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रविवारीय विशेष: अंजू शर्मा की कहानी बोनसाई में बदलती लड़की

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए अंजू शर्मा की कहानी।...
रविवारीय विशेष: अंजू शर्मा की कहानी बोनसाई में बदलती लड़की

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए अंजू शर्मा की कहानी। यह कहानी एक ऐसे वृद्ध की कहानी है, जिसके जीवन में अकेलापन भी उसकी ताकत है। आर्थिक तंगी भी उसे अवसाद नहीं देती। यह कहानी एकालाप की तरह चलती है, लेकिन कई पहलूओं को दर्शाती है, जिसमें मानवीय संबंधों के जटिल और बारीक रेशे हैं, जो अंत में एक सकारात्मकता के दरवाजे को खोलने के लिए दस्तक देते हैं।

“अभी किराया आने में पूरे पांच दिन बाकी हैं और साली ये शक्कर भी खत्म हो गई! ये कपूर टाइम से किराया दे दे इस बार तो ठीक  वरना कह दूंगा,  कोई और घर ढूंढ लो!”  मैंने झुंझलाते हुए शक्कर का डिब्बा किचन स्लैब पर पटका, फीकी कॉफी बनाई और मग लेकर बालकनी में रखी आरामकुर्सी में धंस गया!  आज नवम्बर महीने की 26 तारीख और पहली तारीख आने में बाकी हैं पांच दिन!  उफ़, और मैं जानता हूं ये स्साला, मक्कार कपूर.... बिना तक़ाज़ा किए किराया देगा ही नहीं चाहे हफ्ता ऊपर क्यों न हो जाए! पर तक़ाज़ा करने के लिए भी पांच दिन सब्र करना होगा!

तक़ाज़ा करने पर खीसे नपोरेगा, “हें हें हें... ओ बाऊजी, देता हूं न शाम को....  मैं कहां भागे जा रहा हूँ जी?” ये हर महीने का किस्सा था! अकेले बुजुर्ग को परेशान करना इस कपूर का फेवरेट पासटाइम था! अभी मैं मन ही मन कपूर को कोस ही रहा था कि वो आ गई!

वो... यानि सामने के घर की छत पर बने उस कमरे में रहने वाली नई ब्याहता बहू! अभी पिछले हफ्ते ही तो शादी हुई थी! अब आप कहेंगे उसमें मेरी भला क्या दिलचस्पी है! अब मैं ठहरा छड़ा-छांट, मुझे क्या लेना देना जी किसी से!  असल में सामने वीरान पड़ी छत पर ये हलचल पहली बार हुई है! खास कोई बात नहीं बस मेरी बोरियत की दीवार पर किसी रंगीन दिलचस्प पेंटिंग की तरह टंग गई है वो!

मैंने कुर्सी का मुंह साइड की ओर कर लिया, अखबार उठाया और मुंह के आगे कर लिया! अब ठीक है, अब जाहिर तौर मैं उसे तो बिल्कुल नहीं देख रहा!  जवान-जहान लड़की है, उस पर बला की खूबसूरत! अब मेरा तो हमेशा से इसी बालकनी में ठिकाना है! बरसों की आदत है जी! अगलों को ऐतराज न होने लगे कि सामने नई बहू घूमती है और बुड्ढा ताड़ता रहता है! मुझे क्या करना है!  फिर मेरी बेटी से कुछ साल छोटी ही होगी! आज सुधा जिंदा होती तो किसी को क्या ऐतराज हो सकता था! और होता है तो हुआ करे, विधुर हूं तो क्या, मैं दूसरों के लिए अपनी रूटीन थोड़े ही बदल दूंगा! इसके बाद मेरी आंखें अखबार की सुर्खी पीने लगी, होंठ कॉफी सुड़कने लगे और वो अपनी बालकनी के मनीप्लांट संवारने लगी!

सुधा को गए पांच साल हो गए! दो साल पहले मैं रिटायर हुआ! मुझसे दो वर्ष ही तो छोटी थी! आज होती तो साठ साल की हो गई होती! ये छोटा-सा मकान सुधा ने ही बनवाया था लड़-झगड़कर! मैं ठहरा फक्कड़ आदमी, कायदे से न नौकरी कर पाया न लेखन! उसने कहा नहीं पर मैं जानता हूं, सुधा जब तक रही, मुझसे परेशान ही रही! पचास गज के इस छोटे से मकान में नीचे एक दो कमरों का सेट है जहां मैं, सुधा और बच्चों के साथ रहता था! ऊपर छत पर एक कमरे-रसोई का सेट है जो बेटे-बहू के लिए बनवाया था सुधा ने! इसमें अब मैं रहता हूं और नीचे का मकान उस मक्कार कपूर को किराए पर दिया है जिससे मेरी गुज़र खींचतान कर हो ही जाती है! सरकारी नौकर रहा होता तो पेंशन भी आती! खैर....!

