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शहरनामा/होशंगाबाद: नर्मदा नदी के किनारे बसा पौराणिक महत्व वाला शहर

“नर्मदा नदी के किनारे बसा पौराणिक महत्व वाला शहर” अब नर्मदापुरम कहिए नर्मदा जयंती के शुभ दिन, 7...
शहरनामा/होशंगाबाद: नर्मदा नदी के किनारे बसा पौराणिक महत्व वाला शहर

“नर्मदा नदी के किनारे बसा पौराणिक महत्व वाला शहर”

अब नर्मदापुरम कहिए

नर्मदा जयंती के शुभ दिन, 7 फरवरी 2022 को होशंगाबाद का नाम नर्मदापुरम हो गया है। यहां स्थित बाबई का नाम भी माखन नगर कर दिया गया है क्योंकि यह महान कवि, लेखक-पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी की जन्मस्थली है जो ‘मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक! मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक’ जैसी अजर-अमर पंक्तियों के रचयिता थे। आज पुण्यसलिला नर्मदा तट पर बसे इस शहर की ख्याति का प्रमुख कारण है महत्वपूर्ण सरकारी कारखाना ‘सिक्योरिटी पेपर मिल’ (एसपीएम) जहां भारतीय रुपयों के कागज का निर्माण होता है। नर्मदा का तटीय क्षेत्र पहले गोंडवाना कहलाता था। होशंगाबाद स्थित पर्यटन स्थल आदमगढ़ की आदिकालीन पहाड़ियों में पत्थरों की दीवारों पर उकेरे शैलचित्र हैं। मालाखेड़ी में रेशम के कीड़े पाले जाते हैं और मलबरी सिल्क बनाया जाता है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित ‘प्राकृत’ शोरूम में रेशमी और सूती वस्‍त्रों का विक्रय होता है।

त्वदीय पाद पंकजम, नमामि देवी नर्मदे

वैसे इसका इतिहास पौराणिक काल का है। पौराणिक कथा के अनुसार शिवजी ने अमरकंटक पर्वत पर बारह वर्षीय कन्या नर्मदा को उत्पन्न किया था। नर्मदा का प्रत्येक पत्थर शिवस्वरूप मानते हुए कहा जाता है, ‘नर्मदा का हर कंकर, शंकर है।’ कल्याणमयी नर्मदा एकमात्र कुंआरी, रहस्यमयी नदी है जो मैखल पर्वत के अमरकंटक शिखर से निकलती है। ‘रेवा और शांकरी’ नामों वाली मध्य प्रदेश और गुजरात की मुख्य नदी नर्मदा, पूर्व से पश्चिम की ओर, सतपुड़ा और विंध्याचल पर्वत श्रेणियों के मध्य, विपरीत दिशा में प्रवाहित है। शास्त्र-पुराणों में उल्लेख है कि गंगास्नान से पाप धुलते हैं, वहीं नर्मदा के दर्शनमात्र से मानव पापों-पातकों से मुक्ति पाता है। मान्यता है कि नर्मदा किनारे जिनका दाह-संस्कार होता है, उनकी अस्थियां गंगा में प्रवाहित नहीं की जातीं क्योंकि इससे नर्मदा का अपमान होता है। बाढ़ आने पर होशंगाबाद बहुत बुरे हालात से गुजरता है। लेकिन अपार हानि के बावजूद लोग बाढ़ पीड़ितों की सहायता करते हैं।

