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हत्या के जश्न में चूर एक 'देशभक्त' से साक्षात्कार!

दुकानों से पटी वह एक भीड़-भरी तंग गली थी जिस पर एक दूसरे से हिल-मिल कर बने हुए मकानों की कतारों में किसी एक घर की एकमात्र खिड़की/बालकनी/बरामदे पर चाइनीज एलइडी से लिखे गए 56 इंच के बड़े-बड़े अक्षरों में “देश-भक्त ही देशभक्त” का साइन बोर्ड लिबडिब-लिबडिब करके जल बुझ रहा था।
हत्या के जश्न में चूर एक 'देशभक्त' से साक्षात्कार!

-सोरित गुप्तो

उसके नीचे लिखा था, “दंगों-हत्याओं और फेक-फेसबुक पोस्ट के लिए यहां ऑर्डर बुक किये जाते हैं।'' पर यह स्थान गुप्त था। न ही गली के नुक्कड़ पर बसे पुलिस पोस्ट के संतरी को इसके बारे में पता था और न ही गली के लोगों को क्योंकि जब पत्रकार महोदय ने इसका पता पूछा था तब यहां के ज्यादातर लोगों ने केवल दो शब्दों में इसका पता बताया था, “आगे है।”

खैर, पत्रकार महोदय सीढ़ियों से ऊपर पहुंचे और उन्होंने एक खुले हुए दरवाजे में कुण्डी खड़खड़ाई। कुछ देर बाद वहां एक मुस्टंडा प्रकट हुआ और आते ही पूछा, “कोड वर्ड प्लीज?”

पत्रकार महोदय ने नमस्कार सुना था, हैलो सुना था पर अभिवादन के लिए ये 'कोड वर्ड प्लीज' उनके लिए कुछ नया सा शब्द था। उन्होंने सकपका कर कहा- “जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा''

मुस्टंडा खुश हुआ ! पर उतना भी नहीं जितना मोगेम्बो हुआ करता था। सो उसने कहा, यह तो ‘लॉग इन पासवर्ड है, ‘ट्रांजेक्शन पासवर्ड’ बोलो। पत्रकार महोदय ने अपना होमवर्क शायद ठीक से नहीं किया था, सो वह बगलें झांकने लगे। आखिर में उन्होंने अंदाजे में एक तीर मारा, “स्सा.. कु...., कुत्ते के मौत म..।”

कहीं पर “टींक!” की आवाज आई जैसा ‌कि आजकल किसी मोबाइल की दुकान पर आधार कार्ड के वेरिफिकेशन पर उंगली का छाप देने पर आती है। मुस्टंडे ने कहा, “आपका स्वागत है ‘शिरीमान’!” 

संडास के बदबू से बजबजाते एक तंग गलियारे को पार कर वह दोनों एक कमरे में दाखिल हुए जहां दीवारों पर किसी छप्पन-इंचीय छाती वाले नेता की तस्वीरें कतार में टंगी थीं। मोनोटोनी या एकरसता ब्रेक करने के लिए एक-आध फोटो चश्मा पहने किसी की थी जो चेहेरे से एक स्कूल मास्टर लग रहा था पर जाने क्यों इस गर्मी में उसने शाल ओढ़ा हुआ था। सामने  टीवी पर “अब तक छप्पन” फिल्म चल रही थी। टेबल पर छप्पन भोग और VAT-56 (किसी ने 9 को 6 कर दिया था ) का खम्भा रखा था। यानी मामला फुल्टू “छप्पन-मय” था। वार्ता का दौर शुरू हुआ।

पत्रकार महोदय ने पूछा, “आपके द्वारा की गई हत्याओं का बेस क्या होता है, यानी आप ऑर्डर कैसे रिसीव करते हो ?”

