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जयंती विशेष: जौन एलिया ऐसा शायर जिसे इल्म ने मारा लेकिन, मलाल नहीं किया

मकदूनिया को प्रसिद्धि मिली सिकंदर की जन्मभूमि होने से वहीं अमरोहा को प्रसिद्धि दिलाने में जौन एलिया...
जयंती विशेष: जौन एलिया ऐसा शायर जिसे इल्म ने मारा लेकिन, मलाल नहीं किया

मकदूनिया को प्रसिद्धि मिली सिकंदर की जन्मभूमि होने से वहीं अमरोहा को प्रसिद्धि दिलाने में जौन एलिया का खासा योगदान रहा। जौन एलिया की आज मक़ामात यह है कि जब भी बात इश्क अख्त़ियार करने की होगी, जौन का ख़्याल अवश्य आएगा। आज जौन एलिया की जयंती है।
 
जौन की जिंदगी खुशहाल थी बावजूद इसके उसने इसे तबाह किया। ग़ौर फरमाएं तो जौन का समस्त जीवन एक दर्शन नज़र आता है। जौन में स्थायित्व नहीं था, वो रूढ़ से मुक्त थे। हालांकि, जौन अपनी खुशियों के कात़ील भी थे। जौन में भावों का अतिरेक था। स्वभाव से भावुक थे। यदि दार्शनिक दृष्टि कोण से देखा जाए तो अरस्तू मन के भावों के दमन को हानिकारक मानते थे, प्लेटों इसके विपरित थे उनका मानना था कि भाव का अतिरेक न आत्मा के लिए लाभदायक है और ना ही मन और विवेक के लिए। जौन अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा तरजीह इल्म को देते थे, अगर इस बात को इस तरह कहा जाए कि इल्म, जौन की जिंदगी में एक हादसे की तरह आया तो इसमें कोई दोराय नहीं।
 
इल्म, जौन की जिंदगी का सबसे बड़ा तसव्वुर था। जौन जिन्दगी भर इसी इल्म़ के पीछे भागते रहे, ईजाद क्या हुआ? जौन को इल्म़ खा‌‌ गया। अब बताइए, इल्म जीता या जौन? वो इल्म जिसके पीछे जौन ने न आव देखा ना दांव। जौन‌, ज़िन्दगी भर‌ एक बोझ तले दबे नजर आते रहे। यह और कुछ नहीं बल्कि इल्म ही था। ऐसा नहीं था कि इल्म केवल जौन की जिंदगी में ही रहा, यदि खानदानी पृष्ठभूमि को देखा जाए तो इल्म का इस खानदान से अच्छा खासा नाता रहा लेकिन बर्बाद किया केवल जौन को। क्यों, क्योंकि जौन‌ ने इल्म़ को अवसर की तरह नहीं देखा। बल्कि जौन ने इल्म़ की अति की, और हुआ यह कि जौन को इल्म़ ने भावनात्मक रूप से बर्बाद कर दिया। यही होता है अतिरेकता का परिणाम। वैसे अगर देखा जाए तो लगेगा कि बचपन में इल्म़ को जौन पर‌ थोपा गया, जहां जौन को बचपन को संवारने की आवश्यकता थी वहां जौन को इल्म़ परोसा गया। इसके बारे में जौन एलिया का कहना था जिस बेटे को उसके इंतिहाई ख़्याल पसंद और एक आदर्शवादी बाप ने व्यवहारिक जीवन गुज़ारने का कोई तरीक़ा न सिखाया हो बल्कि यह तालीम़ दी हो कि इल्म़ सबसे बड़ी कामय़ाबी है, तो इसका परिणाम और क्या हो सकता था? यह शाय़द इल्म था जिसके कारण जौन खयालात क़िस्म के थे, खैर जौन को इसका मलाल नहीं था।
 
बुद्ध ने जीवन को दुःख मय माना तो वहीं बुचर ने लिखा, वास्तविक जीवन में करुणा और भय के भाव दूषित और कष्टप्रद तत्वों से युक्त रहते हैं। जौन इसके हमेशा शिकार होते रहे, तौबा करते रहे। ऐसा नहीं था कि जौन इसे समझ नहीं सके बल्कि इससे बाहर ‌नही आ सके। शायद, लत ऐसी ही होती है, फिर चाहें बर्बाद होने की हो या आबाद होने की। करुणा पीड़ादायक भाव है, फिर वो खुश़ी कैसे दे सकती थी?
 
