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महिलाओं के माथे की ‘बिंदिया’ बना ‘टिकुली आर्ट’

उमेश कुमार राय पटना के दानापुर निजामत के नासरीगंज गांव में रहनेवाली संध्या सिंह गृहिणी हैं। एक वक्त...
महिलाओं के माथे की ‘बिंदिया’ बना ‘टिकुली आर्ट’

उमेश कुमार राय

पटना के दानापुर निजामत के नासरीगंज गांव में रहनेवाली संध्या सिंह गृहिणी हैं। एक वक्त था जब उनका पूरा दिन घर और बाल-बच्चों को संभालने में जाया हो जाता था।

मगर, अभी ऐसा नहीं है। अब अपना घर भी संभालती हैं और रोजाना करीब 4 घंटे का समय निकालकर ‘टिकुली आर्ट’ भी बना लेती हैं। आर्ट वर्क से उन्हें हर महीने चार से पांच हजार रुपये की कमाई हो जाती है।

संध्या पिछले 16 साल से वह टिकुली आर्ट बना रही हैं। वह कहती हैं, “जब टिकुली आर्ट नहीं जानती थी, तो घर का काम निबटाते-निबटाते ही दिन निकल जाता था। जब से टिकुली आर्ट बनाने लगी, मेरा मन इसी में रम गया। अब मैं घर-परिवार संभालते हुए भी 4 घंटे का वक्त तो चुरा ही लेती हूं, पेंटिंग करने के लिए।” संध्या सिंह जब यह सब कहती हैं, तो उनके चेहरे पर गजब का आत्मविश्वास झलकता है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, घर संभालते हुए टिकुली आर्ट बना लेना और उससे कमाई भी कर लेना कोई छोटी-मोटी बात नहीं।

संध्या बताती हैं, “अल्लसुबह उठ जाती हूं। बच्चों के लिए खाना वगैरह बनाकर घर के बाकी काम निबटा लेती हूं। सुबह 10 बजे तक सारा काम खत्म कर टिकुली आर्ट तैयार करती हूं। शाम 4 बजे तक आर्ट बनाती हूं और इसके बाद फिर घर के काम में लग जाती हूं।”

सदियों पुरानी टिकुली आर्ट संध्या जैसी दर्जनों महिलाओं के लिए कमाई का एक सशक्त माध्यम बन गया है। खास बात यह है कि ये महिलाएं कमाई तो कर ही रही हैं, साथ ही जाने-अनजाने वह इस कला को अमरत्व भी दे रही हैं।

दानापुर की 19 वर्षीया सपना कुमारी इंटर में पढ़ती है। पढ़ाई के साथ ही वह टिकुली आर्ट भी बनाती है और हर महीने 3 से 4 हजार रुपये कमा लेती है।

सपना कहती हैं, “इससे तीन फायदे हैं। पहला फायदा तो यह है कि समय का सदुपयोग हो जाता है। दूसरा फायदा है कि इससे कुछ आर्थिक मदद मिल जाती है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण फायदा है कि इस तरह टिकुली आर्ट संरक्षित भी हो रहा है।”

टिकुली कला का जन्म बिहार की राजधानी पटना में 2500 साल पहले हुआ था। कहते हैं कि उस वक्त कांच को गलाकर उसे बैलून की तरह फुलाया जाता था और फिर कैंची से उसे सिक्कानुमा गोल-गोल काटा जाता था। सिक्कानुमा कांच पर गोल्ड फ्वायल चिपका दिया जाता था।

गोल्ड फ्वायल पर बांस की कमानी से बनी नुकीली कलम से महिलाएं कलाकारी करतीं। चूंकि गोल्ड फ्वाइल नाजुक होते हैं इसलिए बांस की कलम चलाने से डिजाइन बननेवाला हिस्सा कलम के साथ बाहर आ जाता और वहां खाली जगह बन जाती। उस खाली जगह में रंग डाले जाते और इस तरह टिकुली आर्ट तैयार हो जाता।

उन दिनों कांच से तैयार टिकुली महिलाएं माथे पर लगाती थीं। माथे पर लगनेवाली टिकुली ही वक्त के थपेड़ों के साथ अपना स्वरूप बदलती गयी और महिलाओं के माथे से उतरकर घरों और आर्ट गैलरियों में टंगने लगी।

