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रविवारीय विशेषः सुधांशु गुप्त की कहानी स्माइल प्लीज!

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए सुधांशु गुप्त की...
रविवारीय विशेषः सुधांशु गुप्त की कहानी स्माइल प्लीज!

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए सुधांशु गुप्त की कहानी। मुस्कराहट की सहजता और सहज मुस्कान के बीच उलझे एक व्यक्ति की कहानी बताती है, कि तस्वीरों में भले ही मन की उलझन दिखाई न पड़ती हों, लेकिन उलझनें तस्वीरों को जरूर प्रभावित करती हैं।

स्माइल प्लीज और क्लिक के बीच न जाने कितनी सदियां बीत जाती हैं।

जो फोटो उसके पास आई, उसमें कुल जमा चार लोग थे। एकदम बायीं तरफ लगभग 65 वर्षीय एक शख्स थे। उनके गालों की लाली और चेहरे की रंगत देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह उम्रदराज हैं। उनकी मूंछें भी अच्छा खासा गुरूर लिए थीं। वह अनुवादक थे। अनेक भाषाओं की रचनाओं को हिन्दी में लाने का काम करते थे। इस तरह साहित्य से उनका गहरा रिश्ता था। वास्तव में साहित्यिक दुनिया में उनका खूब नाम था। लेकिन उनके चेहरे की मुस्कराहट आत्मसंतुष्टि की पराकाष्ठा दिखा रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह केवल तकनीकी काम ही कर रहे हैं और खूब सफल हैं। अन्यथा दुनिया भर की दिक्कतों को देखने, जानने और समझने-लिखने वाला व्यक्ति इतना खुश कैसे दीख सकता है!

उनकी बगल में ही एक 30-35 वर्ष की युवती थी। कंधे तक खुले हुए झूलते बाल, लहंगा और उसके ऊपर काले रंग की कमीज। कमीज पर आगे की ओर फूल पत्तियां बनी थीं। गले में एक माला भी झूल रही थीं। आंखों में शायराना रूमानियत थी। एकदम वाचाल किस्म की यह युवती हर समय और हर बात पर मुस्कराने की योग्यता रखती थी। लेकिन उसकी आंखों के नीचे इकट्ठा हो रहा कालापन बता रहा था कि वह अपने भीतर बहुत-सी उदासियों को भी समेटे हो सकती है। यह महिला शेरो-शायरी, कहानी लिखना और कार्यक्रमों का संचालन बखूबी किया करती थी। हर तरह के कार्यक्रमों का संचालन उसके बायें हाथ का खेल था। उसके चेहरे पर हर समय एक रहस्यमयी मुस्कान तैरती रहती। यह मुस्कान मोनालिसा की मुस्कान जैसी कतई नहीं थी। चार लोगों की तस्वीर के इस फ्रेम में वह पूरी तरह फिट थी। इस महिला के बराबर में ही एक शख्स की तस्वीर थी, जो काले रंग का कोट-पैंट पहने था। सफेद शर्ट और उस पर चैक की टाई, उसके व्यक्तित्व को एक मैनेजेरियल लुक दे रहे थे। लग रहा था कि वह किसी पत्रिका में संपादक या मैनेजमेंट का आदमी है। उसके चेहरे पर बहुत कुछ पा लेने का सुकून था। इस सुकून में कहीं कुछ ऐसे भाव भी थे, जैसे वह दुनिया को कितनी आसानी से बेवकूफ बना पा रहा है। फ्रेम में वह भी मिसफिट नहीं था।

...और चौथी तस्वीर उसकी थी। एक प्रौढ़ कहानीकार की। यही तस्वीर थी जो पूरे फ्रेम को खराब कर रही थी। हालांकि उसने ब्लैक पेंट और व्हाइट कलर की शर्ट पहनी हुई थी। उसके ऊपर हाफ बाजू का स्वेटर था। रंगों के संयोजन में कहीं कोई गड़बड़ नहीं थी। लेकिन उसके चेहरे पर मुस्कराहट का नामोनिशान नहीं था। अंदर ठंड से बचने के लिए उसने इनर भी पहना हुआ था। बाल पता नहीं क्यों अजीब ढंग से बिखरे पड़े थे। जब फोटो क्लिक करने वाले ने ‘स्माइल प्लीज़’ कहा था तो उसके होंठ मुस्कराने की कोशिश में कुछ इस तरह टेढ़े हो गए थे कि एक तरफ का हिस्सा कुछ ऊपर उठ गया था। ऐसा लग रहा था कि इस तरफ से कोई सुरंग सी भीतर जाती है। माथे पर तीन लकीरें उभर आई थीं। न जाने कब से उसकी पेशानी पर ये तीन लकीरें बनी हुई हैं। अब तो ऐसा लगता है मानो ये तीन रेखाएं स्थायी भाव ले चुकी हैं।

