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कहानी - दुर्गंध

15 अगस्त, 1960 कानपुर में जन्म। तीन दशक से भी ज्यादा समय से कहानी लेखन में सक्रीय। देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। आंचलिक कथाकार के रूप में पहचान। कुछ कहानियों का बांग्ला, तमिल और उर्दू में अनुवाद। छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर में कहानियों पर, ‘गोविंद उपाध्याय की कहानियों में सामाजिक जीवन’ शीर्षक से लघु शोध-प्रबंध। ‘बारात’ और ‘पीढ़ी’ कहानियां पाठ्य-पुस्तक में संकलित। कादम्बिनी द्वारा आयोजित साहित्यिक महोत्सव में कहानी पुरस्कृत। कथाबिंब के कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार में कहानी को उत्तम पुरस्कार। कमलेश्वर-वर्तमान साहित्य कथा पुरस्कार में कहानी चयनित एवं प्रकाशित। कई कृतियां, जिसमें से पंखहीन, समय, रेत और फूकन फूफा, सोनपरी का तीसरा अध्याय, चौथे पहर का विरह गीत, आदमी, कुत्ता और ब्रेकिंग न्यूज़, बूढ़ा आदमी और पकड़ी का पेड़ तथा नाटक तो चालू है मुख्य रूप से सराही गईं।
कहानी - दुर्गंध

यह तीसरी बार था जब सुजाता बाथरूम में जाकर हाथ-पैर साबुन से रगड़-रगड़ कर धो रही थी। बाथरूम से बाहर निकली तो दुर्गंध कुछ कम लग रही थी। बरसात की इस सड़ी गर्मी में वैसे ही हालत खराब रहती है और ऐसे में यह दुर्गंध, “हे भगवान यह बदबू मुझे मार कर ही छोड़ेगी।’ सुजाता बड़बड़ाती हुई कमरे में आकर बैठ गई। कूलर की हवा में ठंडापन नहीं था। एक अजीब सी चिपचिपाहट और लिजलिजापन हर चीज से चिपका हुआ था। यूं तो पूरे वातावरण में एक बरसाती गंध फैली हुई थी। लेकिन सुजाता को लग रहा था, कहीं कोई जानवर मरा पड़ा है। सड़े हुए मांस की बदबू थी। कहीं घर में  ही कोई चूहा तो नहीं मर गया है। या फिर यह उसके शरीर से ही तो यह बदबू नहीं आ रही है। वह न चाहते हुए अपनी बाहों को ऊपर उठा कर कांख सूंघने का प्रयास करने लगी। बासी दही जैसी गंध उसके नाक से टकाराई और उसने जल्दी से बांह नीचे कर लिया।

नहीं यह वह गंध नहीं है। रत्ना सही कहती है, “मम्मी अब तुम बिलकुल सठिया गई हो। तुम वहम का शिकार हो गई हो। कहीं ऐसी कोई गंध नहीं है।”

लेकिन सुजाता क्या करे? वह कैसे बताए अपनी बेटी को? पिछले उनतीस साल से यह दुर्गंध उसका पीछा कर रही है। जितना उससे वह पीछा छुड़ाना चाहती है, वह उतना उसे परेशान करती है। पहले कभी-कभार ऐसा होता था, परंतु अब तो जैसे यह गंध उसकी नाक में बस गई है।

उसने धीरे-धीरे अपने आपको समेट लिया है। उसने अपने चारों तरफ एक ऐसा आवरण खींच लिया था, जिसमें किसी का भी प्रवेश वर्जित था। यहां तक कि रत्ना का भी। उसने जब कभी रत्ना को खुश देखा या कोई गीत गुनगुनाते सुना शक का कीड़ा उसके दिमाग में कुलबुलाने लगता, “कहीं यह लड़की किसी प्यार-मोहब्बत के चक्कर में तो नहीं पड़ गई है। एक दिन उसे छोड़कर चली जाएगी। तब तरुन की तरह वह भी...।”  उसे अपने एकाकीपन से और घबराहट होने लगती। रत्ना मां के इस तरह के विचारों से पूरी तरह अनभिज्ञ थी।  