यहां यह भी बता दें कि टिकुली आर्ट के विषय बिहार की पारंपरिक रीति-रिवाजों, रामायण और कृष्ण से जुड़े प्रसंगों पर आधारित होते हैं।

विशेषज्ञ बताते हैं कि टिकुली कला को सबसे बड़ा झटका 20वीं शताब्दी में तब लगा, जब सोने का दाम बढ़ गया। इससे टिकुली महंगी हो गई, जो आम महिलाओं की पहुंच से बाहर होने लगी। ऐसे में सस्ती टिकुली की जरूरत महसूस की जाने लगी और इस तरह टिकुली कला की चहारदीवारी से निकलकर व्यावसायिक उत्पाद बन गई। व्यावसायिक उत्पाद बन जाने से टिकुली में कलाकारी कम होने लगी।

लेकिन, जो लोग टिकुली को अब भी आर्ट मान रहे थे, वे किसी भी सूरत में इस कला को मरने नहीं देना चाहते थे। चुनांचे उन्होंने एक तरकीब निकाली। सिक्कानुमा कांच की जगह बड़े आकार के चौकोर कांच पर टिकुली जैसी कलाकारी कर उन्हें बाजार में उतारा। इस तरकीब ने कुछ समय तक टिकुली कला को जीवित ररखा, लेकिन एक और बड़ा झटका लगना अभी बाकी था।

कहते हैं कि 60 के दशक में किन्हीं कारणों से गोल्ड फ्वायल बाजार से नदारद हो गया, जिससे टिकुली आर्टिस्ट के सामने एक नई चुनौती आ गई। इसका समाधान उन्होंने ऐनामेल पेंट से निकाला। अब कांच पर गोल्ड फ्वायल की जगह एनामेल पेंट से नक्काशी की जाने लगी।

उन दिनों टिकुली आर्ट के एक दिग्गज कलाकार हुआ करते थे। नाम था उपेंद्र महारथी। 60 के ही दशक में वह जापान गए हुए थे। वहां उन्होंने देखा कि काठ पर ऐनामेल पेंट से कलाकारी की जा रही है। उन्हें यह पसंद आ गया। वह पटना लौटे, तो टिकुली आर्ट के साथ यही प्रयोग किया और यह सफल रहा। बाद में लकडी की आमद भी कम हो गई, तो लकड़ी की जगह हार्ड बोर्ड ने ले ली। संप्रति काठ और हार्ड बोर्ड दोनों पर टिकुली आर्ट तैयार किया जा रहा है।

हालांकि, टिकुली आर्ट की यह पूरी यात्रा उसके अस्तित्व को बचाने के लिए ही थी और किसी तरह यह कला जीवित रही। लेकिन, एक समय ऐसा भी आया, जब यह कला अपने जीवन के अंतिम दौर में पहुंच गई थी, लेकिन एक कलानुरागी और टिकुली आर्टिस्ट अशोक विश्वास की मेहनत की बदौलत आज यह कला फूल-फल रही है।

अशोक विश्वास के पुरखे बंगाली थे, लेकिन उनका जन्म बिहार के रोहतास में हुआ। बाद में वह पटना आ गए। अशोक विश्वास बताते हैं, ‘1973 में पटना में टिकुली आर्टिस्ट की संख्या महज 50 थी, लेकिन उस वक्त सरकार टिकुली आर्ट्स को खरीद लिया करती थी, जिससे कलाकारों में रुचि थी। 1984 में सरकार ने खरीदना बंद कर दिया, तो कलाकारों में भी इस आर्ट के प्रति दिलचस्पी कम हो गई।’

1995 से इस कला को पुनर्जीवित करने की कवायद शुरू हो गई। इसकी एक अलग कहानी है। अशोक विश्वास कहते हैं, “मैं कुछ बच्चों को उनके घर में जाकर टिकुली आर्ट सिखाया करता था। वहीं पर केंद्र सरकार के अधीन कल्चरल डेवलपमेंट कमिशन (हैंडिक्राफ्ट) में काम करनेवाले कमल नारायण कर्ण ने टिकुली आर्ट को देखकर इसे पुनर्जीवित करने की सलाह दी। वह मुझे अपने घर मधुबनी ले गए। वहां मैंने पूरा गांव घूम-घूमकर मधुबनी पेंटिंग्स के बारे में जानकारी जुटाई।”

