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यादें: ट्विंकल के लिए दांव पर दसवीं...

दसवीं की परीक्षा का सेंटर हथुआ में पड़ा था। महेश बाबू हमारे ग्रुप में बड़े सिनेड़ी के तौर पर जाने जाते थे।...
यादें: ट्विंकल के लिए दांव पर दसवीं...

दसवीं की परीक्षा का सेंटर हथुआ में पड़ा था। महेश बाबू हमारे ग्रुप में बड़े सिनेड़ी के तौर पर जाने जाते थे। इसके अतिरिक्त उनकी कुछ और योग्यता थी, उस पर फिर कभी। महेश बमुश्किल दसवीं में पहुँचे थे और कहने वाले यह भी कहते हैं कि उनको सातवीं कक्षा से इतना लगाव था कि वे दो बार से उसी कक्षा में रुके हुए थे। वे हमारे यानी बाकी के उनके चार दोस्त हर्षवर्द्धन, अभय(पंकज), आनंद भूषण और मैं, के आने के इंतज़ार में थे। कहने का मानी यह कि वे कायदे से हम चारों से दो दर्जा ऊपर थे, बाद में साथ हुए।

तो जैसा कि ऊपर बताया गया है, दसवीं का सेंटर गोपेश्वर कॉलेज हथुआ में पड़ा था। हमारे स्कूल में सिनेमा देखने में पैसों की कमी आड़े आते ही हर्षवर्द्धन दीक्षित सामने आते थे जिनके बड़े पापा पास ही के चीनी मिल में अधिकारी थे। हर्षवर्द्धन को उन दिनों में भी जेबखर्च मिला करती थी, जब बाकी के हम आठ आने रुपये पर संकट में होते। सिनेमागिरी हफ्ते की जमापूंजी से देखी जाती और दोपहर के लंच के पैसे की कीमत पर। लंच भी क्या ही होता गेट के बाहर का भूंजा वाला। जिससे हम सब अपने पैसे मिलाकर ही खरीदते। पैसों की दिक्कत थी पर शौक में कमी न थी। दूसरे फाइनेंसर थे महेश बाबू। ऐसा नहीं है कि महेश के पास पैसे होते बल्कि वह स्कूल में साइकिल से आने वाले स्टूडेंट्स की घंटियों के कवर खोल स्कूल के गेट के बाहर राजू मिस्त्री को बेचकर हमारे टिकट का इंतज़ाम करता। इसके इतर एकाध बार ऐसा हुआ कि गाँव का गेटकीपर होने की स्थिति में उधारी भी चल जाती।

बहरहाल, हमारे शिक्षक इस बात की पैरवी में थे कि इस बार दसवीं आसान न होगी। चिंटिंग तो भूल ही जाइए। महेश बाबू हथुआ चले। वहीं उन्होंने रिहाईश ढूंढी। पेपर कैसे जा रहे थे इसका अंदाजा हमें था। सिनेमची तो हम सब भयंकर थे और महेश की महिमा निराली थी। उसे बिना मारकाट के फ़िल्म बेकार लगती थी। हालांकि देखने से मना नहीं करता था। फिर वह उन दिनों अजय देवगन, जूही चावला वाली बरसात के मौसम में तन्हाई कर आलम में वाला गीत कागज़ पर लिखकर हम सबकी गर्दभ राग में सुनाता रहता था। यहाँ तक सब ठीक था पर दिक्कत ये हुई कि सेंटर के साथ धर्मेंद्र के बेटे बॉबी और डिंपल राजेश खन्ना की बिटिया ट्विंकल खन्ना की फ़िल्म 'बरसात' रिलीज हुई थी। वह जगह जहाँ बाल कटवाने का मतलब केवल कटोरा कट हो, वहाँ बॉबी के लहराते बाल और दूसरों से अलग छवि बेहद लुभा रही थी। महेश इस फ़िल्म को जनता सिनेमा में देख चुका था लेकिन फिर भी उसे यह फ़िल्म क्यों देखनी थी यह आठवें आश्चर्य का विषय था। उसको नई नवेली ट्विंकल में कुछ दिखने लगा था। उसने बाद में बताया था कि जब वह पर्दे पर लांग स्कर्ट हिला हिलाकर कहती - कैसे गुजरते हैं दिन मेरे दिलबर तुमसे कैसे कहूँ हो हो हो हो, करते हैं हम भी तुमसे प्यार तो मेरे कलेजे में खून तेजी से दौड़ने लगता है। हालांकि उसको लव तुझे लव और हमको सिर्फ तुमसे प्यार से भी उतना ही लगाव था।

बस फिर क्या था एलिमेंट्री मैथ्स का पेपर था और हथुआ से लगभग साढ़े चार किलोमीटर पर मीरगंज स्थित है, वहाँ का एक सिनेमा हॉल था - हीरा टॉकीज, सत्तर एमएम। उस रोज उसने पेपर निपटाया और सोचा शाम का शो किसी भी सूरत में ट्विंकल खन्ना के साथ हीरा टॉकीज में देखना है। ट्विंकल बुला रही थी और साढ़े चार किलोमीटर महेश के लिए मामूली थे। पर दिक्कत यह हुई कि उस रोज महेश को मीरगंज पहुँचने में देर हो गयी और शाम के 6 बजे वाला शो छूट गया। अब फ़िल्म शुरू से ना देखें तो क्या मज़ा, महेश बाबू को अगले दिन के एलिमेंट्री मैथ्स के पेपर की चिंता न थी बल्कि बरसात वाली ट्विंकल के शो की अधिक चिंता थी।

जारी...

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

 

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