ये मकान और सुपर्णा की शादी में मेरा प्रोविडेंड फ़ंड, ग्रेच्युटी और उसकी वर्षों से संचित जमा-पूंजी सब खतम हो गई! मैं बताना भूल गया! दो बच्चे हैं हमारे, सुपर्णा मेरी बेटी है और सुयश बेटा! उसी साल सुधा चली गई, जैसे यही उसके जीने का मक़सद था! बच्चों से भी कहां राब्ता रख पाया! दोनों विदेश में बसे हैं! बेटे ने वहीं विदेशी लड़की से शादी कर ली! आते हैं दो-तीन साल में सैलानियों की तरह! कहते हैं दोनों मदद करने को पर मुझ अकेली जान को क्या चाहिए!

 “अंधेरा हो गया, जरा लाइट जला दूं!”  

ये सुबह की ठंड छाती में बैठ गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे! ऊपर का कमरा है न, सर्दी-गर्मी कुछ ज्यादा ही असर करती है! अब ये शाल जाने कहां रखकर भूल गया हूं! सुधा थी तो मौसम बदलने से पहले ही कपड़े निकालकर धूप लगा देती थी! मैं तो हर साल भूल जाता हूं! जब तबीयत बिगड़ती है तो याद आता है! इतने सालों में भी सुधा के बिना जीने की आदत नहीं डाल पाया और जब वो थी तो रोज झगड़ने से फुर्सत कहां रहती थी!

लीजिए मिल गई जी शाल! सन्दूक में ही तो थी और इतनी देर से हलकान हुए जा रहा था! शाल लेकर नुक्कड़ की दुकान से थैली का दूध लिया, शक्कर ली, सिगरेट का पैकेट चुक गया था वो भी लिया! हम्म....अब ठीक है कुछ भूला तो नहीं! दरवाजा खोलते ही सामने कपूर की बीवी पड़ गई! मैं नजरे झुकाकर सीढ़ियां चढ़ आया! ये साला बुड्ढा विधुर होना मतलब घोषित लम्पट होना क्यों होता है दुनिया के लिए!

गरम कॉफी की बड़ी जरूरत महसूस हो रही थी! कॉफी का मग लेकर आरामकुरसी में बैठा तो वो छत पर कपड़े सुखा रही थी! अखबार की आड़ से आज पहली बार उसे ध्यान से देखा, दरम्याना कद,  सिंदूरी रंगत,  कमर तक झूलते लंबे, गीले बाल जिनसे अभी भी पानी टपक रहा था! पंजाबी स्टाइल का सूट पहने थी और हाथ में सुर्ख लाल चूड़ा था जो कोहनी से कुछ नीचे तक भरा हुआ था! उसके चेहरे पर विमान परिचारिका-सी मुस्कान चस्पा था और अपने ही में मस्त शायद वह कुछ गुनगुना रही थी जिसमें उसकी पायल की छमछम मानो ताल दे रही थी! 

मेरा मन अतीत के गलियारों में टहलने लगा! जिन दिनों हमारी नई-नई शादी हुई थी, सुधा भी यूं खुश-खुश रहा करती थी! अपने आप में सिमटती, लजाती, खुद ब खुद कुछ याद कर मुस्कुराती! पर वो तो हमारे समय की बात थी न!  मैं नहीं समझता था, लड़कियां आज भी ऐसे शर्माती हैं! शायद ज़माना इतना भी नहीं बदला! जीवन में प्रेम की आमद आज भी चेहरे को उतना ही गुलाबी उतना ही खुशदिल बना देती है! मैं मन ही मन उसे असीसने लगा! उसकी मुस्कान के चिरस्थाई हो जाने की कामना करने लगा!

इधर बड़े दिन हुए कुछ नया लिखे! आज फिर से मन किया तो एक अधूरी कहानी को पूरा करने के लिए टेबल पर बैठ गया! यूं भी क्या फर्क पड़ता है, लिखूं न लिखूं! न किसी बड़े पद को हासिल कर पाया, न रुतबे को! अपने पैसे से जो किताबें छपवाई, वो भी आई गई हो गईं! किसी ने ढंग से समीक्षा के दो शब्द तक न लिखे, आलोचक तो खैर उस पर क्या बात करते! फोन और खत तो खूब आयें हैं दूर-दराज़ के पाठकों के, पर इस छोटे-से कस्बे में एक लेखक रहता है साहित्यिक जगत में जो इसकी सुध किसी को नहीं! 

