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“हालात नोटबंदी काल के संकट से भी ज्यादा गंभीर”

करीब दो महीने के देशव्यापी लॉकडाउन ने करोड़ों लोगों का रोजगार छीन लिया है। अब जब लॉकडाउन में चरणबद्ध...
“हालात नोटबंदी काल के संकट से भी ज्यादा गंभीर”

करीब दो महीने के देशव्यापी लॉकडाउन ने करोड़ों लोगों का रोजगार छीन लिया है। अब जब लॉकडाउन में चरणबद्ध तरीके से ढील दी जा रही है, तो लोग एक बार फिर उम्मीद लगाए बैठे हैं। लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर लेबर में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा का मानना है कि हालात पूर्ववत होने में काफी समय लगेगा। वैसे तो हालात कोविड महामारी के आने से पहले ही अच्छे नहीं थे, पर यह भी सच है कि भारत में बेरोजगारी की समस्या दशकों पुरानी है। प्रो. मेहरोत्रा की संपादित किताब रिवाइविंग जॉब्स, ‘एन एजेंडा फॉर ग्रोथ’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। रोजगार के समूचे परिदृश्य पर उनसे बात की आउटलुक के एस.के. सिंह ने। मुख्य अंशः

सीएमआइई के अनुसार भारत में बेरोजगारी दर रिकॉर्ड 24 फीसदी पर पहुंच गई है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी का सर्वे है कि लॉकडाउन के चलते 67 फीसदी लोगों की नौकरी छिन गई। दो महीने के लॉकडाउन को देखते हुए आपको क्या लगता है?

लॉकडाउन खत्म होने पर कुछ तो सुधार होगा, लेकिन हमें यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि भारत की अर्थव्यवस्था और नौकरियों की स्थिति तत्काल वहां पहुंच जाएगी जहां जनवरी 2020 में थी। स्थिति की गंभीरता को जानने के लिए यह समझना जरूरी है कि इसकी शुरुआत कहां से हुई। देश में 2018 में बेरोजगारी दर (6.1 फीसदी) 45 वर्षों में सबसे ज्यादा थी। 15 से 29 वर्ष के युवाओं की बेरोजगारी दर 2012 से 2018 के बीच छह फीसदी से बढ़कर 18 फीसदी हो गई। इससे पहले 2004-05 से 2011-12 के बीच बेरोजगारी दर कम हो रही थी, क्योंकि उस दौरान विकास दर काफी बढ़ गई थी। उद्योग, सेवा और कंस्ट्रक्शन जैसे गैर-कृषि क्षेत्र में नौकरियां तेजी से बढ़ रही थीं। हर साल 75 लाख लोगों को नौकरियां मिल रही थीं, लेकिन 2012 से 2018 के बीच यह घटकर 29 लाख रह गई। उसी दौरान, 2012 के बाद पढ़-लिख कर नौकरी के लिए तैयार युवाओं की संख्या तेजी से बढ़ी। स्कूल से लेकर कॉलेज तक, हर स्तर पर एनरोलमेंट बढ़ा। 2007 में छह से 11 साल के बच्चों की प्राथमिक स्तर पर नेट एनरोलमेंट 97 फीसदी हो गई थी। इसका प्रभाव माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर भी दिखा। इसमें मध्यान्ह भोजन योजना का भी योगदान था। राज्य सरकारों की स्कीमों का भी असर था कि मां-बाप ने बेटियों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया। 2010 में नौवीं-दसवीं में एनरोलमेंट दर 58 फीसदी थी, वह पांच साल में बढ़ कर 85 फीसदी हो गई। इसका असर उच्च शिक्षा में हुआ, जहां एनरोलमेंट दर 2006 में सिर्फ 11 फीसदी थी, वह 2016-17 में 26 फीसदी पर पहुंच गई। ये बच्चे पढ़-लिख कर 2012 से 2018 के दौरान नौकरी ढूंढ़ने लगे, लेकिन उसी समय नौकरियों के सृजन की दर कम हो गई थी। इस कारण बेरोजगारी दर बढ़ने लगी। बेरोजगारी दर 2018 में ही रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई थी और सीएमआइई के अनुसार अब यह आंकड़ा 24 फीसदी हो गया है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह विपदा कितनी बड़ी है।

लॉकडाउन के बाद कितनी जल्दी सुधार की उम्मीद करें?