उनमें से एक ने कहा, “हमारे पास देश-प्रेमियों और देश–द्रोहियों का एक डेटा बैंक है। जानकारी वहीं से मिलती है, बाकी किसे कब “खल्लास” करना है उसका प्लान भी हम पहले से बनाते हैं।”

पत्रकार महोदय ने आश्चर्य मिश्रित कंठ से कहा, “कसम-कलम की, इतना होमवर्क तो आजकल हम पत्रकार भी नहीं करते। गुरु थोड़ा डिटेल में बताओ।‘’

किसी बुद्धिजीवी से अपने लिए “गुरु” शब्द सुन कर उक्त देश-प्रेमी को उतनी ही खुशी हुई जितनी लाल बत्ती लांघने के बाद पकड़े गए किसी मोटरिये से किसी सिपाही को अपने लिए “थानेदार” शब्द सुन कर होती है। देशप्रेमी ने कहा, “हम पहले हवा का रुख समझने की कोशिश करते हैं। मसलन, अब गुरमेहर कौर का इन्सिडेन्स ले लो। उसने देश पर कीचड़ उछाला। सो हम कैसे चुप बैठते, सो हमने पहले पोस्ट करना शुरू किया कि उसकी कैसे “ली” जा सकती है।

“भाई थोड़ा शब्दों पर ध्यान दो। मत भूलो ‌‌कि आपकी कॉल क्वालिटी और ट्रेनिंग परपस के लिए रिकॉर्ड की जा सकती है।” दूसरे ने उसे चेताया और फिर खुद बोलने लगा, “अब देशद्रोही के लिए और कहा भी क्या जाए? खैर हमने पहले फेसबुक पर पोस्ट करना शुरू किया कि उसका कैसे रेप किया जा सकता है। एकदम आंखों देखी बयान जैसा। नेट पर आपको ऐसी कहानियों की हजारों वेब साइट मिल जाएंगी..हे हे हे.. कहानी में नाम और तस्वीर में चेहरा ही तो बदलना होता है बाकी हर “चीज” तो एक ही होती है, है कि नहीं? हे-हे-हे।”

पहले ने कहा, “हम देखते हैं कि देश को बचाने के लिए किए गए हमारे एक्शन के बाद साले सूडो-सेकुलर-देशद्रोहियों का क्या रिएक्शन है। अगर वह मोमबत्ती लेकर निकल पड़े तब समझो रास्ता साफ है। एक तरफ इंडिया गेट पर उनकी बत्ती रैली वहीं दूसरी ओर हमारे काम करने की “बस्सी” शैली।”

अगले ने कहा, “सैयां भए कोतवाल तो अब डर काहे का, है कि नहीं?”

पत्रकार महोदय कभी इतने पॉलिटिकल जार्गन में नहीं पड़े थे। यहां इस्तेमाल होने वाली ज्यादातर शब्दावली उनके एएनआई–पीटीआई-भाषा के शब्दावली के बाहर की थी। सो उन्होंने मासूमियत से पूछा,

“भाई बस्सी शैली क्या है? तनिक एक्सप्लेन करें।‘’

पहले ने कहा, “यह तो सिंपल है। दिल्ली में जेएनयू–रामजस के छात्र को कभी हमने तो कभी देशभक्त वकीलों ने बलभर पीटा फिर बाद में पुलिस ने। उसके बाद पुलिस ने बलवा करने के झूठे चार्ज में उल्टे उन्हें ही अन्दर कर दिया। जनता चुप रही। हैदराबाद यूनिवर्सिटी हॉस्टल में पुलिस ने डंडे बरसा दिए। लड़कियों तक को नहीं बक्शा। जनता फिर भी चुप रही। फेसबुक पर गुरमेहर को लोग गाली बकते रहे और वही पुलिस गाली बकने वालों और धमकी देने वालों के साथ “छिपन-छिपाई” का खेल खेलती रही। जनता फिर भी चुप रही।”

दूसरे ने कहा, “एक ओर जंतर-मंतर पर देशद्रोहियों की काएं-काएं तो दूसरी ओर पूरे मुल्क में हमारे “तंतर” की धाएं-धाएं। कभी किसी रोहित वेमुल्ला को मरने पर मजबूर किया तो कभी किसी नजीब अहमद को “गायब” कर दिया।”

पहले ने कहा, “गोविंद पानसरे, दाभोलकर और कलबुर्गी को मारने के बाद ‘वी द पीपल’ ने चूं तक नहीं की। कन्हैया के जेल भेजने या नजीब को गायब करने के बाद भी आम जनता खामोश रही। पहलू खान–हाफिज जुनैद को भी मार दिया। जनता तब भी चुप रही। तब हम समझ गए कि “अच्छे दिन” आ गए हैं और हमने रंडी-कुतिया को कुत्ते की मौत मार दिया हे-हे-हे!”