अब तो लोग भी भूलने लगे हैं कि दिवाकर नमित नाम का कोई लेखक भी हुआ करता था जो रोमांच रहस्य से भरपूर कहानियां लिखने के लिए जाना जाता था! ये मेरा साहित्यिक नाम है, कागजों में असली नाम तो दिवाकर माथुर है! जवानी के दिनों में खूब लिखा, सुधा से खूब झगड़ा रहता था मेरे लिखने को लेकर! उसे लगता था सब बेकार की कवायद है, दो पैसे न बने जिससे वो भी कोई काम हुआ! कैसे समझाता, मैं पैसे के लिए नहीं लिखता, इसलिए लिखता हूं कि मन में चल रहे इस झंझावात से मुक्त हो सकूं तो हर समय चला करता है! पर क्या मैं मुक्त हो पाया कभी, ये उमड़-घुमड़ आज भी वैसे ही मथती रहती है बस सुधा ही मुक्त हो गई मुझसे और गृहस्थी के तमाम झंझटों से, तमाम झिकझिक से! सुधा के जाने के बाद मेरी कलम भी ख़ासी सुस्त हो गई है!  अब तो लगता है जैसे उसकी झिकझिक ही मेरी कलम की स्याही थी!

सिगरेट सुलगाई ही थी कि सामने ज़ोर से आवाज़ आई, उसकी सास ने पुकारा, मीनाsssss...!!! हाँ, यही तो नाम पुकारा! कमरे से निकलकर वो अभी नीचे गई है!  आज उसके कमरे की बड़ी सी खिड़की खुली है! पर्दा भी हटा हुआ है, शायद गलती से रह गया होगा! अब मेरे भीतर का लेखक जाग उठा! मैं बड़े गौर से चश्में को चुस्त कर देखने लगा! खिड़की से कमरे का जो हिस्सा दिख रहा है, बताता हूं आपको! अंदर बड़ा-सा किंगसाइज़ डबलबैड है जिसके एक साइड-टेबल पर एक खूबसूरत-सा फ्रेम रखा है! कमरे के कोने में कॉर्नर टेबल पर एक बोनसाई रखा है! बैड के तकिये पर लाल रंग का बक्सा-सा रखा है! नहीं, बक्सा नहीं, कोई अल्बम-सी लग रही हैं! हूँ....शादी की अल्बम होगी! मतलब कुछ देर पहले यही देख रही होगी कि पुकार पड़ने पर छोडकर चली गई!

मेरा ध्यान अब फ्रेम पर था, थोड़ा आगे जाकर देखा तो उसमें तस्वीर है शायद उसके उसके पति की होगी! अब मैं तो पड़ोस और दुनियादारी निभाता नहीं सो किसकी पत्नी है मालूम नहीं था और इतनी दूर से सूझता भी तो नहीं कि तस्वीर किसकी है!

कुछ देर बाद नीचे से वो आई और पीछे-पीछे उसका पति भी चला आया! उसे देखते ही मैं सोच में डूब गया! अब आप सोच रहे होंगे कि मैं उन पति-पत्नी में कोई कहानी तलाश रहा हूं! नहीं जनाब, बात दरअसल यूं है कि देखते ही लगा इस लड़के को कहीं तो देखा है, बस याददाश्त कमबख्त साथ नहीं दे रही! अब बुढ़ापे में सिर्फ बीवी ही साथ नहीं छोड़ जाती, अच्छी सेहत ओर याददाश्त भी चली जाती है!

कहां देखा था....कहीं तो देखा था....बस याद नहीं आ रहा...

दो दिन बाद सुबह पार्क से सैर कर लौट रहा था! सुबह जल्दी उठने की आदत तो अब भी बनी हुई है, कभी कभी पार्क चला जाता हूं! पुराने साथियों से मेल-मुलाक़ात हो जाती है! राजनीतिक बहसों का आनंद लेता हूं, तो सोचता हूं शुक्र है ये लेखन ही है जिसने भेड़ बनने से बचाया हुआ है ये नहीं कि मुंह उठाकर चल दो किसी के भी पीछे! विचारशीलता इतनी अविवेकी कभी नहीं होती! उनके बहू-बेटों की चुगलियां सुन लेता हूं और सराह लेता हूं अपने भाग्य को कि चलो इन झंझटों से मुक्त हूं! दूर से ही सही प्यार बना हुआ है! बाकी अकेलेपन का तो ऐसा है जी, मैं तो अपनी ही दुनिया में रहने वाला जीव हूं, भीड़ में अकेला हो ही जाता हूं! अकेलापन नियति नहीं फितरत है मेरी! कुल मिलाकर ये कि अपनी सकारात्मकता का सिरा कसकर थामे हुए हूँ वरना इस पहाड़ सी जिन्दगी को अकेले काटना दूभर हो जाएगा!