आस्था का भव्य समारोह 

माघ माह के शुक्ल पक्ष की अचला सप्तमी को नर्मदा पृथ्वी पर अवतरित हुई थी, अतः इस दिन नर्मदापुरम में नर्मदा तट पर ‘नर्मदा जयंती महोत्सव’ मनाया जाता है। नर्मदा नदी के इस पार से उस पार तक का क्षेत्र विद्युत प्रकाश से आलोकित किया जाता है और नदी के बीचोबीच मंच का निर्माण किया जाता है। समूचे पाट को चुनरी चढ़ाई जाती है, लाखों श्रद्धालुओं द्वारा अभिषेक, पूजन और सामूहिक रूप से भव्य महाआरती की जाती है। रात्रि में नर्मदा जल में प्रवाहित हजारों दीपकों की मनोरम छटा दर्शनीय होती है। नृत्य-संगीत के कार्यक्रम होते हैं। नर्मदा की ‘ओर से छोर’ परिक्रमा का विशेष माहात्म्य है। पहले के समय में साधु-संत और गृहस्थजन सघन वन क्षेत्र पार करते हुए कठिनाई भरी पैदल परिक्रमा करते थे। वे दो जोड़ी वस्‍त्रों के साथ निकलते और जिस गांव में पड़ाव होता था, गांववासी स्नेह और आदरपूर्वक उनके भोजन और विश्राम की व्यवस्था करते थे। नर्मदा से अथाह प्रेम करने वाले ‘रेवापुत्र’ स्वर्गीय ‘अमृतलाल बेगड़ जी’ ने सपरिवार कई बार संपूर्ण नर्मदा की परिक्रमा की थी।

मैया से घी का लेन-देन

‘गौरीशंकर महाराज’ ऐसे संत हुए जो शिष्यों के साथ नर्मदा की बारहमासी परिक्रमा करते रहते थे। नर्मदा तट पर जब वे भंडारा करते थे तब कड़ाही में घी खत्म हो जाने पर शिष्यों से कहते,  ‘‘नर्मदा मैया से जल उधार ले आओ और मालपुआ, पुड़ी-कचौड़ी बनन दो, जब अपने पास घी आ जाहे तब वापिस कर देहें।’’ नर्मदा जल को घी स्वरूप प्रयोग करके शिष्यगण मालपुआ, पुड़ी-कचौड़ी तलते तथा उनके पास घी आने पर वापस नर्मदा में उड़ेल देते थे। नर्मदापुरम मंदिरों और साधु-संतों के लिए प्रसिद्ध, धार्मिक आस्था का पर्याय है। नर्मदा तट पर पत्थरों से निर्मित पक्के घाट हैं। सेठानी घाट पर महिलाओं और पुरुषों के स्नान की पृथक व्यवस्थाएं हैं।

नर्मदा और तवा का संगम

यहां ‘बांद्राभान’ स्थान पर नर्मदा और तवा नदियों का संगम है जहां कार्तिक पूर्णिमा से 3-4 दिनों का विशाल मेला आयोजित होता है। हमारे बचपन में श्रद्धालु तम्बुओं में ठहरते थे और रेत में ईंट के चूल्हे और उपलों की आंच पर सौंधे स्वाद वाले दाल-बाटी-भरता का आनंद लेते थे। शहर में संत रामजी बाबा की समाधि पर, फरवरी में एक हफ्ते का विशाल मेला होता है। 

सौंधे-सुस्वादु डंगरा-कलींदा

यहां की बोली ब्रजभाषा मिश्रित बुंदेलखंडी है। हमारे बचपन में यहां शुद्ध मावे से बनी मोटी-मोटी स्वादिष्ट जलेबियां मिलती थीं। उन दिनों एक बंगाली की मिठाई की दुकान में छेने से बनी एकमात्र मिठाई ‘चमचम’ मिलती थी। लोग नाव से नर्मदा पार जाकर कछार में पैदा हुए रसीले तरबूज (स्थानीय नाम कलींदा) और खरबूज (स्थानीय नाम डंगरा) का स्वाद लेते थे। विवाहों में भोजन के मेन्यू का ऐसे होता था- ‘‘दाल-भात, सुआंरी (पुड़ी) भेंड़ा की तरकारी (भिंडी की सब्जी), दो भते पापड़ (मूंग-उड़द, चावल या ढारमा के पापड़), नुक्ति के लड़ुआ (बूंदी के लड्डू), घेंघरा की कढ़ी (बेसन के मोटे सेव की कढ़ी), कांजन के बड़ा (कांजी बड़े)।’’

सिंधु दीक्षित

(लेखिका कवयित्री हैं)

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