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मानवीय भावनाओं की कहानी - मंगलसूत्र

सुपरिचित कथाकार। बाल साहित्य पर भी बहुत काम और बच्चों के लिए कई कहानी पुस्तकें प्रकाशित। मोबाइल, लड़की जो देखती पलटकर, नेम प्लेट चर्चित कहानी संग्रह। कई पुरस्कार एवं सम्मान। अखबारों में सामयिक मुद्दों पर लगातार लेखन।
मानवीय भावनाओं की कहानी - मंगलसूत्र

जब तक उसके पास मोबाइल नहीं था तब तक उसने जिद करके एक ट्रांजिस्टर खरीदवाया था। वह लगातार गम भरे गाने सुनती और गुनगुनाती थी। बताती थी कि दिल्ली में रहते उसे इतने साल हो गए हैं कि अब हिंदी ठीक से समझ में आती है। फिर ट्रांजिस्टर के मुकाबले वह मोबाइल से गाने सुनने लगी और चाहे जितना पुकारते रहो रसोई में उसे कोई आवाज सुनाई नहीं देती थी। हां उसके लंबे काले बालों में लगे बेले के फूलों की खुशबू पूरे घर में फैल, उसके होने का अहसास कराती।

उसके आदेश बदस्तूर चलते रहते, 'भइया, कब से चाय रखी है पियो। बाथरूम में कपड़े साबुन में भिगोकर आना। कल रात रोटी नहीं खाई। बाहर से खाकर आए थे क्या? अब मुझे खानी पड़ेगी न। बेकार मेहनत भी कराते हो और अन्न बिगाड़ते हो। जानते हो आटा किस भाव है। तुम कैसे जानोगे। तुम्हारे यहां तो इकट्ठा सामान आता है। बस लाने वाले को पैसे दे देते हो। भाव-ताव तो करते नहीं कभी। मैं ऐसा करूं तो कैसे काम चले। जल्दी से भाभी लाओ तो मेरी भी जान छूटे।’

जब तक वह घर में रहती मैं दरवाजे के पास सटे डाइनिंग टेबल पर बैठकर कोई न कोई काम करता। दरवाजा हमेशा खुला रखता जिससे सब आते-जाते मुझे देख सकें। क्या पता कल कोई किसी बात का नाम लगा दे। अकेले रहना भी कितना मुश्किल है इन दिनों। वह अकसर इस बात के लिए टोकती भी कि सब आते-जाते घर में बिना घुसे ही सब देखते रहते हैं। वह भड़भड़ाकर दरवाजा बंद भी करती मगर मैं फिर खोल देता।

जब भी वह आती मैं उससे कहता कि जल्दी काम निपटाए। एक दिन वह लडऩे पर उतारू हो गई, 'क्या जल्दी- जल्दी लगा रखा है। अपना घर जानकर ऐसा काम करती हूं कि देखने वाले देखते रह जाएं। हर कोने को साफ करती हूं। हाथ धोए बिना कोई चीज छूती नहीं। बरतन देखे हैं कैसे चमकते हैं। अभी किसी दूसरी काम वाली को रखो तो पता चले। ये जो सारे घर-भर में पैसे बिखरे रहते हैं, इन्हें उठा-उठाकर देती रहती हूं। पैसों का तो ही न पता चले और आधा सामान भी न रहे।’

'हां भई तू इस जमाने की सत्यवादी हरिश्चंद्र है।’

'यह सत्यवादी हरिश्चंद्र कौन है। आप वाला है क्या कोई।’

आप वाला मतलब कहकर मैं जोर से हंसा तो वह भी मुसकराई। बोली, 'हां आप पार्टी के बारे में मेरा आदमी कह रहा था कि अब से हमेशा उसी को वोट देंगे। बड़ा ईमानदार है। काम करने के कोई पैसे नहीं मांगता।’

'अरे तू तो बड़ी भारी पालिटिशीयन हो गई है। इलेक्शन लड़ने का इरादा है।’