हां तो मैं पार्क में आज देर हो गई तो लौटते हुए बहुत थक गया था और उस दिन एक आर्टिकल का चेक मिला था तो मेरी जेब को उन दो हज़ार रुपयों ने बड़ी तसल्ली दे दी थी! रास्ते से कुछ सब्जियां और किराने से कुछ जरूरी सामान लेकर मैं बस स्टॉप तक चला आया! अब कपूर के किराये की प्रतीक्षा इतनी बेचैनी भरी नहीं होगी! बस स्टॉप पर किसी रिक्शे की तलाश में इधर उधर देख रहा था!  सिर पर धूप आ गई थी जिसका तेज मेरे माइग्रेन को निमन्त्रण देता प्रतीत होता था! रिक्शा नहीं मिला तो मैं थोड़ा आगे नुक्कड़ तक चला आया जहां अक्सर रिक्शे खड़े मिलते हैं! अभी रिक्शा दिखा ही था कि मेरी नजर सामने के स्टॉप पर चली गई! चश्में को ठीक करके देखा! हां वही था....और साथ में वही अक्सर दिखने वाली लड़की थी! याददाश्त जिसका एक सिरा कहीं अटका था आज मुक्त हो गई थी और ठीक जाकर बैठी उसके चेहरे पर जो कई बार उस लड़की के साथ दिखा था! ये लड़का वही था सामने की छत वाला जो सुना है कुछ दिन पहले ही पूना से यहाँ आया था! और ये लड़की तो निश्चित तौर पर मीना नहीं है! तो कौन है ये लड़की और इस लड़के के साथ?

मैंने खुद को धिक्कारा कि लानत है दिवाकर, अभी तो अपनी ही प्रगतिशीलता के कसीदे पढकर मियां मिट्ठू बन रहा था और अभी एक लड़के के साथ एक लड़की को देखकर काइयां बुजुर्ग बन गया हूं उनके बीच रिश्ता सूंघ रहा हूं! इस धिक्कार के बावजूद मेरा अनुभवी मन ये मानने को तैयार नहीं हुआ कि जो मैं देख रहा हूं वह दरअसल कोई सामान्य सा दृश्य है! वह उसकी दोस्त, कलीग या रिश्तेदार भी तो हो सकती है! तभी सामने एक रिक्शा दिखा तो मैंने आवाज़ लगाई! अब रिक्शे पर मैं, मेरा सामान और मेरा वह विचार सवार हो चुका था कि कुछ तो गड़बड़ जरुर है!

आगे कुछ दिन उन दोनों को फिर छत पर देखा था तो पहली बारिश में सड़क पर पड़ी मिट्टी की तरह बह गया मेरा वह विचार! अच्छा ही लगा! मैं कोई खडूस बुड्ढा नहीं कि कयास ही लगाता हूं कि वो कौन थी! पर अगले ही रोज फिर मैंने उन दोनों मतलब उस सामने वाले लड़के और बस स्टॉप वाली लड़की को देखा! इस बार बस स्टॉप पर बतियाते नहीं बल्कि पार्क में एक कोने में एक दूसरे का हाथ थामे प्यार भरी नजरों से ताकते हुए बतियाते हुए, प्रेमालाप करते हुए ठीक दो युवा प्रेमियों की तरह! मन में फिर एक द्वंद्व शुरू हो गया! इस बार मेरा शक वाला वाला हिस्सा मेरी सोच पर काबिज़ होकर मेरे उस सकारात्मक हिस्से को ललकार रहा था जो उस दिन मुझे लानतें भेज रहा था!  सब कुछ अगर काला नहीं तो पूरा सफेद भी नहीं होता! 