इसमें समय लगेगा। एक तो प्रवासी मजदूर जल्दी लौटने वाले नहीं हैं। केंद्र सरकार का मनरेगा में काम बढ़ाने का फैसला सही है, इससे मजदूरों को काम मिलेगा। दूसरा, मजदूरों को यह एहसास भी होगा कि शहरों में आमदनी तो ज्यादा होती थी, लेकिन वह खतरे से खाली नहीं। गांव में उतना खतरा नहीं है, तो वे शहर में एक कोठरी में चार-छह लोग एक साथ क्यों रहने जाएंगे। तीसरी बात, शहरों और सरकारों ने उनके साथ जो अभद्र और अमानवीय व्यवहार किया है, उससे सभी सरकारों की नाक कट गई है। वे भले शान से अपनी उपलब्धियां गिना रही हैं, लेकिन स्वान और अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सर्वे सरकार के दावों की पोल खोलते हैं। इस अमानवीय व्यवहार से प्रवासी मजदूर कितने विचलित हुए होंगे, यह हम सोच भी नहीं सकते। इसलिए ये मजदूर आसानी से नहीं लौटने वाले। यह भी देखना पड़ेगा कि शहरों में तेजी से नौकरियां शुरू होने वाली नहीं हैं। दरअसल, नोटबंदी के बाद जो स्थिति पैदा हुई थी, यह उससे भी विकट होगी।

सरकार ने अब तक जो उपाय किए हैं, उनका कितना असर होगा?

2008 के संकट के समय सरकार ने जीडीपी के चार फीसदी के बराबर फिस्कल पैकेज दिया था, अभी सरकार का पैकेज वास्तव में जीडीपी के एक फीसदी के बराबर है। मौजूदा स्थिति 2008 के मुकाबले ज्यादा खराब होने के बावजूद पैकेज एक चौथाई है। जाहिर है कि इससे अर्थव्यवस्था और गिरेगी, बाद में रिजर्व बैंक को और कर्ज लेना पड़ेगा। दरअसल, सरकार नौकरियों के आंकड़ों से पहले ही काफी घबराई हुई है। ये आंकड़े सालाना आते हैं, लेकिन पिछले साल सरकार ने आंकड़ों को रोक दिया था और चुनाव के बाद जारी किया। 2018-19 के आंकड़े अभी तक जारी नहीं किए गए हैं। शहरी इलाकों के आंकड़े हर तीन महीने में जारी होने हैं, इसका भी आखिरी डाटा जनवरी-मार्च 2019 का जारी किया गया है।

लेकिन बेरोजगारी की समस्या तो दशकों से चली आ रही है...?

इसमें दो राय नहीं कि समस्या कठिन है और हमारी आर्थिक नीतियों ने समस्या को और विकट बनाया है। 1950 से 1980 तक विकास दर काफी धीमी थी, 1980 से 1990 के दौरान यह थोड़ी बढ़ी और 1990 के दशक में इसमें तेजी आई। लेकिन तब लोग इतने पढ़े-लिखे नहीं थे और वे कृषि कार्यों में खप जाते थे। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में तेजी 2002-03 के बाद आई, यानी उस समय कंस्ट्रक्शन जॉब ज्यादा नहीं थे। कम पढ़े-लिखे लोग मजदूरी ही कर सकते हैं, इसलिए वे खेती में लग जाते थे। पढ़े-लिखे लोगों में बेरोजगारी जरूर थी। 1950 से 1980 तक भारत की आबादी बढ़ने की दर हर साल बढ़ रही थी। 1981 से 1991 के दशक में आबादी बढ़ती रही लेकिन इसकी दर घट गई। उस समय जो बच्चे पढ़ाई कर रहे थे वे लेबर मार्केट में 1990 के दशक के अंत में आए। 2011-12 के बाद स्थिति अधिक गंभीर होने लगी। जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (1994) और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रमों से पढ़े-लिखे बच्चे तेजी से लेबर मार्केट में आने लगे।

हर देश में 60 साल की डेमोग्राफिक डिविडेंड की स्थिति आती है, जब कामकाजी वर्ग में युवा ज्यादा होते हैं। भारत ने इसमें 1980 में प्रवेश किया। अब इसके 40 साल निकल गए हैं तो बाकी बचे 20 साल में समाधान कैसे होगा?