उसने तस्वीर को बार-बार देखा। उसका मन एकदम खराब हो गया। वह सोचने लगा कि आखिर उसकी तस्वीर ही इतनी खराब क्यों आती है। बाकी सब लोग तो तस्वीरों में हंसते-बोलते दिखाई पड़ते हैं। क्या ये सब लोग सचमुच इतने खुशहाल है, जितने तस्वीरों में दिखाई दे रहे हैं या ये इतने अच्छे अभिनेता हैं कि तस्वीर खिंचवाते समय ‘स्माइल प्लीज़’ सुनते ही इनके चेहरों पर स्माइल आ चिपकती है। उसने बहुत से हिन्दी, क्षेत्रीय भाषाओं और विदेशी साहित्यकारों की तस्वीरें देखी हैं। कभी उसे किसी के चेहरे पर इतनी मुस्कराहट दिखाई नहीं पड़ी। आखिर जो निजी और सामाजिक समस्याओं से दिन-रात घिरा हो, वह कैसे इस तरह किसी के भी “स्माइल प्लीज़” कहने पर हंस सकता है। लेखन को कभी उसने इतना खुशहाल नहीं देखा। लेखकों को हर समय इस तरह मुस्कराना नहीं चाहिए। इस तस्वीर को देखकर उसके मन में आया यह एक विचार था। उसके चेहरे पर गंभीरता, परेशानियां और दुखों की छाया जरूर दिखाई देनी चाहिए। चाहे ये छायाएं निजी हों या सामाजिक।

तस्वीर को देखकर इसी के समानांतर एक दूसरा विचार भी उसके मन में आया था। वह यह कि उसकी तस्वीर भी अच्छी आनी चाहिए। यह क्या बात हुई कि आप हमेशा ही मुंह लटकाए रहें। हमेशा आपकी पेशानी पर निजी या समाज की चिंताएं चिपकी रहें। आपको सहज भी तो रहना आना चाहिए। वह लगातार सोच रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह सहज नहीं है। उसे अपने भीतर सहजता लानी ही होगी। आज के दौर में मुस्कराए बिना काम नहीं चलेगा। आप “क्या सोचते हैं” से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि “आप कैसे दिखते हैं।” उसे याद है कि एक बार किसी राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष की फोटो प्रचार सामग्री पर इसलिए इस्तेमाल नहीं की गई थी कि उनका चेहरा फोटोजनिक नहीं था। पार्टी का अध्यक्ष होने से भी ज्यादा अहम था, उसका सुंदर दिखना। एक बार किसी दार्शनिक ने यह भी कहा था कि यह देखने का दौर है। अब अगर आपकी कोई रचना कहीं छपती है तो लोग कहते हैं, पत्रिका में आपकी रचना देखी। पढ़ने से सरोकार शायद कम होते जा रहे हैं। देखना और दिखना महत्वपूर्ण हो गया है। तो इस तस्वीर ने उसके मन में यह भाव पैदा किया कि उसकी तस्वीर भी सुंदर आनी चाहिए। उसे भी ‘दर्शनीय’ होना चाहिए।

लेकिन कैसे? वह सोचने लगा, क्या वह हमेशा से ही ऐसा है। क्या उसकी पेशानी पर हमेशा से ही बल पड़े हुए हैं। लेकिन उसके पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है। शायद उसकी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों ने उसके चेहरे को ऐसा बना दिया है। या यह भी संभव है कि समाज में रोज होने वाली घटनाएं ही उसे मुस्कराने से रोकती हों। वरना कौन है जो हंसना नहीं चाहता! लेकिन कम से एक एक बार तो उसका फोटो अच्छा आना ही चाहिए। चाहे इसके लिए उसे अभ्यास ही क्यों न करना पड़े।