वर्ष 2000 में विश्वास ने कल्चरल डेवलपमेंट कमिशन के पूर्वी क्षेत्र के निदेशक से मुलाकात की। साथ ही बिहार सरकार ने भी इस कला को बचाने को लेकर गंभीरता दिखाई जिसके बाद विश्वास को फिर पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नही पड़ी।

वह कहते हैं, “1996 में दिल्ली में पहली बार एक प्रदर्शनी में टिकुली आर्ट की कलाकृतियां प्रदर्शित की गई थीं। उस प्रदर्शनी में मैं 500 आर्ट वर्क ले गया था, जो 10 दिन में ही बिक गई। बिक्री से जो पैसा मिला, उसे कलाकारों में वितरित कर दिया। इससे उनका उत्साह दोगुना हो गया।” विश्वास ने कहा, “उस वक्त मुझे अहसास हुआ कि टिकुली आर्ट को अगर जीवित रखना है, तो इसके साथ आर्थिक पहलू को जोड़ना होगा।”

फिलहाल, विश्वास पटना में 30 केंद्रों में टिकुली आर्ट की ट्रेनिंग दे रहे हैं। इनमें 350 लोगों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिनमें गरीब महिलाओं की संख्या अधिक है।

विश्वास बताते हैं, “घरेलू व गरीब महिलाएं इसमें ज्यादा रुचि ले रही हैं क्योंकि इसके जरिए उन्हें आय भी हो जा रही है और वे एक समृद्ध कला को संरक्षित रखने में बड़ी भूमिका भी निभा रही हैं।”

संध्या सिंह ने कहा, “टिकुली आर्ट ने मुझ जैसी महिलाओं को एक बेहतर विकल्प दिया है। मैं कभी भी इस कला को नहीं छोड़ूंगी।”

पटना की गृहिणी आरती कुमारी 10 साल से टिकुली आर्ट बना रही हैं और उन्हें टिकुली आर्टिस्ट होने पर फक्र हैं। वह कहती हैं, “सदियों पुरानी टिकुली आर्ट मैं बना रही हूं, यह मेरे लिए गर्व की बात है। इस कला ने मुझे घर बैठे कमाई करने का एक विकल्प भी दिया है।”

विश्वास ने बताया, “हमें सरकार, निजी कंपनियों और कुछ एनजीओ से आर्ट वर्क बनाने का काम मिल जाता है और इन कामों को मैं इन महिलाओं में बांट दिया करता हूं। काम पूरा हो जाने पर मैं उन्हें अपनी जेब से भुगतान कर आर्ट वर्क ले लेता हूं तथा जिनकी तरफ से  आर्डर मिलता है, उन्हें सप्लाई कर देता हूं।”

घरेलू महिलाओं को टिकुली आर्ट सिखाने एक बड़ा फायदा यह हुआ है कि इन महिलाओं की देखादेखी आसपास की किशोरियों-महिलाओं का भी रुझान इस कला की तरफ बढ़ा है। संध्या कहती हैं, “जब मैंने यह आर्ट बनाना शुरू किया, तो इसे देखकर आसपास की बच्चियों ने भी सिखाने की गुजारिश की। मैं उन्हें भी टिकुली कला का हुनर सिखा रही हूं।”

आर्थिक पहलू जुड़ जाने से इस आर्ट को ऑक्सीजन तो मिल गया है, लेकिन इसकी सेहत को बरकरार रखने के लिए जरूरी है कि आर्ट वर्क की अच्छी कीमत मिले। आरती कुमारी कहती हैं, “मेहनत के हिसाब से पैसा नहीं मिल रहा है। पैसा बढ़ाया जाना चाहिए।”

विश्वास ने कहा, “जिस आकार मधुबनी पेंटिंग 1000 रुपये में बिकती है, उसी आकार के टिकुली आर्ट को 5-6 सौ रुपये ही मिलते हैं जबकि इसमें खर्च अधिक है। अगर हम कीमत बढ़ा देंगे, तो इस आर्ट वर्क के खरीदार कम हो जाएंगे। यह सब देखते हुए सरकार को इस मसले पर गंभीरता से विचार कोई समाधान निकालना चाहिए।”

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