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शहरनामा/चौकोड़ी: अतुलनीय पहाड़ी सौंदर्य

“चौकोड़ी की प्राकृतिक सुंदरता अत्यंत दर्शनीय है” अतुलनीय पहाड़ी सौंदर्य उत्तराखंड का चौकोड़ी शहर...
शहरनामा/चौकोड़ी: अतुलनीय पहाड़ी सौंदर्य

“चौकोड़ी की प्राकृतिक सुंदरता अत्यंत दर्शनीय है”

अतुलनीय पहाड़ी सौंदर्य

उत्तराखंड का चौकोड़ी शहर पहाड़ी पर्यटन स्थल है जिसे प्रकृति ने अप्रतिम ऋंगार की सौगात बख्शी है। भोर में सूरज की किरणों से प्रकाशित, स्वर्ण मुकुट से दमकते और सांझ होने पर चांद के उज्जवल प्रकाश में रजत मुकुट की तरह चमकते नंदा देवी, नंदा कोट, त्रिशूल और पंचाचूली हिमशिखर पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण का केंद्र हैं। वर्ष 1790 तक कुमाउं प्रभुत्व संपन्न राज्य था, तब तक चौकोड़ी चरागाह या बुग्याल ही था। 1814 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुमाउं में प्रवेश के बाद इस भूभाग को चाय बागान के रूप में विकसित किया जो कालांतर में छोटा शहर बन गया। चौकोड़ी की प्राकृतिक सुंदरता अत्यंत दर्शनीय है। चौकोड़ी के सामने पुंगराऊ घाटी के लहलहाते खेत, घास के मैदान और देवदार, चीड़, बुरांस, पांगर, उतीस के जंगलों की शीतल पवन मन को शांति देती है। चांदनी रात में एक ओर चमकते हिमशिखर और दूसरी ओर नीले आसमान में सप्तऋषिमंडल, ध्रुवतारा और आकाशगंगा के दिलकश नजारे आनन्दानुभूति देते हैं।

जिम कॉर्बेट की यायावरी

चौकोड़ी की जलवायु को देखते हुए अंग्रेजों ने 18वीं शताब्दी में यहां चाय बागान विकसित किए और चौकोड़ी से त्रिपुरा देवी तक 200 एकड़ में चाय के बागान लगाए गए। 1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसकी नीलामी की। अंग्रेज आर. ब्लेयर को इस टी स्टेट का प्रभारी बनाया गया। 1916 में ब्लेयर ने जिम कॉर्बेट को टी स्टेट का प्रभार दिया। जिम कॉर्बेट यायावरी के कारण टी स्टेट नहीं चला पाए, उन्होंने दायित्व मुरलीधर पंत को सौंप दिया। बाद में दान सिंह बिष्ट मालदार ने टी स्टेट चौकोड़ी और बेरीनाग को खरीद कर यहां चाय के कारखाने लगाए। उनकी मृत्यु के बाद टी स्टेट उजड़ने लगा और 1960 के बाद कस्बे का रूप लेने लगा। आज भी टाउनशिप में टी स्टेट के अवशेष मिलते हैं। अब चौकोड़ी से चार किमी दूर ग्राम सगौड़ के पास चाय के बगीचे विकसित किए गए हैं और चौकोड़ी से तीन किमी की दूरी पर नागिल गांव में चाय का कारखाना है जहां फ्रेश चाय और विच्छू घास की आयुर्वेदिक चाय प्राप्त की जा सकती है।

कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र

चौकोड़ी से तीन किमी दूर महरूड़ी में 7320 फीट की उंचाई पर कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र खोला गया है जहां दो दर्जन से अधिक कस्तूरी मृग हैं। कस्तूरी केवल नर मृग की नाभि में मिलती है। कस्तूरी मृग देखने के लिए धरमघर रोड से 1.5 किमी. पैदल पहाड़ी पर चढ़ना पड़ता है। चौकोड़ी से चार किमी दूर गांधी जी की शिष्या सरला बेन का आश्रम हिमदर्शन कुटीर है। चौकोड़ी, कोटमन्या, बेरीनाग, धरमघर के आस-पास जंगलों में चीड़, बांज, देवदार, बुरांस, लट्टू, काफल, हिसालू, पय और पांगर के पेड़ मिलते हैं। अप्रैल-मई में यहां हिसालू, किल्मोड़ा और काफल मिलते हैं। गर्मियों में आड़ू, पोलम, खुबानी भी खूब मिलती हैं। मार्च-अप्रैल में बुरांस के फूलों से जंगल में कालीन सा बिछ जाता है। जंगल में अक्सर काले लंगूर, हिमालयी घुराड़, कांकड़, जंगली सियार, बाघ, भालू, साही टकरा जाते हैं। रात को इनकी आवाजें भी सुनाई देती हैं। यहां आने-जाने के लिए बारहों मास साधन उपलब्ध रहते हैं। यह स्थान पठन-पाठन, योग, ध्यान और स्वास्थ लाभ के लिए अति उत्तम है।

मध्य हिमालय का नाग लोक

चौकोड़ी कस्बा राम गंगा और सरयू नदी के दोआब के केंद्र में अवस्थित है। इस क्षेत्र को रमणीक द्वीप कहे जाने का उल्लेख मिलता है। स्कन्दपुराण के मानस खंड के अनुसार, सरयू और पूर्वी रामगंगा के मध्य का क्षेत्र नागगिरि है जो अष्टकुल नागों का निवास स्थान है। ऐतिहासिक रूप से यह क्षेत्र नाग राजाओं की राजधानी रही होगी, ऐसा अनुमान है। चौकोड़ी के ठीक सामने कालीनाग पर्वत है। इसके शिखर पर कालिया नाग का मंदिर है जहां कालिया नाग का विस्थापन भगवान श्रीकृष्ण ने यमुना नदी से कराया था। चौकोड़ी से 15 किमी दूर बय्यू गांव में कालिया नाग की रानियों का वास है जो कालीनाग पर्वत की तलहटी में थल कस्बे के पास स्थित है। चौकोड़ी से 20 किलोमीटर की परिधि में हर पर्वत शिखर पर एक नाग मंदिर है। शिखर पर्वत पर मूलनारायण नाग, कालीनाग पर्वत पर कालियानाग, विजयपुर में धौली नाग, कमेड़ी देवी में पिंगलनाग, कांडा में फिणनाग, कोटमन्या में बासुकीनाग के मंदिर हैं। चौकोड़ी से पांच किमी दूर कस्बे का नाम बेड़ीनाग के नाम पर है जिसे अब लोग बेरीनाग लिखते हैं। पाताल भुवनेश्वर शेषनाग से जुड़ा है। नागों की आराध्य देवी त्रिपुरसुंदरी देवी है जिनका मंदिर चौकोड़ी के राईआगर रोड पर है।

चांचरी में हुड़के का वादन

नाग पंचमी के अतिरिक्त चैत्र और शारदीय नवरात्र में मंदिरों में विधि-विधान से नागों की पूजा-अर्चना होती है तथा मेलों का आयोजन होता है जिसमें ग्रामीण और पर्यटक भाग लेते हैं और भक्त पूजा-अर्चना करते हैं। मेलों में महिला-पुरुष गायन और नृत्य करते हैं जिसे चांचरी कहते हैं। चांचरी में वाद्य यंत्र हुड़के का वादन होता है। यहां ढोल, दमुआ, तुरीन के साथ मंदिर की परिक्रमा तथा छोलिया नृत्य भी होता है। 

 जम्बू धुगार के पत्ते का तड़का

हिमालय प्रवास पर स्थानीय व्यंजनों का आनन्द अवश्य लेना चाहिए। होटलों में भट (ब्लैक सोयाबीन) की दाल या चुड़काड़ी, गहत की दाल, पहाड़ी राजमा, गुरौस की दाल, लाल चावल के भात का स्वाद जरूर लिया जाना चाहिए। मडुवे की रोटी को मक्खन और पहाड़ी गडेरी की सब्जी के साथ खाते हैं। जम्बू धुगार के सुगंधित पत्ते का तड़का देने से दाल में खुशबू आती है।

गिरिजा किशोर पाठक

(मध्य प्रदेश पुलिस के सेवानिवृत्त डीआइजी, कवि और लेखक)

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