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दिवाली के दीयों से इस तरह जगमग है हिंदी साहित्य

नलिन चौहान किसी भी देश और समाज की सांस्कृतिक परंपरा उसकी अपनी भाषा में प्रकट होती है। यही कारण है कि...
दिवाली के दीयों से इस तरह जगमग है हिंदी साहित्य

नलिन चौहान

किसी भी देश और समाज की सांस्कृतिक परंपरा उसकी अपनी भाषा में प्रकट होती है। यही कारण है कि हिंदी समाज का समृद्व देशज वैभव हिंदी में परिलक्षित होता है। अंग्रेजों के लिपि के आधार हिंदी-उर्दू को विभाजित करने से पूर्व हिन्दवी की अपनी के समृद्ध थाती रही हैं, जो समय-काल के साथ धूमिल हो गई है। यह हिंदी प्रदेश का ही कमाल है कि उर्दू के पहले कवि माने जाने वाले नजीर अकबराबादी ने अपनी "दीवाली" शीर्षक कविता में प्रकाश के इस त्यौहार और जनसामान्य के संबंध को कुछ इस तरह व्यक्त किया है,

हमें अदाएं दिवाली की जोर भाती हैं।

कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं।।

चिराग जलते हैं और लौएं झिलमिलाती हैं।

मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं।।

भारतीय मुहावरे, भारतीय खयाल (कल्पना) और भारत को अपनी कविता का आधार बनाने वाले वली दकनी (1667-1707) इस बात को कुछ यूं बयान करते हैं।

तिरी जुल्फों के हल्के में है यूं नक्श-ए-रूख-ए-रोशन

कि जैसे हिंद के भीतर लगें दीवे दिवाली में

महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर में पैदा होने के कारण है उन्हें वली दकनी

(दक्षिणी) और वली औरंगाबादी भी कहा जाता है।

दीवाली देश का सबसे सुन्दर त्यौहार है। इस बात को ऐसे भी कह सकते हैं कि होली में गंदगी फैलती है तो दीवाली में सफाई की जाती है। होली रबी की फसल पकने या कटने के समय आती है जिसका अच्छा होना या न होना रब की इच्छा पर निर्भर है पर दीवाली जो आती है वह खरीफ की फसल कटने के बाद आती है।

कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध (1865-1947) रोशनी और अंधेरे पर कुछ ऐसे कहते हैं,

पेड़ पर रात की अंधेरी में

जुगनुओं ने पड़ाव हैं डाले

या दिवाली मना चुड़ैलों ने

आज हैं सैकड़ों दिये बाले।

 

हिंदी साहित्य के छायावाद के सुकोमल कवि सुमित्रानंदन पंत की यह पंक्ति दीवाली का अनुपम चित्र प्रस्तुत करती है जिसमें वे कहते हैं कि

रंग गयी पग-पग धरा,

हुई जग जगमग मनोहरा।

पन्तजी ने फूलों के चित्रित दीप जलाकर बसन्त ही में दीवाली मना डाली।

जबकि दुख की बदली महादेवी वर्मा इस त्यौहार के दीए के कर्म को उजागर करते हुए लिखती हैं कि

मैं मंदिर का दीप-सदा नीरव जलाता हूँ।

वहीं तार सप्तक के संपादक और हिन्दी के प्रथम आधुनिक उपन्यास "शेखर एक जीवनी" के लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय (1911-1987) ने जिस किसी के आंगन के पार वाला द्वार खुला पाया उसी का दीपक उठा लिया और फिर उसे अपने शब्दों में प्रस्तुत किया,

मेरे छोटे घर कुटीर का दिया

तुम्हारे मन्दिर के विस्तृत आंगन में

सहमा-सा रख दिया गया

 

उनकी 'भग्नदूत' खंड की कविता दीपावली का एक दीप में बुझता दीपक कहता है-

दीपक हूं, मस्तक पर मेरे

अग्निशिखा है नाच रही

यही सोचा-समझा था शायद

आदर मेरा करें भी।

 

दीप और पंक्ति के प्रतीक द्वारा अज्ञेय ने अपने इस दृष्टिकोण को अभिव्यक्त किया है।

यह दीप अकेला, स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इसको भी पंक्ति को दे दो।

आधुनिक हिन्दी के कबीर हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों (आलोक पर्व निबंध) में, दीपावली प्रकाश का पर्व है। इस दिन जिस लक्ष्मी की पूजा होती है। वह गरूड़वाहिनी है-शक्ति, सेवा और गतिषीलता उसके मुख्य गुण है। उनके लिए, दीपावली का पर्व आद्या शक्ति के विभिन्न रूपों के स्मरण का दिन है।