सरकारों को तेजी से काम करना पड़ेगा, क्योंकि 2040 के बाद कामकाजी वर्ग में युवाओं की तुलना में बुजुर्गों की संख्या बढ़ने लगेगी। चीन और उससे पहले यूरोप इस अवस्था में पहुंच चुके हैं, जापान में यह समस्या बेहद गंभीर है। अभी जो लोग काम कर रहे हैं, उन्हें 20 साल बाद पेंशन की जरूरत पड़ेगी। उम्र बढ़ने के साथ स्वास्थ्य पर उनका खर्च भी बढ़ेगा। इसलिए सरकार को पेंशन और सार्वजनिक स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान देना पड़ेगा। अभी भारत में स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर काफी हद तक निजी क्षेत्र पर निर्भर है।

नौकरियां बढ़ाने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?

जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी बढ़ानी पड़ेगी। 1960 से 2014 के दौरान मलेशिया में जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी तीन गुना बढ़कर 24 फीसदी और थाईलैंड में 13 फीसदी से बढ़कर 33 फीसदी हो गई। बांग्लादेश में भी हाल के दशकों में इसमें तेजी से बढ़ोतरी हुई है, लेकिन भारत में यह अभी 17 फीसदी से अधिक नहीं पहुंच सकी। 1999 से 2005 तक मैन्युफैक्चरिंग में हर साल 20 लाख नौकरियां सृजित हो रही थीं, जो 2005 से 2012 के दौरान घटकर 10 लाख रह गईं। 2012 से 2018 के दौरान तो उसमें छह लाख की गिरावट आई। 1991 से 2018 तक जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी 16 फीसदी पर टिकी है। 2012 में कुल रोजगार में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 12.8 फीसदी था, जो 2018 में घटकर 11.5 फीसदी रह गया। इनकी भी वजह है। भारत में टैरिफ की दर 1990 में 150 फीसदी थी जिसे 1998 में 40 फीसदी और 2002 में घटाकर 10 फीसदी पर लाया गया। इसमें तेजी से कटौती होने के कारण घरेलू निर्माताओं पर विपरीत असर पड़ा। मुक्त व्यापार समझौतों के बाद तैयार वस्तुओं पर आयात शुल्क में कमी की गई। इससे आयातित वस्तुओं की भरमार लग गई, जबकि कच्चे माल पर आयात शुल्क ज्यादा होने से घरेलू निर्माताओं को नुकसान हुआ।

औद्योगिक नीति का नजरिया क्या होना चाहिए?

गैर-कृषि क्षेत्र में तीन-चौथाई रोजगार असंगठित क्षेत्र में हैं, लेकिन लघु, छोटे और मझोले उद्यम (एमएसएमई) क्लस्टर के लिए फंडिंग बहुत कम होती है। 5,500 क्लस्टर के लिए सालाना 1,000 करोड़ रुपये से कम के फंड का प्रावधान किया जाता है। कर्ज, प्रौद्योगिकी, कौशल, मार्केट डेवलपमेंट वगैरह के लिए क्लस्टर स्तर पर इंटीग्रेशन जरूरी है। मझोले आकार के शहरों में इन्फ्रास्ट्रक्चर की स्थिति खराब है। शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास को मैन्युफैक्चरिंग क्लस्टर से जोड़ने की जरूरत है, ताकि नौकरियां सृजित हो सकें। इसके लिए शहरी विकास मंत्रालय और एमएसएमई मंत्रालय के बीच समन्वय जरूरी है। छोटे शहरों में बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा तो युवा बड़े शहरों में नहीं जाएंगे।

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