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सत्ता गई, कवयित्री बची रही

बीसवीं सदी के शुरुआत में उभरी रूसी कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा का जीवन बहुत त्रासद रहा। वह एक कुलीन...
सत्ता गई, कवयित्री बची रही

बीसवीं सदी के शुरुआत में उभरी रूसी कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा का जीवन बहुत त्रासद रहा। वह एक कुलीन परिवार में जन्मी, भावावेग से भरी कवयित्री थी। उसके पति सेर्गेई अपने प्रारंभिक वर्षों में वाइट आर्मी में थे, यानी जार के साथ। बेशक, बरसों बाद उनके सोवियत सीक्रेट एजेंट होने की बात निकली, लेकिन जेल और यातनाएं तब भी उसकी जिंदगी में बने रहे। बहुत सारे निजी पारिवारिक कष्टों के बीच रूस की उथल-पुथल में मारीना का सब-कुछ नष्ट होता चला गया। वह करीब डेढ़ दशक रूस के बाहर रहने को मजबूर हुई। बरसों वह खाने को मोहताज रही। ऐसी भी नौबत आई कि किसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए उसे कपड़े मांगने पड़े। एक बार जूते फट जाने की वजह से वह एक कार्यक्रम में नहीं जा पाई। उसकी एक बेटी अनाथालय में भूख से मर गई।

यह हिला देने वाली कहानी किसी ऐसी कवयित्री की नहीं है, जिसे कोई न जानता हो। मारीना को मायाकोव्स्की जानते थे, पास्तरनाक और रिल्के उससे प्रेम करते थे, अन्ना अख्मातोवा उसकी दोस्त थी, ब्लोक और गोर्की उसके काम से परिचित थे। रूस और रूस के बाहर बहुत सारे लेखक उसके लेखन से खूब वाकिफ थे।

लेकिन रूसी क्रांति के बाद, खासकर स्टालिन के लंबे दौर में जिन लोगों ने रूस में साहित्य-संस्कृति के संरक्षण का बीड़ा उठाया था, वे अपने विचारधारात्मक आग्रहों के दबाव या फिर स्टालिन के आतंक की वजह से मारीना की मदद करने को तैयार नहीं हुए। बरसों बाद जब मारीना रूस लौटी तब उसके हालात बुरे होते चले गए और एक इतवार अवसाद और तनाव के बीच उसने खुदकुशी कर ली। मारीना को सोवियत सत्ता प्रतिष्ठान ने भुला देने की बरसों कोशिश की, लेकिन स्टालिन की मौत के बाद जब वहां व्यवस्था में कुछ लचीलापन लौटा तो सत्तर के दशक में मारीना का काम नए सिरे से प्रकाश में आया। 

यह सारी कहानी हिंदी की एक कवयित्री प्रतिभा कटियार ने लिखी है। हिंदी में इसके पहले मारीना त्स्वेतायेवा का काम वरयाम सिंह के अनुवाद में कुछ चिट्ठियां कुछ कविताएं  नाम से पहले आ चुका है। दरअसल प्रतिभा का मारीना से पहला परिचय इसी किताब के जरिए हुआ। लेकिन मारीना की कोई संपूर्ण जीवनी हिंदी में पहली बार लिखी गई है। खास बात यह है कि इस जीवनी में जितनी वस्तुनिष्ठता है उतनी ही आत्मनिष्ठता भी। प्रतिभा कटियार जैसे बीच-बीच में अपनी प्रिय कवयित्री से बतियाती चलती है। अलग-अलग अध्यायों के अंत में छोटी-छोटी ‘बुक मार्क’ जैसी टीपें पूरी किताब को आत्मीय स्पर्श ही नहीं देतीं, यह भी बताती हैं कि कैसे किसी दूसरे देश और दूसरी सदी की कवयित्री के साथ कोई लेखिका ऐसा सख्य भाव विकसित कर सकती है जिसमें वह बिलकुल उससे संवादरत हो, बारिश में उसके साथ चाय पीने की कल्पना करे और उसके दुख से दुखी हो। दरअसल किताब इसी संलग्नता से निकली है, इसलिए छूती है।

हालांकि किताब के कुछ अध्याय और बड़े होते तो अच्छा होता। खासकर रूसी क्रांति के समय की उथल-पुथल के बीच होने वाले सांस्कृतिक विस्थापन की विडंबना को और पकड़ने की जरूरत थी। किताब में प्रूफ और संपादन की असावधानियां भी खलती हैं। लेकिन ऐसे खलल के बावजूद यह हिंदी के समकालीन संसार की एक महत्वपूर्ण किताब है। हिंदी में ऐसी जीवनियां कम हैं। इसकी मार्फत एक विलक्षण कवयित्री के त्रासद जीवन पर और इस जीवन की मार्फत साहित्य और सत्ता के अंतर्संबंधों से बनने वाली विडंबना पर भी रोशनी पड़ती है।

समीक्षक ः प्रियदर्शन

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