मैंने उन दोनों हिस्सों को आपस में लड़ने दिया और थके कदमों से घर लौट आया! दिल की बात बताऊं इतना भी निर्लिप्त नहीं मैं कि सब सोचना छोड़ दूं! मुझे रह-रहकर मीना का ख्याल आता था! इतने दिनों में उससे अबोले ही एक विचित्र सा अपनापा कायम हो गया था! घर लौटकर भी मन उसी सब में उलझा रहा! सामने देखा तो वो वैसे ही गुनगुनाते हुए सामने छत पर कपड़े सुखा रही थी और उसका चिरपरिचित मुस्कान से सजा खुशदिल चेहरा मुझे परेशान कर रहा था!

अगला पूरा दिन और पूरी रात मेरी बेचैनी बनी रही! मेरे भीतर का लेखक अंगड़ाई ले रहा था हालांकि इस पूरी कहानी में मेरा क्या रोल हो सकता है इसे लेकर मैं कुछ नहीं निश्चित कर पा रहा था! कुछ भी तो नहीं! मैं क्या कर सकता था इसे लेकर मैंने बार बार सोचा पर हर बार मेरे भीतर का रिटायर्ड बुजुर्ग हाथ बांधे विवश नजरों से मेरे भीतर के लेखक के सामने आ खड़ा होता!  उसकी प्रश्नाकुल निगाहें मेरे भीतर के लेखक को कचोट रही थी पर वे दोनों विवश थे! अगले दिन सुबह शाल ओढ़कर जब मैं बालकनी में बैठा तो उसे देख नहीं पा रहा था! उसके लिए मेरा होना न होना कोई मायने नहीं रखता था और इधर मैं था कि उससे नजरें न मिला पाने की विवशता में लिथड़ा हुआ था कि मैं कुछ नहीं कर सकता न एक बुजुर्ग के तौर पर, न एक पड़ोसी के तौर पर और न ही उसके किसी शुभचिंतक के तौर पर! 

एकाएक मेरी कल्पना के अगले दृश्य में उसके पति की बेवफाई उसके कोट पर गिरे एक बाल की तरह उभरने लगी जो किसी भी तरह मीना के बालों से मेल नहीं खाता था! उसके शादी के अलबम की रंगीन तस्वीरें एकाएक ब्लैक एंड वाइट होने लगी! उसके साइड टेबल पर रखा फोटो फ्रेम सिकुड़ने लगा! उसके चेहरे पर चस्पा किसी विमान परिचारिका सी चिर परिचित मुस्कान गायब होने लगी और थोड़ी ही देर में वह प्यारी सी लड़की कार्नर टेबल पर रखे बोनसाई में बदल गई!   

इस पूरे काल्पनिक दृश्य ने मुझे हिलाकर रख दिया था! पति की बेवफाई का दंश वह झेलने वाली थी और उसकी खुशदिल चेहरे पर सजी मुस्कान के खो जाने की चिंता मुझे परेशान कर रही थी! मैं क्या कर सकता था...मैं कुछ तो कर सकता था...मुझे कुछ जरूर करना चाहिए पर क्या?  कुछ देर फिर मैं बेचैनी और विचारों के बीच झूलता रहा! धीरे धीरे मेरी मनोस्थिति का बुलबुला बैठने लगा! मेरी बेचैनी को अब राह मिल रही थी! मैंने कुछ और सोचा और समझ गया कि मैं इतना भी विवश नहीं! अपने कमरे में खिड़की के पास रखे मेज पर पहुंचकर मैंने कलम उठाई और लिखना शुरू किया! आज भी लेखन ही मेरा एकमात्र हस्तक्षेप था! अब मैं लिखना चाहता था! ये मुझे तय करना था कि मुझे क्या करना है, कोई कहानी लिखनी है या बोनसाई में बदल जाने वाली उस लड़की को एक चिट्ठी! मैं लिखने के लिए झुक चुका था इस उम्मीद के साथ ये एक कहानी हो या एक चिट्ठी उस लड़की तक जरूर पहुंचेगी! 

अंजू शर्मा

कवि के रूप में अपने लेखन की शुरुआत करने वाली अंजू शर्मा आज कहानी की दुनिया की सशक्त हस्ताक्षर हैं। अंजू शर्मा के किरदार आसपास की दुनिया के किरदार होते हैं और उनकी स्त्रियां पात्र आत्मविश्वास के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज कराती हैं। अंजू शर्मा ने कविता की दुनिया में जितनी लोकप्रियता हासिल की उतनी ही लोकप्रिय वे गद्य जगत में भी हैं। एक नींद हजार सपने, सुबह ऐसे आती है, उनके चर्चित कहानी संग्रह हैं।  आनलाइन  माध्यम में भी सक्रिय। 

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