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कोई है, जो सुन रहा है

‘कितने कठघरे’ रजनी गुप्त की नवीनतम पुस्तक है। यह विचलित कर देने वाली पुस्तक है। वस्तुतः यह पुस्तक है ही नहीं, मार्मिक गुहार है। कोई है, जो सुन रहा है ? इसको पढ़ते-पढ़ते अपने निजी घावों के टांके खुलने लगते हैं। न जाने कितने चेहरे हैं जो न्याय मांगने हमारे सामने आ खड़े होते हैं - शंकर गुहा नियोगी, सोनी सोरी, डॉ. विनायक चटर्जी - और वह पत्रकार, जो स्वामी अग्निवेश की मध्यस्थता के आश्वासन पर बस्तर गया था, उसकी हत्या ? ये कुछ नाम हैं, हजारों ऐसे नाम होंगे जो अब याद नहीं।
कोई है, जो सुन रहा है

 

हमारे लोकतंत्र में बहुत कुछ ऐसा है जो सड़ गया है, भयंकर दुर्गन्ध से वातावरण दूषित कर रहा है और लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए आत्मघाती है।

 

समाज में सदैव से अपराध होते आए हैं और अपराधी को दंड भी मिलता है। कारावास की भी व्यवस्था है। लेकिन इस पूरी प्रणाली में न्याय की अपेक्षा रहती है, न्यायालय, वकील, पुलिस और जेल अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह सब सरकार के अधीन है। हमारी महान संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक सरकार। फिर क्यों क्षमता से दस गुना बंदी कारावास में जानवरों की तरह बंद हैं। अपराध के न्यायोचित दंड से कहीं अधिक वर्ष वह कारावास में काट चुके हैं और उन्हें न्यायालय में प्रस्तुत ही नहीं किया गया। जब दो हजार की क्षमता वाले कारावास में सत्रह हजार बंदी होंगे, तो कैसी स्वच्छता और कहां की स्वास्थ सुविधाएं? रात में बंदिनी को प्रसव हो जाती है - कोई चिकित्सा सुविधा नहीं है। एक शौचालय और उल्टी-दस्त से त्रस्त निढाल बंदिनी ! रजनी गुप्त की शोध के आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं। उनकी शोध महिला अपराधियों पर है। सच्चाई यह है कि वह केवल शक के आधार पर बंदी बना, जेल में डाल दी गई। अनेक महिला अपराधी केवल शक के आधार पर कठोर कारावास भुगत रही हैं। यथेष्ट साक्ष्य के अभाव में आरोप पत्र दाखिल ही नहीं हुआ। एक बार उन्हें कारावास में डाल ‘व्यवस्था’ उन्हें भूल ही गई। न उनसे कोई मिलने आता है, न कोई उनका हाल चाल जानना चाहता है। पुष्पा की सजा पूरी हो गई। पर जब तक कोई पुरुष अभिभावक उसे लेने नहीं आता, उसे मुक्त नहीं किया जाएगा। (पृष्ठ 95) वह पूरी सजा भुगत कर भी मुक्त नहीं है। वाह रे नियम! एक दोष हो तो बात करें, यहां तो पूरी प्रणाली ही दोषपूर्ण नजर आती है। वकील प्रतिपक्ष से जा मिलता है और पैसे ऐंठने की जुगत भिड़ाता है। अपराधी का नाम कुछ और है, पुलिस डॉ. खलील चिश्ती को पकड़ ले जाती है। अब कहीं कोई सुनवाई नहीं। ऐसे अनेक केस हैं। पर मुख्य धारा महिलाओं की अमानुषिक स्थिति है।

 

महिला बंदियों के साथ उनके छोटे-छोटे बच्चे भी हैं। वे भी कारावास में रहते हैं और दूध पीते बच्चे से दस-बारह साल के हो जाते हैं। इन बच्चों ने चांद - तारे नहीं देखे। नील गगन में उड़ते उन्मुक्त पक्षी नहीं देखे। वे बड़ी बिल्ली और छोटी बिल्ली देख कर ही खुश हो लेते हैं।

 

खेत में लाश पड़ी मिली और पुलीस साक्ष्य के आधार पर पांच-छह लोगों को पकड़ के ले जाती है। उन्हें आजीवन कारावास का दंड मिलता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक आवाज गूंजी, ‘मैं जिंद हूं, योर ऑनर, इन लोगों को छोड़ दिया जाए।’ इस तरह की भी घटनाएं अनेक हैं। ‘ऐसा तो होता ही रहता है।’

 

पत्रकारों पर झूठा मुकदमा चलाना और जेल में उनकी हत्या करा देना मामूली बात है। जो भी व्यक्ति आदिवासियों और किसी अन्य संघर्षरत व्यक्ति या दल के साथ खड़ा होता है, सरकार की नजर में आतंकवादी है। अगर वह राजनैतिक बंदी है तो उसे राजनैतिक बंदी वाली सुविधाएं क्यों नहीं दी जाती? 

 

पेशेवर अपराधी मजे में है, वह जेल के अंदर से अपराध जगत की कमान संभाले, हत्या, अपहरण और लूट को अंजाम दे रहे हैं । निरपराध बंदी की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। इस उपन्यास का ताना-बाना रत्ना नाम की बंदिनी और वाछां को लेकर बुना गया है। वस्तुतः वांछा रत्ना की पुत्रवधू बनने वाली है। वह वकील है, सामाजिक कायकर्ता भी। (स्वाभाविक है वह मंगेतर ईशान की माता के बारे में सब कुछ जानना चाहती है।) उसकी यही उत्कट अभिलाषा उसे महिला बंदियों के बारे में शोध करने पर विवश कर देती है।

 

यह पुस्तक साधारण पाठक को उद्वेलित करती है, छात्रों को प्रेरणा देती है और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करती है। यहां भी घोर अंधकार है, एक दीप बालो - आशा का, विश्वास का, निर्बाधित आलोक का।

 

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