“मैं जरा बाहर जा रही हूं, दवाई लेने, कुंडी लगा लो।” यह कहकर पत्नी बाहर निकल गई।

उसने उठकर कुंडी लगा ली है। अब वह घर में एकदम अकेला है। अब वह शीशे के सामने खड़े होकर यह नोट कर सकता है कि उसके चेहरे की मुस्कराहट कहां गुम हो गई है। अचानक वह उठा और आदमकद शीशे के सामने जाकर खड़ा हो गया। उसने बड़े ध्यान से खुद को देखा। चेहरे पर कहीं कुछ ऐसा नहीं है, जिसे अजीब कहा जा सके। सिर पर घने बाल हैं, बीच के बाल थोड़े सफेद हो गए हैं, पर न होने से तो अच्छा ही है। चश्मे के पीछे से उसकी आंखों में बेशक नीला या हरापन न हो लेकिन वे काली हैं। उनके ऊपर घनी भवें हैं और देखने वालों को बुरी नहीं लगती होंगी। उसने अपने माथे को ध्यान से देखा। उस पर वे तीन लकीरें ज्यों की त्यों हैं। मानो जन्म से ही उन्होंने पेशानी पर अपना अधिकार जमा लिया हो। लेकिन होंठ थोड़े काले हैं। उसने अपने आप से कहा, ‘स्माइल प्लीज़’। उसने शीशे के उस ओर देखा। सामने वाला व्यक्ति हंसने की कोशिश कर रहा है। और इस कोशिश में उसका पूरा चेहरा विद्रूप हो गया है। उसने एकदम गंभीरता अख्तिय़ार कर ली। बल्कि माथे पर थोड़ी त्योरियां और चढ़ा ली हैं। उसने सोचा कि मुस्कराने का ढोंग क्यों किया जाए, बिना मुस्कराहट के भी तो तस्वीर अच्छी आ सकती है। और यह भी क्या जरूरी है कि मुस्कराते समय दांत दिखाई ही दें। आप होंठों ही होंठों में भी तो मुस्कराने की कोशिश कर सकते हैं। उसने ऐसी ही कोशिश की। हां, अब ठीक लग रहा है। अपनी एक तस्वीर इसी तरह की खिंचवाई जाए। एकदम सहज, मुस्कराहट सिर्फ होंठों से दिखाई दे। दांत दिखाई नहीं देने चाहिए। फिर वह अचानक जोर-जोर से हंसने लगा। उसने देखा हंसी के इन ठहाकों के बीच भी उसके माथे पर लकीरें हैं। वह चुप हो गया। फिर उसने न जाने कितनी देर तक इसी तरह मुंह बना-बना कर हंसने का रियाज़ किया। अगर इस समय कोई उसे देखता तो निश्चित ही पागल समझता। शुक्र है घर में कोई नहीं है।

हंसने का उसका यह रियाज़ कई दिनों तक चलता रहा। और रियाज़ निपुणता तो लाता ही है। उसने पाया कि अब उसके चहरे पर हंसते समय भी थोड़ी सहजता रहती है। वह उतना बुरा नहीं लगता। हंसने का उसने एक और तरीका रियाज़ के दौरान ही खोज लिया। वह होंठों के बजाय आंखों में हंसने लगा। कुछ दिनों में ही शीशे के सामने की अपनी तस्वीर उसे भली लगने लगी।

अब ठीक है। अब वह भी ऐसी तस्वीर खिंचवाएगा, जिसमें वह मिसफिट नहीं होगा। वह भी और लोगों की तरह ही दिखेगा। उसके चेहरे पर भी मुस्कान होगी। वह भी खुशहाल-सा लगेगा। शीशे से अलग हटकर वह हल्का-सा मुस्कराया। धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास बढ़ता चला गया।

उसने अच्छे कपड़े पहने, सलीके से बाल संवारे, चेहरे पर क्रीम लगाई और सैनिक की तरह चलता हुआ एक फोटो स्टूडियो में पहुंच गया। बाहर रिसेप्शन पर पैसे देने के बाद वह भीतर डार्क रूम में पहुंच गया। फोटोग्राफर ने कैमरा पहले से ही तैयार रखा हुआ था। उसे एक बेंचनुमा सोफे पर बिठाया गया। इस बेंच में पीछे सहारा लेने के लिए कुछ नहीं था। आप अलर्ट होकर ही बैठ सकते थे।