'कोई काम नहीं मिलेगा तो वह भी कर लूंगी।’ कहकर वह खिलखिलाई। लगा जैसे कमरे में जलते बल्ब भी हंसने लगे और उनकी रोशनी उसके चेहरे जैसी बढ़ गई। कई बार उसके बच्चे भी उसके साथ आते। मैं उसे खूब हिदायत देता कि बच्चों को ठीक से खिलाए-पिलाए। यहां से भूखे नहीं जाने चाहिए। बच्चे कुछ ज्यादा मांगते तो वह मुझे सुनाते हुए उन पर चिल्लाती, 'अरे करमजलो सब तुम ही खा जाओगे या अपने मामा के लिए भी कुछ छोड़ोगे।’

कई बार मैं बच्चों के लिए उसे चॉकलेट, नमकीन या खिलौने-कपड़े लाकर देता था। उसकी बड़ी बेटी की फीस भी मैं ही दे देता था। जब मैंने पहली बार फीस दी थी तब उसके कुछ दिन बाद ही रक्षाबंधन था। वह कहकर गई थी कि नहीं आएगी। मगर सवेरे-सवेरे ही सामने खड़ी थी। घर से मेरे लिए इडली और चटनी बनाकर लाई थी। बोली, 'हमारे मद्रास में नहीं होता। मगर यहां सबको राखी बांधते देखती हूं, तो मेरा मन भी कर गया।’  कहकर उसने मुझे राखी बांध दी। मैं पैसे देने लगा तो मना करते हुए बोली, 'मुझे मेरी पसंद की एक साड़ी चाहिए। इतने दिनों से काम कर रही हूं आज तक तुमने एक साड़ी लाकर नहीं दी।’

ओफ यह क्या आफत गले पड़ गई। मैंने मन ही मन सोचा फिर कहा, 'मैं तुक्वहें पैसे दे दूंगा। तुम खरीद लेना।’ क्या पता कोई इसी बात के लिए बदनाम कर दे कि मैं किसी खास कारण से काम वालियों को साड़ी देता फिरता हूं। किसी कोमल भावना की जगह आजकल मन हमेशा शंकाओं से घिरा रहता है।

वह खुश होती बोली, 'हां तो एक नहीं दो के पैसे देना। एक तो राखी की और दूसरी वह जो सब अपनी काम वालियों को होली-दिवाली देते हैं। मेरे भाई होकर बहन के साथ इतनी कंजूसी करना ञ्चया ठीक है।’ कहकर वह हंसती हुई चली गई।

आसपास के लोग और मेरे कुछ दोस्त कहते थे कि मैं उसे ज्यादा लिफ्ट न दूं। आजकल कब क्या हो जाए पता नहीं चलता। लेकिन इस शहर में मेरा उसके बिना काम कैसे चलता। सवेरे आठ बजे निकलकर मैं देर रात लौटता था। वह सवेरे सारे काम निपटाती। शाम तक के लिए खाना पकाती। कपड़े धोती, बरतन मांजती। घर की सफाई करती और मेरे ऑफिस जाने से पहले निकल जाती। जिस दिन न आना होता पहले बताकर जाती।  मां कहती थी कि अब जल्द शादी कर लूं। मगर लगता था कि करिअर अभी ठीक से नहीं संवरा। एक बार शादी के चक्कर में पड़ा तो करिअर गया।

इस तर्क पर मां डांटती भी थी। कहतीं, 'करिअर क्या होता है। घर चलाने के लिए अधिक से अधिक पैसे ही न। अगर घर-परिवार नहीं होगा तो पैसे किस के लिए कमाओगे। आदमी कभी अपने पास जो है उससे संतुष्ट नहीं होता। यह क्यों नहीं सोचता कि आज जो है कल उससे भी अच्छा होगा। जैसे रास्ते चलते हमेशा एक से दो भले होते हैं वैसे ही घर में भी अपने अलावा हमेशा दूसरा कोई और चाहिए।’

एक-दो बार मां जब यहां आईं तो उसने भी मां के मन को जानकर उनसे कहा, 'भइया के लिए भाभी कब ला रही हो।’ मां को उसका इस तरह से बार-बार पूछना नहीं भाया। वह चुप लगा गई। शाम को जब मैं वापस आया तो बोली, 'बड़ी बतबनो है तेरी यह काम वाली। घर में घुसकर जो मर्जी में आता है, पकाती है, खाती है। और एक तू है कि मिट्टी का माधो बना बैठा रहता है।’