एक अन्य स्थान पर हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-कम से कम ढाई-तीन हजार वर्षों के मानव-चित्त के उमंग और उल्लास की कहानी इस पर्व के साथ जुड़ी है। इतनी क्या कम है? दो सौ पीढ़ियों तक जो पर्व मनुष्य के चित्त को आनंद से उद्वेलित कर सका है, यह क्या मामूली पर्व है। राज्यों और राजवंशों के उत्थान-पतन होते रहे, बड़े-बड़े धर्म-संप्रदाय उठते-गिरते रहे, चंचला लक्ष्मी का प्रसाद न-जाने कितने लोगों को प्राप्त हुआ और कितने उससे वंचित हो गए, पर दीपमाला का उत्सव नहीं रूका। साधारणतः यह विश्वास किया जाता है कि यह लक्ष्मी पूजा का दिन है। बंगाल की दूसरी परंपरा है। वहां इस तिथि को काली जी की पूजा होती है। पूजा लक्ष्मी की हो या काली की, दीपमाला सर्वत्र जगमगा उठती है। देवी-देवता और उनकी पूजा गौण है, मनुष्य चित्त का उल्लास प्रधान, और उत्सव यह उल्लास का ही है।

इसी उल्लास की भावना को डॉ हरिवंश रॉय बच्चन अपनी जगप्रसिद् काव्य पुस्तक "मधुशाला" में कुछ ऐसे कहते हैं

एक बरस में एक बार ही जगती होली की ज्वाला

एक बार ही लगती बाजी जलती दीपों की माला

दुनियावाले, किन्तु किसी दिन आ मदिरालय में देखो

दिन को होली रात दिवाली रोज मनाती मधुशाला

वहीं, हिंदी में प्रकृति के अनूठे चित्रण के लिए प्रसिद्व कवि केदारनाथ अग्रवाल दीप की लौ से दिन का चित्र खींचते हुए कहते हैं

हाय पिया, मैंने यह क्या किया

मेरा नन्हा सा जिया, परदेसिया

तो प्रेम के कवि गिरिजाकुमार माथुर कहते हैं कि दीप जले द्वार द्वार, झिलमिल जलते।

जबकि हिंदी के प्रसिद्ध ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय अपने निबंध संग्रह "मराल" में दीवाली को मात्र धन-समृद्वि का पर्व मानने की भ्रांति को दूर करते हुए बड़े पते की बात लिखी है। उनके शब्दों में, सारा उत्तर भारत इसे अर्थ की देवी माधवी या लक्ष्मी के त्योहार के रूप में ही मनाता है। तब क्या प्रकाश के जगमगाते असंख्य दीपकों की पांत अर्थ गरिमा की द्योतक है। भारत का गरीब से गरीब आदमी भी जिसका एकमात्र गौरव उसका धर्म बोध ही है, माटी का एक जोड़ा दीया अपने दरवाजे के सामने इस दिन जरूर रखता है। उन दीपकों से उसका अंहकार नहीं, उसकी श्रद्वा प्रकाशित हो रही है। यह श्रद्वा उसके अन्तर्निहित मनुष्यता की गरिमा है और श्रद्वा धर्मबोध और पवित्रताबोध से जुड़ी है, अतः यह हमारे अवचेतन को धर्म-मोक्ष के मार्ग पर ठेलती है।

यह एक अल्पज्ञात पर रोचक तथ्य है कि 23 साल की मेहनत के बाद प्रसिद्ध बंगाली उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की प्रमाणिक जीवनी "आवारा मसीहा" शीर्षक लिखने वाले और साहित्य अकादेमी के पुरस्कार से सम्मानित विष्णु प्रभाकर ने अपनी पहली कहानी "दिवाली के दिन" शीर्षक से ही लिखी थी। उनके अपने शब्दों में, मैंने लिखना शुरू किया। पहले कविता लिखी फिर गद्य काव्य। लेकिन उनमें मन इतना रमा नहीं इसलिए कहानी लिखनी शुरू कर दी। इन सबका परिणाम अंततः दिवाली के दिन कहानी के रूप में हुआ। यह कहानी अब कहां है मुझे नहीं मालूम।

एक ऐसा ही कम जाने तथ्य यह है कि संपूर्ण क्रांति के उदघोषक और इंदिरा कांग्रेस के शासन में देश में लगे आपातकाल के विरोध में अलख जगाने वाले प्रसिद्व गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण, वर्ष 1942 में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दिवाली की रात को ही हजारीबाग सेंट्रल जेल की सत्रह फीट ऊंची दीवार फांदकर फरार हुए थे। दीवाली की रात इस हैरतअंगेज कारनामा करते हुए जेल से बाहर निकल आने के कारण जयप्रकाश नारायण को राष्ट्रीय नायक जैसी लोकप्रियता प्राप्त हुई थी।

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