दूसरे ने कहा, “अब तो एक पैटर्न सा बन गया है, हम मारते हैं, सरकार चुप रहती है। कुछ लोग मोमबत्ती‍ लेकर इंडिया गेट चले जाते हैं। सरकार भी खुश, हम भी खुश और मोमबत्ती जलाने वाले भी खुश। हे-हे-हे।”

पत्रकार महोदय का टाइम अब ख़त्म होने को था। उन्होंने अपना आखिरी सवाल किया, “क्या आप वाकई खुश हो?” पत्रकार महोदय के इस सवाल में उस संन्यासी की खनक थी, जिसने कभी आज से युगों पहले किसी दस्यु रत्नाकर से किसी जंगल में पूछा था कि, “क्या तुम्हारे घरवाले तुम्हारे पाप का भागीदार बनेंगे?”

कमरे में चुप्पी छा गयी। पत्रकार महोदय को लगा था कि उनके इस सवाल के जवाब में इन देशभक्तों का हृदय परिवर्तन हो जायेगा पर यहां ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पहले ने गिलास में बची दारू को एक घूंट में ख़त्म किया और रोटी का एक कौर चबाते हुए निस्पृह भाव से कहने लगा, “भाई, दो दिन ढंग से जी लो वही काफी है। कौन खुश है भला आज की डेट में? खुशी मेरी बच्ची का नाम था। ढाई महीने की थी। गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में बिना ऑक्सीजन के दम घुट कर मर गई। गांव में कोई काम नहीं, खेती-बाड़ी की लंका बेमौसम बरसात ने लगा रखी है। पढ़ा लिखा हूं नहीं। शहर में सोचा था काम मिलेगा तो काम के नाम पर टूटी प्लास्टिक की कुर्सी में मोहल्ले के गेट पर चौकीदारी का काम मिल रहा है। मजबूरी में अब देश भक्ति कर रहा हूं। इसमें पैसा है, रुतबा है...”

दूसरे ने लम्बी सिगरेट जलाते हुए कहा, “मरेगा इं‌डिया तभी बढ़ेगा इं‌डिया।”

पत्रकार महोदय ने कहा, “पर इस तरह किसी के घर पर छुप कर उसे गोली मारना कहां की देशभक्ति है?”

पत्रकार महोदय के इस सवाल पर कमरे में सन्नाटा छा गया। अचानक कमरे के कोने से उस सन्नाटे को चीरती एक बूढ़ी आवाज आई, “लगता है आपने हमारे धर्म ग्रंथों को ढंग से नहीं पढ़ा बाबू। थोड़ा उन्हें भी पढ़ लो आपको आपके प्रश्न का जवाब मिल जायेगा।”

यह एक बूढ़ा था जिसके गोल चेहेरे पर घनी लम्बी सफेद मूंछें किसी सील मछली के दांत की शक्ल की तरह लग रही थीं।

पत्रकार महोदय ने सकपका कर पूछा, “थोड़ा एक्सप्लेन करेंगे श्रीमान?”

बूढ़े सील मछलीनुमा शक्ल वाले ने कहा, “हम धर्मराज्य की पुनर्स्थापना के लिए प्रयास कर रहे हैं। वही धर्मराज्य जहां दलित शम्बूक को वेदपाठ के लिए मार दिया जाता था। द्रोपदी का भरी सभा में कुछ पुरुष चीर हरण करते थे। आज हमारे वीर-बच्चे फेसबुक में किसी गुरमेहर कौर का ‘वर्बल’ चीर हरण कर रहे हैं। अच्छे दिन आ गए अब धर्मराज्य आने वाला है।”

कमरे में एक बार फिर सन्नाटा छा गया था। अचानक टीवी पर एक विज्ञापन का गाना आने लगा।

भांति-भांति के रस पिए पर रास न आया कोई / देशी विदेशी सब लिए पर खास न भाया कोई/ जब असली रस का स्वाद चखा/ तब लगा कि अब कुछ सही पिया! 

बूढ़े सील ने पूछा, “कुछ सही पियोगे शिरिमान?”

पत्रकार महोदय एकटक कभी उसे तो कभी टीवी पर आ रहे उस विज्ञापन को देखते रहे जहां यूरोपीय वेशभूषा से सने कुछ लोग कुछ देशी चीज बेच रहे थे।

 

- वाया फेसबुक 

  

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