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‘भाषा का कोई धर्म नहीं होता, बल्कि मजहब को भाषा की जरूरत होती है’

उर्दू जबान की तरक्की के लिए फिक्रमंद साहित्यकारों और शिक्षाविदों का मानना है कि इस भाषा को सिर्फ मुसलमानों की जबान के तौर पर पेश कर एक दायरे में सीमित करने की कोशिशें की जा रही हैं जबकि असलियत यह है कि यह पूरे देश में और विभिन्न समुदायों में बोली जाती है और इसके विकास में सभी का अहम योगदान है। इसके अलावा उर्दू और हिंदी छोटी और बड़ी बहने हैं और इनमें आपस में कोई टकराव नहीं है।
‘भाषा का कोई धर्म नहीं होता, बल्कि मजहब को भाषा की जरूरत होती है’

साहित्य अकादमी के उर्दू सलाहकार बोर्ड के संयोजक और इसके कार्यकारी बोर्ड सदस्य चंद्रभान ख्याल ने कहा कि उर्दू को साजिशन मुसलमानों की भाषा बताकर इसका दायरा सिमटाया जा रहा है, लेकिन इस जबान का भविष्य उज्ज्वल है क्योंकि यह समूचे देश में बोली और पसंद की जाती है। उर्दू के विकास के लिए प्रयासरत संगठन उर्दू डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन हर साल नौ नवंबर को उर्दू दिवस का आयोजन करता आ रहा है और यह 1997 से अब तक जारी है। ख्याल ने कहा कि उर्दू दुनिया की तीसरी बड़ी जबान है। हिन्दुस्तान में भी इसका बोलबाला है। हालांकि राजनीतिक दल सियासी फायदे के लिए उर्दू का इस्तेमाल कर रहे हैं। उर्दू का मिजाज पूरी तरह से सेकूलर है जब से उर्दू जबान पैदा हुई है तब से ही हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सभी समुदायों के लोगों ने इसका संवर्द्धन किया और इसके साहित्य में सभी का बहुत योगदान रहा है। ख्याल ने कहा कि दिलचस्प यह है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों और अकादमियों के उर्दू सिखाने वाले कोर्सों में 90 फीसदी छात्र गैर मुस्लिम होते हैं।

जोधपुर के मौलाना आजाद विश्वविद्यालय के कुलपति और भाषाई अल्पसंख्यक मामलों के पूर्व आयुक्त प्रो अख्तर उल वासे ने जोर देते हुए कहा कि धर्म की कोई भाषा नहीं होती बल्कि धर्म को भाषाओं की जरूरत होती है। प्रो वासे ने कहा कि उर्दू और हिंदी को एक दूसरे का विरोधी बनाने की कोशिश की गई लेकिन इन दोनों भाषाओं के जनक अमीर खुसरो थे और इसे हजरत निजामुद्दीन औलिया का संरक्षण मिला। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि असगर वजाहत और बिस्मिल्लाह खान के बिना हिंदी साहित्य में अधूरापन दिखता है वैसे ही गोपीचंद नारंग, रघुपति सहाय ‘फिराक’ और राजेंद्र सूरी के बिना उर्दू साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रो वासे ने कहा कि भाषाएं सरकार के संरक्षण में नहीं पनपतीं बल्कि भाषाओं के बोलने वालों और जगह का महत्व होता है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रमुख प्रो इब्ने कंवल ने कहा कि चूंकि उर्दू की लिपी अरबी-फारसी से मिलती है इसलिए इसे मुसलमानों की भाषा कहा जाने लगा। उन्होंने सवाल किया कि उर्दू कैसे मुसलमानों की भाषा है? क्या पैगंबर मोहम्मद उर्दू जानते थे? दक्षिण भारत में रहने वाले मुसलमान क्या उर्दू जानते हैं? उन्होंने कहा कि भाषा मजहब की नहीं जगह या मुल्क और उसके बोलने वालों की होती है। कंवल ने कहा कि 20-25 साल पहले उर्दू की जो हालत थी उससे आज इसकी स्थिति बेहतर है। पहले एमए में 20-25 छात्र होते थे वहीं आज हर सेक्शन में 60-70 विध्यार्थी होते हैं। पहले पीएचडी के लिए 10-12 आवेदन आते थे और आज कम से कम 150 आते हैं। उर्दू डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष सैयद अहमद खान ने बताया कि 1997 से अल्लामा इकबाल के जन्म दिन पर उर्दू दिवस मनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि लोग उर्दू की गजलें, शायरी पसंद करते हैं। उर्दू का जन्म इसी देश में हुआ, यहीं फलीफूली और यह सभी धर्म के लोगों की भाषा है।

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