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शहरनामा: कानपुर में कभी कोई अकेला नहीं महसूस करता

“कानपुर में कभी कोई अकेला नहीं महसूस नहीं करता” करामाती कान्हापुर उत्तर प्रदेश के कानपुर का कभी...
शहरनामा: कानपुर में कभी कोई अकेला नहीं महसूस करता

“कानपुर में कभी कोई अकेला नहीं महसूस नहीं करता”

करामाती कान्हापुर

उत्तर प्रदेश के कानपुर का कभी समूचे उत्तर भारत की तरक्की में खास योगदान हुआ करता था। किसी समय कान्हापुर के नाम से जाना जाने वाला और गंगा मइया की गोद में मचलता यह शहर लगातार नए आयाम जोड़ता रहा है। इस शहर से जुड़ी स्मृतियां अनेक हैं, चाहे खान-पान से जुड़ी हों, या बचपन में दोस्तों के साथ स्कूल-कॉलेज, गलियों, मैदानों और सिनेमाहॉल में बिताया समय हो, या फिर यहां का बेहद घटनाप्रधान इतिहास, जो दिलो-दिमाग को झकझोर देता है।

हर नुक्कड़ पर इतिहास

शहर के चप्पे-चप्पे पर इतिहास के निशान हैं। फूलबाग के बगल में विशाल नाना राव पार्क है, जो कंपनी बाग के नाम से भी मशहूर है। 1857 की ऐतिहासिक लड़ाई जैसे जीवंत हो उठती है। रानी लक्ष्मीबाई, लाला लाजपत राय, तात्या टोपे, अजीजन बाई की प्रतिमाओं को देखकर लगता है कि वे आज भी वहां हैं। उस पार्क का बूढ़ा बरगद जैसे आज भी उस लड़ाई की गवाही देता है। नाना राव पार्क में जाने के बाद बिठूर जाने का मोह भी मन में घिर आता है।

बदलती राजनीति का गवाह

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ही नहीं, आजादी के आंदोलन के दौरान नरम और गरम दल के स्वतंत्रता सेनानियों का भी यह शहर अहम ठिकाना रहा है और हिंदी पत्रकारिता का भी। हिंदी के महान पत्रकार विष्णु पराडकर ने न सिर्फ पत्रकारिता के आदर्श स्थापित किए, बल्कि दंगा रोकने के लिए अपनी प्राण की बाजी भी लगा दी। इस तरह सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ झंडा बुलंद करने वालों में रहे पराडकर ने इस शहर को नया मुकाम दिया। आजादी के बाद के दौर में औद्योगिक प्रगति में उत्तर भारत में खास स्थान रखने वाला यह शहर कम्युनिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन का भी ठिकाना बना। यहां से लंबे समय तक कम्युनिस्ट सांसद बनते रहे हैं। यह कांग्रेस और समाजवादी राजनीति का भी गढ़ रहा। हाल के दौर में यह भगवा राजनीति का मुकाम भी बना, लेकिन इसकी विविध राजनैतिक-सांस्कृतिक धाराएं बदस्तूर बह रही हैं।   

ग्रीन पार्क का जलवा

ईमानदारी से कहूं तो कानपुर में कभी कोई अकेला नहीं महसूस नहीं करता। चिडि़याघर, जे.के. मंदिर, माल रोड, पनकी कटरा में हनुमान जी का मंदिर या परमट के भोलेनाथ, सत्ती-चौरा घाट, मोतीझील, लाजपत भवन, गंगा बैराज, कमला रिट्रीट, जैन ग्लास मंदिर, फूलबाग संग्रहालय, मारवाड़ी पुस्तकालय, आइआइटी और न जाने ऐसे कितने ही अनगिनत लुभावने स्थान हैं, जो अपनी ओर आकर्षित करते थे। कभी-कभी तो कानपुर की भूल-भुलैया जैसी गलियों में खोने का आनंद उठाते हुए, दोस्तों के घर पहुंचना भी अपने-आप में मजेदार शगल होता था और साथ ही लगता था कि सिंकदर की तरह एक नया रास्ता खोज लिया। और हां, याद है ग्रीन पार्क का वह उल्लेखनीय क्रिकेट मैच, जिसमें इंग्लैंड के विरुद्ध चेतन शर्मा ने झंडे गाड़ दिए थे, उस रोमांचकारी मैच को ग्रीन पार्क के स्टेडियम में बैठकर देखने का सुख तो स्मृतियों में सदा अमिट रहेगा। कानपुर उन रंगीले शहरों में भी है, जहां सात दिन तक होली खेली जाती है और घर में बनीं शुद्ध मावा से भरी गुझियों और ठंडाई का निराला स्वाद चखने के बाद, होली की मस्ती साल भर पूरे दिलो-दिमाग पर छाई रहती है।

चटोरे कनपुरिये

फूलबाग से सुबह-सुबह क्रिकेट खेलकर लौटते समय टीम के लगभग सभी सदस्य कभी बिरहाना रोड के तिवारी मिष्ठान भंडार में समोसे, कचौरी-खस्ता, रसगुल्ले, जलेबी, लड्डू, लस्सी जैसे व्यंजन का नाश्ता करते तो कभी रामनारायण बाजार के बाबा हलवाई के यहां। अक्सर बहस का विषय होता कि किसका ज्यादा स्वादिष्ट है। बहस का नतीजा हमेशा सिफर होता, लेकिन ठग्गू के लड्डू को लेकर सभी एकमत थे। दोपहर चार बजे के आस-पास बिरहाना रोड में राजा भाई के बनाए गरमागरम समोसे और संध्या सात बजे नवरंग सिनेमा के सामने वाली चाट की दुकान से कभी आलू-टिक्की तो कभी गोलगप्पे का भी स्वाद चखना शहर का शायद ही कोई शख्स भूलता हो। कहिए कि पूरा शहर ही चटोरा है, लेकिन और भी बहुत सारे व्यंजन शहर की खासियत होते जा रहे हैं।

रंगबाज भी निराले

प्रभावी और आंदोलित कर देने वाला इतिहास समेटे कानपुर के हम कनपुरियों के अंदर का जुझारूपन और कर्मठशीलता ही है जो कहीं भी, कैसी भी विकट परिस्थिति में अपने लक्ष्य को भेदने की क्षमता प्रदान करती है, तो ऐसे में थोड़ी रंगबाजी तो लाजिमी है। अंत में, अगर कोई आपको देश के किसी भी शहर में गुरु, पहलवान या फिर भाई जी कहकर संबोधित करे तो समझ जाइए कि आप एक कनपुरिये से मिल रहे हैं क्योंकि जीभ के साथ हमारी भाषा में भी अपनत्व भरा अनोखा स्वाद शामिल है। 

(लेखक केसरी, पैडमैन और मी रक्सम जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं)

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