वह ऑफिस में भी सबसे अलग-थलग हो गई है। वह दरवाजे के हैंडिल तक को छूने से घबराती है, “न जाने कैसे-कैसे हाथ इसे छूते है? वह दिन भर में कई बार अपने मेज को डस्टर से साफ करती है। वह कई बार वॉशरूम में जाकर अपने हाथ-मुंह धोती है। वह सफाई कर्मचारियों को अपनी जेब से पैसा देती है और वह उनसे अपने आस-पास की जगहों को फिनाइल से रगड़-रगड़ कर साफ कराती है। उसके बावजूद उसे लगता कि सफाई वाला ठीक से अपना काम नहीं कर रहा है और थोड़ी  देर में सारा ऑफिस गंधाने लगेगा। उसे ऑफिस में काम करने वाले लोगों पर भी गुस्सा आता। खास तौर से गुटखा खाने वाले लोगों पर। उसे लगता कि इन्हीं के कारण गंदगी फैलती है और बदबू भी। उसे न जाने क्यों लगने लगा था कि हर जानने वाला उसके खिलाफ साजिश रच रहा है। लोग जान बूझकर गंदगी फैला रहे हैं। तकि वह दुर्गंध से परेशान रहे। वह बैठे-बैठे दिनभर बड़बड़ाती रहती है। लोग उससे डरते हैं। न जाने किस बात पर वह उग्र हो जाए।

कभी-कभी उसे लगता कि रत्ना सही कह रही है। यह उसके मन का वहम ही है। वह इस वहम के कारण खुद भी परेशान होती है और दूसरों को भी परेशान करती है।

सुजाता ने सार्वजनिक स्थलों पर जाना ही छोड़ दिया था। शादी-विवाह, हाट-बाजार सब कुछ। रत्ना भी उसके कारण कैद हो कर रह गई थी। वह भी ऑफिस से सीधे घर आती और फिर मां के साथ इसी कमरे में बंद होकर रह जाती। रत्ना की शादी के लिए अब वह परेशान रहती है, लेकिन उसके स्वभाव के कारण कोई रिश्ता हो नहीं पाता। वह बेटी के लिए ऐसा पति चाहती थी जो घर जमाई बनकर रह सके। सुजाता का अतीत भी रत्ना के लिए दीवार बनकर खड़ा था। लोग आज भी तरुन के मौत का जिम्मेदार सुजाता को ही मानते थे।

तरुन के जाने के बाद, शुरू में उसे जरूर लगा था कि इन सारी परिस्थितियों के लिए वह खुद जिम्मेदार है। लेकिन जल्द ही अपनी हठी स्वभाव के कारण इन सब का कसूरवार वह तरुन के परिवार को मानने लगी। यदि तरुन के मां-बाप चाहते तो यह दुर्घटना ही नहीं होती। लेकिन उन्हें तो शुरू से वह पसंद नहीं थी। तरुन की मां ने उसके सामने ही बोल दिया था, “बेटा जिस लड़की के पीछे तू इतना दीवाना है, उसके पास सुंदरता के सिवा कुछ भी तो नहीं है। मैं तेरी मां हूं, तेरा स्वभाव मैं जानती हूं। मेरे लिए सजातीयता का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन इसका बात-व्यवहार, इसका आचरण कुछ भी तो नहीं मिलता।”

लेकिन तब तरुन बनर्जी को यही लगा था कि मां को सुजाता पसंद नहीं है। शायद इसीलिए मां उसके खिलाफ है। सुजाता को मां-बेटे का संवाद पसंद नहीं आया। लेकिन अपने स्वभाव के विपरीत वह चुप रही।

तरुन से वह एक नाटक के अभ्यास के दौरान मिली थी। वह बहुत बातूनी थी, लेकिन उसका अभिनय अच्छा था। नाटक में पार्श्व संगीत तरुन का था। नाटक सफल रहा था। सुजाता जिद्दी, वाचाल, दबंग और जल्दी गुस्से में भड़क उठने वाली लड़की थी। इसके बावजूद वह तरुन को अच्छी लगती थी।  सुजाता को भी तरुन भा गया था। गोरा-चिट्टा तरुन स्वभाव से ही गंभीर था। संगीत उसका शौक था। सुजाता ने तमाम विरोध के बाद भी उससे विवाह कर लिया। तरुन ने पिता का घर छोड़ दिया और एक छोटा सा कमरा किराए पर लेकर रहने लगा।

तरुन स्वास्थ विभाग में क्लर्क था। बहुत छोटी सी तनख्वाह थी। सुजाता के स्वप्न बहुत बड़े थे। प्रेम का बुखार उतरा तो छोटी-छोटी बातें भी ज्वालामुखी का काम करती। सुजाता पूरा घर सिर पर उठा लेती। तरुन पहले तो कुछ समझ ही नहीं पाया। बाद में उसे लगा कि यह तो सुजाता का स्वभाव है। इसे तो वह पहले से जानता था। डेढ़ साल में ही तरुन अपने जीवन से त्रस्त हो गया था। उसे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था क्या करे?

