कारी शक्ति कौन कहे, साधारण शक्ति भी नहीं। अचानक वह उठ खड़े हुए। तेज कदमों से प्राचार्य जी के पास पहुंचे। उन्हें प्राचार्य जी पर बहुत भरोसा था। उन्हें लगता था कि प्राचार्य जी हर मुश्किल से उबार लेंगे। लगभग हांफते हुए उनके पास पहुंच कर उन्होंने निवेदन किया, ‘सर मैं इलाहाबाद जा रहा हूं। अभी, इसी समय। जो भी सवारी मिलेगी, उसी से निकल जाऊंगा। हो सके तो स्टे आने तक मेरे पद को बचाइएगा।’

प्रिंसिपल साहब ने डॉ. रमेन्द्र नारायण सिन्हा को ऊपर से नीचे तक देखा। थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले, 'मैं पूरी कोशिश करूंगा। तुम जानते हो कि मेरे भी हाथ बंधे हैं। तुम मेरे बच्चे जैसे हो। मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश करो। वैसे मुझसे जो हो पाएगा, जरूर करूंगा।’ 

प्रिंसिपल साहब की बातें सुनकर सिन्हा जी भीतर ही भीतर छटपटा उठे थे। उन्हें निरीह किस्म का क्रोध भी आया लेकिन वह कुछ करने और कहने की स्थिति में नहीं थे। सिर्फ  निवेदन कर सकते थे जो कि उन्होंने किया भी। उन्हें ज्वाइनिंग के दिन वाली प्रिंसिपल साहब की बातें याद आईं। इस समय उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। संकट के पलों में बुद्धि भी कहां काम करती है। प्रिंसिपल साहब के कमरे से बड़े बाबू के पास लौटकर उन्होंने पानी की इच्छा जाहिर की। बड़े बाबू ने चाय के लिए पूछा तो मना कर दिया। मन में आया कि बड़े बाबू से कहें, अब चाय पीकर क्या करूंगा।

बड़े बाबू से बात करते-करते अचानक उन्हें पेशाब महसूस हुआ। लगा जैसे वहां जलन हो रही है। वह उठकर वॉशरूम की ओर भागे। लेकिन यह क्या पेशाब की एक बूंद भी नहीं। उन्होंने दम लगाया लेकिन निष्फल। वह तेजी से बाहर आए। एक घूंट में पानी खत्म कर दिया। फिर अटैची उठाकर अपने क्वॉर्टर पहुंचे। जल्दी-जल्दी जरूरी कागजों को एक फाइल में रखकर अटैची में डाला और ताला बंद कर बाहर निकले। संयोग था कि एक जीप मिल गई, जो टनकपुर जा रही थी। उन्होंने सोचा कि वहां से बरेली चलूंगा और फिर बरेली से इलाहाबाद। जीप में बैठते हुए उन्हें याद आया कि पिताजी अक्सर कहते थे, 'थाना-कचहरी से दूर रहना चाहिए।’ लेकिन आज जीवन कचहरी के हवाले हो गया था। सिन्हा जी ने जीप से बाहर की ओर देखा। शाम तेजी से ढल रही थी।

Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad