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पुस्तक समीक्षा : सदानीरा पत्रिका (ग्रीष्म 2022 एंथ्रोपोसीन विशेषांक)

“वह समझाते हैं  लड़ो   धर्म है लड़ना धरती और आदमी को बचाने के लिए लड़ो।   शुरू होती है लड़ाई सबसे...
पुस्तक समीक्षा : सदानीरा पत्रिका (ग्रीष्म 2022 एंथ्रोपोसीन विशेषांक)

“वह समझाते हैं 

लड़ो

 

धर्म है लड़ना

धरती और आदमी को

बचाने के लिए लड़ो।

 

शुरू होती है लड़ाई

सबसे पहले

रौंदी जाती है धरती

मरता है आदमी”

 

- सांवर दइया, पत्रिका सदानीरा में 

 

पत्रिकाओें की विशेषता है कि किसी विषय पर भिन्न-भिन्न कोणों और आयामों से एक साथ रोचक अंदाज़ में चर्चा हो जाती है। यह चाहे वैज्ञानिक जर्नल हों, राजनैतिक पत्रिका या साहित्यिक हस्तक्षेप, इनके द्वारा एक सातत्य बना रहता है। इसका परिश्रम भी निरंतर और नवाचारी होता है। हिंदी की अधिकांश पत्रिकाएँ डिजिटल रूप में नॉटनुल नामक ऐप्प पर उपलब्ध हैं, जिससे देश-विदेश में उनका पहुँचना सुलभ हो गया है।

 

सदानीरा का ‘एंथ्रोपोसीन’ अंक (अप्रिल-जून, 2022) शीर्षक से ही कौतूहल पैदा कर रहा था। इस शब्द से परिचित था, लेकिन हिंदी साहित्यिक दुनिया इस पर विशेषांक लिख रही है, यह नयी बात थी। एंथ्रोपोसीन पश्चिमी दुनिया के लिए भी पिछले कुछ दशकों की ही सोच है। वह युग जिसमें हम रह रहे हैं, जब मानव जीवन प्रकृति पर बहुत अधिक प्रभाव डालने लगी है, इसे एंथ्रोपोसीन कहने की क़वायद चल रही है। जब एक बच्चा चॉकलेट खाकर उसका रैपर नाले में गिरा रहा होता है, वह इस युग का ही एक अबोध बालक है। लेकिन, जिस युग में हम जी रहे हैं, उसके लिए हिंदी शब्दकोश में कोई शब्द नहीं? 

 

ऐसे विमर्श के लिए साहित्यिक विमर्श महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इस विशेषांक में पहले आलेख में ही चंदन श्रीवास्तव इस पर चर्चा करते हैं कि एंथ्रोपोसीन के लिए एक उपयुक्त हिंदी शब्द आखिर क्या हो, और क्यों हो। यह एक वैज्ञानिक रुझान है कि किसी भी समस्या को समझने के लिए हम पहले उसकी परिभाषा और उसका नाम तय करते हैं।

 

जब नाम तय हो गया, तो अगला बिंदु है कि विषय को बाल-सहजता से पहले समझा जाए। इस कला में दक्ष व्यक्तित्व सोपान जोशी का अगला आलेख पाठक को झकझोरता है, समझाता है, और चेतावनी देता है। नींद से जगाता है। विषय समझने के बाद इसके भिन्न-भिन्न आयामों पर आते हैं। जैसे एक महत्वपूर्ण आयाम है- जल। नदियाँ, झील, डेल्टा, समुद्र आदि।

 

इस पत्रिका में एक इतिहासकार की नज़र से नदी तटों का जमीनी खाका तैयार करते हैं रमाशंकर सिंह। एक पत्रकार की नज़र से सुंदरवन डेल्टा की यात्रा कराते हैं उमेश कुमार रे। एक वैज्ञानिक दृष्टि से समझाते हैं नदियों के विशेषज्ञ दिनेश मिश्र। एक साहित्यकार की बहुआयामी चेतना उभर कर आती है अमिताव घोष के साक्षात्कार में। यहाँ संपादन का ख़ास ज़िक्र करूँगा कि इन लेखों को लड़ी में लगा कर अकादमिक आडंबर नहीं लाये गए। इनके मध्य चित्रों और कविताओं के माध्यम से रोचक पुल बनाए गए हैं।

 

कविताओं में सदानीरा पत्रिका की विशेषता रही है कि वे नियमित विश्व-साहित्य का सुंदर अनुवाद करते रहे हैं। इस विशेषांक की ख़ासियत है कि भारतीय भाषाओं के हस्तक्षेपों को उजागर किया गया है। यह देख कर हर्ष और आश्चर्य दोनों होता है कि इस विषय पर हिंदी-अंग्रेज़ी ही नहीं, उर्दू, असमिया, नेपाली, बांग्ला, कुमाऊँनी, छोटानागपुरी, राजस्थानी आदि भाषाओं में रचा जा रहा है। 

 

एक आदिवासी कवि को पढ़ना प्रकृति के प्रति वह दृष्टिकोण देता है, जो अन्यथा हमारी आँखों के सामने नहीं आते। पार्वती तिर्की की कविताएँ जब समझाती हैं कि आदिवासी चिड़ियों से संवाद करते हैं, बाघ और मनुष्य का गोत्र एक मानते हैं, यह कथित सभ्य समाज को ही आईना दिखाती है। ऐसी कविताओं में उन समस्याओं के हल दिखने लगते हैं जिनसे दुनिया जूझ रही है।

 

नदियों और जंगल के साथ प्रकृति का एक महत्वपूर्ण आयाम है पहाड़। हिमालय पर भाँति-भाँति के गद्य रचे जाते रहे हैं, लेकिन इस पत्रिका में एक सरस यात्रा है। अशोक पांडे पहाड़ी जीवन पर रोचक क़िस्सागोई के लिए जाने जाते हैं। यहाँ वह एक यात्रा पर ले जाते हैं, और एक अनूठे समुदाय से परिचय कराते हैं। इसमें एक कसे हुए वृत्तचित्र सा अनुभव होता है, और दृश्य इतने जीवंत हैं कि लगता है हम भी उस यात्रा में भागी हैं।

 

पत्रिका में सुमना रॉय की पुस्तक के एक अंश का अनुवाद है जिसकी पहली ही पंक्ति पाठक को बाँध देती है- ‘मैं पेड़ बन जाना चाहती थी, क्योंकि पेड़ ब्रा नहीं पहनते’। यह गद्य हमसे जुड़ता चला जाता है, क्योंकि इसके अनुभव हमारे अनुभव भी हैं। इसी कड़ी में एक उर्सुला गुईन के गद्य का अनुवाद है, जहाँ वह एक नए ढर्रे के गल्प की ओर इशारा करती है। जो लोग लिखने के लिए नये आइडिया तलाशते रहते हैं, उनके लिए यह सूत्र की तरह है। कुछ ऐसा रचना जो न पारंपरिक उपन्यास हो, न विज्ञान गल्प, न नॉन-फिक्शन, मगर कहता वही हो जो आज कहना जरूरी है।

 

एक बात इस पत्रिका में आरंभ से अंत तक दिखाई दी, कि यह भारतीय दृष्टि से एंथ्रोपोसीन का आकलन और विमर्श है। इसकी बनावट पाश्चात्य न होकर भारतीय सोच से है। हालाँकि इसका स्पष्टीकरण ‘प्रवेश’ आलेख में ही जे सुशील कर देते हैं। उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि प्रकृति को देखने की एक भारतीय दृष्टि पहले से मौजूद है, जो पश्चिम से अलग है। 

 

(यह समीक्षा डॉक्टर प्रवीण झा द्वारा लिखी गई है। प्रवीण झा लेखक,डॉक्टर हैं और नार्वे में रहते हैं।)

 

 

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