'अरे मां यह न हो तो, न ठीक से खाना मिले न कोई और काम हो।’

'क्यों, तू क्या एक दिन में सौ-दो सौ रोटी खाता है। दो रोटी-सब्जी अपने लिए बना नहीं सकता।’

'बनाऊंगा तो तब जब तुमने कभी सिखाया हो।’

'हां अब सारी गलती मेरी ही बताएगा। वैसे खाना पकाने के लिए क्या कोई पीएचडी की जररूत होती है। बनाते-बनाते आदमी सीख ही जाता है। अपने पापा की याद है, मैं बीमार पड़ जाती तो कितनी अच्छी-अच्छी चीजें बनाते थे।’

'वैसे पापा खाना तभी क्यों बनाते थे, जब तुम बीमार पड़ती थीं। वैसे तो कभी अपनी चाय का कप या खाने की थाली भी उठाकर नहीं रखते थे।’

'अब तू उनकी कमियां देखने लगा। कम से कम तब तो बना देते थे जब मैं बीमार पड़ती थी। तेरे बस का तो ये भी नहीं। कल बहू आएगी तो वह भी काम पर जाएगी। सब अपने आप करना आना चाहिए। घर काम वालियों के भरोसे चलते देखा है कभी।’

एक दिन मां ने उससे पूछा, 'तेरा नाम क्या है।’ वह बोली, 'लक्ष्मी।’ मां ने चकित होते कहा, 'मैंने यहां जितनी भी काम वालियां देखी हैं उन सबका नाम लक्ष्मी क्यों होता है।’

'मुझे पता नहीं। मेरा असली नाम तो कुछ और है। लक्ष्मी तो उनके लिए है जहां मैं काम करती हूं।’ मां समझ नहीं सकी। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि शायद इसलिए ये लोग अपना नाम लक्ष्मी रख लेती होंगी क्योंकि यह तो सभी को पसंद है न उनके घर लक्ष्मी आए। मेरे इस इनोवेशन पर मां खूब हंसी।

लक्ष्मी को अपने साम्राज्य में दखल बर्दाश्त नहीं था। घर के आसपास कोई दूसरी काम वाली दिखती तो उसका ऐसा निंदा अभियान चलाती कि मैं सुन कर ही डर जाऊं। चोरी-चकारी से लेकर उसके रिश्तेदारों को खूनी तक बता देती ताकि मैं कभी दूसरी बाई रखने के बारे में सोचूं भी नहीं और उनसे दूर रहूं।

एक सवेरे, इतवार के दिन वह आते ही सीधे किचन में जाने के बजाय मेरे पास आ कर खड़ी हो गई। मैं अखबार पढ़ रहा था। उसने अपने मोबाइल में खींची हुई एक फोटो निकाली और दिखाने लगी। मैंने पूछा, 'यह कौन है।’

'मेरी बहन।’

'और यह सामने खड़ा है यह कौन है, उसका हस्बैंड?’

'हां उसका आदमी।’

'दोनों लड़ रहे हैं क्या?’

'नहीं मेरी बहन कल उसका घर छोड़कर चली आई। और यह जो हाथ आगे करने वाला फोटो है न। ध्यान से देखो कुछ दिखता है।’

'नहीं।’

'अरे मेरी बहन के हाथ में मंगलसूत्र है। शादी के वक्त इसके आदमी ने पहनाया था। इसने घर छोडऩे से पहले गले से उतारकर उसे अपने आदमी के ऊपर फेंक दिया। कहा ले इसी की अकड़ दिखाता है, धर ले और चली आई।’ फिर वह जोर-जोर से हंसने लगी। 'मेरा आदमी भी बहुत शराब पीता है। एक दिन मैं भी ऐसा ही करूंगी। तब तुम कुछ दिनों के लिए मुझे अपने यहां रख लोगे।’ उसकी बात सुनकर मेरे होश उड़ गए। बाहर दूर तक फूल खिले थे, मगर मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था।

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