उसने सुजाता को समझाने का प्रयास किया, “ऐसा व्यवहार मत करो सुजाता। मुझे तकलीफ होती है। अब तुम बच्ची नहीं हो। तुम्हें तो सब मालूम था। फिर भी तुमने मुझे प्यार किया। अब ऐसी बेरुखी क्यों?”

लेकिन सुजाता के ऊपर उसकी बातों का कोई असर नहीं हुआ। वह दिन-पर-दिन उग्र होती जा रही थी। फिर उस दिन तो सारी मर्यादा ही तोड़ दिया सुजाता ने, “मेरे पेट में इस बच्चे को डाल कर तू अपने आपको बड़ा मर्द समझता है। साले जनखे, क्या जरूरत थी तुझे शादी करने की? जब तू अपने बीबी-बच्चों को ठीक तरह से रख नहीं सकता था।”

सुजाता ने उसकी तरफ मुंह करके थूक दिया था। वह जा चुकी थी। तरुन को अपमान का ऐसा दंश देकर कि वह चाहकर भी उसे भुला नहीं पाया था। कितना बेबस और अकेला था वह। जिसके लिए उसने परिवार छोड़ा, वह एक झटके में उसे दुतकार कर चली गई।

आई थी सुजाता… वापस लौटी थी वह…। बहुत भीड़ थी उसके घर के सामने…। तरुन सफेद कफन में लिपटा था। वह दहाड़ मार कर उसके शव पर गिर पड़ी थी।  

तीन दिन तक कमरे में मृत पड़ा रहा था तरुन। उसने आत्महत्या कर ली थी। वह एक कलाकार था। भावुक और संवेदनशील। उसने सिर्फ प्यार करना सीखा था। नफरत वह सहन नहीं कर पाया था। जब बदबू घर से बाहर निकली तब लोगों को पता चला।

सुजाता शव के पास बैठी थी खामोश। शव से उठते दुर्गंध के कारण लोगों का वहां खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। लेकिन सुजाता को होश कहां था। वह तो जैसे सन्निपात की स्थिति में थी। हालांकि तरुन ने आत्महत्या के पूर्व लिखे पत्र में स्पष्ट कर दिया था कि वह स्वेच्छा से मृत्यु का वरण कर रहा है। इसके लिए किसी को परेशान न किया जाय।

पोस्टमार्टम के बाद उसने तरुन को देखा था। छूआ भी था। उसके हाथ में तरुन की सड़ी हुई खाल चिपक गई थी और नाक में शव से उठती दुर्गंध…। सड़े हुए मांस की बू...। वह गंध उसके सांसों में हफ्तों बसी रही है। फिर धीरे-धीरे इस गंध को वह भूल गई। वह अकेली औरत थी। सुंदर और जवान…। सामने अजगर की तरह खड़ा था एक ऐसा भविष्य, जो हमेशा उसे निगलने के फिराक में था। उसे बचना था उस अजगर से, साथ में अपनी मासूम बच्ची को भी बचाना था।

तरुन चला गया। तरुन की नौकरी उसे मिल गई। जिंदगी एक बार फिर अपने ढर्रे पर चलने लगी। गर्भ में पल रही रत्ना आज अठ्ठाइस की हो गई है। जो हो गया था, वह अप्रत्याशित था। इसका पश्चाताप है उसे। लेकिन वह इसे किसी से नहीं बता सकती। वह चाहती तो दूसरी शादी कर सकती थी। कई ऐसे मौके आए, जब उसके एकाकी जीवन में कोई चुपके से दस्तक दे गया। लेकिन वह बहुत क्षणिक था। उसके दबंग स्वभाव के कारण वह जल्द उससे दूर हो गए।

तरुन के पोस्टमार्टम के बाद का चेहरा वह कभी भूल नहीं पाई। कितना वीभत्स था सब कुछ। उसके हाथों में त्वचा का चिपक जाना और वह सड़े मांस की दुर्गंध जो हमेशा उसका पीछा करती रही है। बढ़ती उम्र के साथ वह बदबू और तीव्र हो गई है। पता नहीं सुजाता को अब क्यों लगने लगा है तरुन की मौत के बाद वह अंदर ही अंदर गल रही थी। यह दुर्गंध उसी सड़ांध की है जो मृत्यु के बाद ही उसका पीछा छोड़ेगी।

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