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पुस्तक समीक्षाः मैंने जो जिया- 2

किशोरावस्था में ही अपने गीतों और कविताओं के माध्यम से अलग पहचान बनाने वाले, शताधिक पुस्त‍कों के...
पुस्तक समीक्षाः मैंने जो जिया- 2

किशोरावस्था में ही अपने गीतों और कविताओं के माध्यम से अलग पहचान बनाने वाले, शताधिक पुस्त‍कों के रचयिता रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत अचानक इतने बड़े रचनाकार नहीं बन जाते। इसके लिए कदम-कदम पर उन्होंने संघर्ष किया और रास्ते में आने वाली हर चुनौतियों का साहस से सामना किया। उनके अंदर जो जुझारूपन था उसका संकेत उनकी आत्म‍कथा के पहले भाग में दिखता है।  लेकिन दूसरा भाग पूरी तरह संघर्ष की कहानी कहता है। नौकरियों में उनके खिलाफ होने वाले षड्यंत्र, परिवार का विरोध, असहयोग, साहित्यकारों की खींचतान और गुटबाजी के बीच जीत दर्ज कराते हुए निकलना और निरंतर रचनात्माकता से भी जुड़े रहना उद्भ्रांत ही कर सकते थे। आत्मकथा का दूसरा भाग, किस राह से गुजरा हूं उनके संघर्ष की असली दास्तां है। वह जिस नौकरी में गए, वहां किसी न किसी तरह की विपरीत स्थितियां जरूर आईं। एक छोड़ दूसरी मिली तो उसमें भी कुछ न कुछ दिक्कत आई। पटना से कानपुर अपने गृह नगर आए तो यहां भी सहयोग नहीं मिला। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि उद्भ्रांत के अंदर का विद्रोही कवि कभी किसी भी स्थिति का सामना करने से कतराता नहीं है बल्कि पूरी ताकत से विरोध करता है। निरंतर आर्थिक संकट झेलते हुए भी गलत को गलत कहने का साहस वही कर सकते हैं। सच की लड़ाई के लिए वे सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं और वहां से जीत कर लौटते हैं। पहले खंड की तरह दूसरा भाग भी निरंतर उत्सुकता जगाता रहता है।

उनकी आत्मकथा पढ़ना शुरू करने पर रुकने का मन नहीं करता। हालांकि कुछ प्रकरण में लंबी-लंबी कविताएं और विवाह गीत आदि गद्य के प्रवाह में बाधा पहुंचाते हैं। अंग्रेजी में विभागीय पत्र व्यवहार अनावश्यक लगते हैं, जो आत्मकथा को बोझिल करते हैं। इनका मात्र संदर्भ ही पर्याप्त होता। इसी तरह कुछ अन्य प्रसंग भी अनावश्यक लगे जैसे, शुरू में ही बिड़ला मंदिर की धर्मशाला की घटना। इसी तरह पिता के होम्योयपैथी की दवा देने के प्रसंग में कुछ शब्दों के प्रयोग से बचा जा सकता था। लेकिन उद्भ्रांत ने पहले भाग में भी कुछ गोपन नहीं रखा तो इसमें कैसे रखते। उनका यह साहस ही है कि किसी भी बात को जो उनके मन में आई या जैसा उन्होंने अनुभव किया वैसा ही लिखा। उस पर किसी तरह का मुलम्मा नहीं चढ़ाया। यह स्पष्टवादिता ही उन्हें अलग तरह का रचनाकार बनाती है। वह छोटी-छोटी घटनाएं भी पूरी स्पष्टपता से लिखते हैं और ऐसा करते समय यह नहीं सोचते कि पढ़ने वाले बाद में उनके बारे में क्या‍ सोचेंगे। वह यदि अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं तो पूरे साहस के साथ हर बात कहते हैं। उसमें कहीं कोई बनावट नहीं है न ही अतिरंजना या मिथ्या कथाएं। उद्भ्रांत ने कहीं भी अपने भावों पर कोई पर्दा नहीं डाला चाहे वह परिवार में चल रहे तनाव हों या किसी के साथ उनकी रागात्मकता। आत्मकथा पढ़ कर मध्यर्गीय युवक को किन स्थितियों से गुजरना होता है, इसकी पूरी कहानी सामने आती है। अभी तक उन्होंने अपने जीवन के लगभग 40 वर्ष तक की कहानी बताई और उनके पास अभी भी बताने को बहुत कुछ है। उनका अभी लगभग आधे से अधिक जीवन सामने आना बाकी है। चूंकि इसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों को भी विस्तार से बताया गया है इसलिए आत्मकथा का आकार बड़ा होता जा रहा है। आत्मकथा पूरी होने में अभी कम से कम दो खंड और सामने आएं, तभी लोग उद्भ्रांत को समझ पाएंगे।

 

 

मैंने जो जिया-2  जिस राह से गुजरा हूं

अमन प्रकाशन

368 पृष्ठ

375 रुपये (पेपर बैक) 

 

समीक्षक : रामधनी द्विवेदी

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