आज जब जौन का ख़्याल आता है तो प्रासांगिकता और बढ़ जाती है। जौन ऐसे शायरों की जमात़ में शामिल में हो चुके हैं जो मरने के बाद ज्यादा प्रासांगिक हो गए। इसके साथ ही जौन, आलोचना का बराबर शिकार होते रहे, आज भी ऐसे कुछ लोग हैं जो शिल्प, साहित्य, मंचीय प्रस्तुति के नाम पर जौन का माखोल उड़ाते हैं वहीं कुछ लोग पारिवारिक सम्बन्धों को लेकर जौन को कटघरे में खड़ा करते हैं, खैर, पारिवारिक सम्बन्धों पर टिप्पणी करना एक अलग और बड़ा विषय है। जहां तक शिल्प और साहित्य का सवाल है तो जौन अपने-आप को बौना शायर समझते थे, वो कहते थे कि मैं उस जात का शायर हूं, जो किसी के साथ-साथ बड़ा नहीं होता, बर्बाद होता है। ऐसे में उनकेे आलोचकों की दलील फीकी पड़ जाती है। जौन ने कभी अपने आपकों बढ़कर पेश नहीं किया। उसने अपनी ग़ज़लों में उर्दू के नियमों को कमतर ही अपनाया, और जौन ने इसे खुले दिल से स्वीकारा भी। जौन, वास्तव में जो था, सो था। जौन के पाठकों ने उसका यही अंदाज़ पकड़ा और परिणाम आज सबके सामने है।
आज के साहित्य पर ग़ौर फरमाते हुए, जौन गैसनर ने ठीक ही कहा था कि, "काव्यशास्त्र के सिद्धांतो से आज के साहित्य की आलोचना का प्रयास वैसा ही है, जैसा चलनी में पानी रोकने का प्रयास"
 
 
जौन, एक लड़का जिसने अपना बचपन अमरोहे की बान और सोत नदी के किनारे बिताया, उसके शायर 'एलिया' बनने का मक़ाम बिल्कुल भी आसान नहीं रहा। सलीम जाफ़री, जौन के इस अंदाज़, मजलूमों की आवाज़ उठाने के लिए एलिया को "औलिया" कहकर बुलाते थे। सलीम, जौन के अज़ीज़ मित्र थे। सलीम ने दुनिया के मुशायरों में जौन के अनेक रंगों को दिखाया। जब जौन पत्नी जाहिदा हिना से तलाक के बाद सदमे में आ गए तो सलीम ने जौन को संवारा भी था। एक समय आया जब सलीम भी, जौन को अकेला छोड़ कर इस दुनियां से रुखसत हो गए। इसकेे बाद तो जौन ऐसे बिफ़रे‌ कि अंत तक संवर ही ना सके। आज जौन को गुजरे क़रीब दो दशक हो गए। अमरोहा भी अब काफ़ी बदल गया, जौन की जो अपेक्षाएं अमरोहा से थी, वो शायद अधूरी ही रह गई। वायदों के दौर को भी देख चुके। एक निशानी थी, बान। उसे तक तो बचा नहीं पाए, अब अवैध कब्जों करके खेती करने तलक की खबरें आ रही हैं, रही कसर रही, खनन माफिया पूरी कर रहे हैं। या'नी' ना तो हम अपने शहरयार शायर जौन एलिया को ही बचा पाए, और ना उसकी निशानदेही बान को।
 
अब नहीं कोई बात खतरे की,
अब सभी को सभी से खतरा है
 
- जौन एलिया
 
(लेखक अमरोहा से स्वतंत्र पत्रकार हैं, साहित्य पर लिखते हैं)

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