यह काफी दिलचस्प है कि जिस मोदी सरकार ने उदारीकरण की मुहिम को तेज करने के लिए सबसे पहले नए बने भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की मुहिम शुरू की थी वह धीरे-धीरे खेती-किसानी के सवाल पर घिर गई है और चुनाव की बेला में उसी उपाय को ढूंढ़ने में लगी है जो कांग्रेसी ऋणमाफी के राजनैतिक दांव की काट बन सके। हर अध्ययन बता रहा है कि बीते बीसेक साल से खेती नुकसान का धंधा बन गई है। हर आदमी यह भी मान रहा है कि न किसानों की आत्महत्या कोई समाधान है, न ऋणमाफी।
ऐसे में भाजपा सांसद और नेहरू-गांधी परिवार के बागी धड़े के युवा सदस्य वरुण गांधी अगर ए रूरल मेनिफेस्टो जैसी भारी भरकम किताब लेकर ठीक उसी समय हाजिर होते हैं, जब किसानों का, गांवों का सवाल राजनीति के केंद्र में है तो उसका स्वागत होना चाहिए। इस संवेदनशील युवा नेता ने पहले अपनी तनख्वाह आत्महत्या करने वाले किसान परिवारों में बांटी, फिर सांसद निधि का धन किसानों की स्थिति सुधारने के छोटे-छोटे उपायों पर लगाया और बाद में स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से भी नई तरह की खेती, अनाज भंडारण और विपणन तथा जैव ऊर्जा के छोटे प्रयोगों पर जोर दिया। इसका असर उनके अपने संसदीय क्षेत्र के साथ उत्तर प्रदेश और बाहर के किसानों और नौजवानों पर पड़ा।
भाजपा किताब में सुझाए उपायों पर अमल करे तो उसे आगे किसानों और ग्रामीण समाज से कभी नाराजगी नहीं झेलनी पड़ेगी। इसमें एक भी कर्जमाफी वाला उपाय नहीं बताया गया है। यह एक गंभीर अध्ययन है जो खेती-किसानी संबंधी ज्यादातर पुराने अध्ययनों को देखने-पढ़ने के बाद कुछ उपाय सुझाता है, कुछ कमजोरियों को रेखांकित करता है और नजरिए के साथ कुछ नीतिगत बदलावों की वकालत करता है। यह गांधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को दोबारा आगे नहीं करता, न ही गांवों को अज्ञान और अंधविश्वास तथा भेदभाव का अखाड़ा मानता है। इसमें बड़े मजे से मनरेगा की उपलब्धियों को स्वीकार किया गया है तो आधुनिक तरीकों से खेती और पशु पालन की, भंडारण और विपणन की जरूरत बताई गई है।
वरुण की किताब की सबसे बड़ी विशेषता इसका समग्र नजरिया है। किताब में खेती-किसानी, ग्रामीण जीवन के हर पक्ष की नवीनतम जानकारी के साथ ही संसाधनों और क्षमताओं का भी आकलन है। आकलन में मानव श्रम, पशु ऊर्जा, पानी, मिट्टी और सूरज-धूप की ताकत की गणना भी है और उनके विकेंद्रित इस्तेमाल की वकालत भी है। इसमें जिस जगह पारंपरिक ज्ञान और अनुभव से काम चलना है उसे स्वीकार करने के साथ नवीनतम तकनीक से भी मदद का रास्ता सुझाया गया है। किताब में इसका भी हिसाब है कि कितना श्रम बर्बाद होता है, कितना उत्पाद अच्छे रख-रखाव के बिना नष्ट होता है, कितनी ऊर्जा (आम तौर पर बिजली और डीजल की) बेकार जाती है और उसकी जगह पशु या खेती की अतिरिक्त चीजों (पुआल, भूसा, छिलके) या गोबर गैस वगैरह से पाई जा सकती है या ये सुलभ हैं। इसी तरह सिंचाई में बड़े बांधों की जगह स्थानीय स्तर पर चल सकने वाली छोटी योजनाओं की वकालत की गई है।
किताब में गांवों को सिर्फ खेती-पशु-पालन, सिंचाई, श्रम, विपणन, रख-रखाव तक ही सीमित नहीं रहने दिया है। इसमें ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था, संरचनाओं, ऋण व्यवस्था के साथ हस्तशिल्पों और कृषि से जुड़े अन्य पेशों की भी चर्चा है, उनका मूल्यांकन है, उनमें कमी-बेशी बताने के साथ एक संतुलित जरूरत की चर्चा की गई है। इन क्षेत्रों में अभी जो योजनाएं चल रही हैं उनका वस्तुगत मूल्यांकन हुआ है। किताब पर युवा नेता ने काफी मेहनत की है। उन्होंने किसानों की समस्या के प्रति गंभीर दस्तावेज मुल्क के सामने रखा है। जब सारे नेता पढ़ने–लिखने और सोचने के काम से दूर हो रहे हैं, इन कामों में पेशेवर लोगों और एजेंसियों की सेवाएं लेने लगे हैं, वरुण गांधी गहराई की तरफ मुड़ते गए हैं।
 
                                                 
                             
                                                 
                                                 
                                                 
			 
                     
                    