“एकदम सीधा बैठो, कमर झुकाकर नहीं”, फोटोग्राफर ने कहा।

वह फोटोग्राफर के आदेशानुसार वैसे ही बैठ गया। उसने अपनी गर्दन को भी बिना कहे सीधा कर लिया। लेकिन फोटोग्राफर उसके पास आया और दोनों हाथों में उसकी गर्दन लेकर बोला, “गर्दन एक तरफ मत झुकाओ, सीधी रखो।”

उसने कोशिश की कि गर्दन सीधी रहे। पर पता नहीं क्यों उसकी गर्दन एक तरफ को ढुलक ही जाती है। अब तक सब ठीक चल रहा था। उसे लग रहा था कि सब कुछ ठीकठाक ही निबट जाएगा। कमाल की बात यह थी कि वह शीशे के सामने किए गए अभ्यास की सारी बातें भूल चुका था। वह लगातार कोशिश कर रहा था कि सहज रहे।

तभी फोटोग्राफर ने कहा, ‘स्माइल प्लीज़’....

उसे अचानक सब कुछ याद आ गया। वह सोचने लगा कि अपने चेहरे पर स्माइल कैसे लाए। उसे शीशे के सामने किए सारे रियाज़ याद आ गए। उसने ईमानदारी से कोशिश भी की कि उसके चेहेरे पर स्माइल आ जाए...उसने तरह-तरह से होंठों को घुमा कर देखा। उसे यह भी याद आया कि उस तस्वीर में वह अन्य लोगों से कितना भद्दा लग रहा था। कैसे उसके होंठ मुस्कराने की कोशिश में एक तरफ को ऊपर उठ गए थे। ऐसा लग रहा था कि उस तरफ को कोई गुफा बनी हुई है। उसने यह भी कोशिश की कि होंठों की बजाय आंखों से ही हंसा जाए। लेकिन जैसे- जैसे वह यह कोशिशें करता गया, उसके चेहरे पर तनाव बढ़ता गया। उसने अपने माथे पर हाथ फेर कर देखा तो उसे यह भी अहसास हुआ कि उसकी पेशानी पर काफी बल पड़ चुके हैं। उसने फोटोग्राफर की तरफ देखा, लेकिन उसका चेहरा कैमरे के पीछे छिपा हुआ था। वह शायद फोकस करने की कोशिश कर रहा था। समय था कि बीत ही नहीं रहा था। वह सोच रहा था कि ‘स्माइल प्लीज़’ की आवाज उसे एक बार और सुनाई देगी और उसके चेहरे का तनाव बढ़ जाएगा। लेकिन किया क्या जा सकता है। अब तो वह स्टूडियो में आ ही गया है। यहां से भागकर जाया नहीं जा सकता। अब क्या किया जाए। वह नहीं चाहता कि इस बार उसकी फोटो खराब आए। वह हर हाल में मुस्कराने वाली फोटो खिंचवाना चाहता है। पता नहीं यह फोटोग्राफर क्लिक करने में इतनी देर क्यों लगा रहा है। यह जितनी देर लगाएगा उसकी फोटो उतनी ही खराब आएगी। वह सोच में डूब गया। उसकी आंखों के सामने वही फोटो तैरने लगी जिसमें चार लोग थे। वह उस तस्वीर में कितना मिसफिट लग रहा था। कहीं ऐसा न हो कि इस बार की तस्वीर पहले तस्वीर से भी खराब आए। वह सोचता रहा...सोचता रहा। क्लिक की आवाज उसे सुनाई नहीं दी। उसने सोचा कि यह फोटोग्राफर भी नहीं चाहता होगा कि उसकी तस्वीर अच्छी आए। तभी इतना समय लगा रहा है। पता नहीं कितना समय ऐसे गुजरा होगा। और...तभी अचानक उसके कानों में आवाज आई, ‘स्माइल प्लीज़’...

उसने एक पल सोचा और स्टूडियो से उठकर बाहर निकल आया। उसने पाया कि अब वह सहज रूप से हंस सकता है।

सुधांशु गुप्त

30 साल तक पत्रकारिता करने के बाद अब पूरी तरह लेखन में रम गए गुप्त की कहानियां सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नया ज्ञानोदय, नवनीत, कादम्बिनी, दशकारंभ, क्रांतिधर्मी, दैनिक हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, दिनमान टाइम्स, जनसत्ता, हरिभूमि, जनसंदेश, जनवाणी आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। रेडियो से अनेक कहानियां प्रसारित। खाली कॉफी हाउस, उसके साथ चाय का आख़िरी कप और स्माइल प्लीज़ कहानी संग्रह प्रकाशित।

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