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वोट बैंकों का एनपीए

आधुनिक लाइफस्टाइल में देश के हर छोटे-बड़े परिवार में बुजुर्गों को एनपीए समझा जाने लगा है
वोट बैंकों का एनपीए

एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (गैर-निष्पादित आस्तियां) आज भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा संकट बन गया है लेकिन राज-व्यवस्था के लिए भी यह कम बड़ा सिरदर्द नहीं है। पिछले तीन वर्षों में 29 राष्ट्रीय बैंकों के बतौर कर्ज 1,14,000 करोड़ रुपये डूब चुके हैं लेकिन फेंकू की सबसे बड़ी चिंता वोट बैंकों के एनपीए को लेकर है। तभी वह हर नागरिक के खाते में काले धन से उगाही जाने वाली 15 लाख रुपये की रकम डालने का वादा पूरा नहीं कर पाए। शायद धन काला न होकर, भगवा होता तो वह कब के वादे पूरे कर चुके होते। महज 31 प्रतिशत वोट पाकर फेंकू ने विशाल बहुमत से सरकार भी बना ली लेकिन अपने खाते के 69 प्रतिशत के एनपीए की चिंता खत्म नहीं हुई। अब देश की इतनी बड़ी आबादी है तो इसमें 69 प्रतिशत एनपीए तो हर क्षेत्र, हर संस्थान में फैलेगा ही। खासकर जब 30 साल से कम युवाओं की आबादी वाले इस सबसे बड़े देश में 40 प्रतिशत से अधिक हों तो सरकार का एनपीए तो हैदराबाद यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) में ही बजबजाएगा ना! इसी एनपीए को अपने खाते में जोडऩे के लिए फेंकू के सिपहसालार कभी राष्ट्रद्रोह तो कभी बीफ विरोध और गौ माता की पूजा का कार्ड खेलने लग जाते हैं। अब तो इस 69 प्रतिशत एनपीए को यह भी डर सताने लगा है कि होली, दिवाली जैसे त्योहार नहीं मनाने पर भी कहीं फेंकू उन्हें राष्ट्रवादी दिवालिया न घोषित कर दे।

आधुनिक लाइफस्टाइल में देश के हर छोटे-बड़े परिवार में बुजुर्गों को एनपीए समझा जाने लगा है। लाजिमी है कि शूट-बूट वाले फेंकू के इतने विशाल परिवार में भी कुछ बुजुर्ग एनपीए होंगे। यह तो फेंकू की दरियादिली है कि उन्होंने अपने बुजुर्गों को कोई दायित्व न सौंप कर उन्हें अपना मार्गदर्शक बना लिया है। दरअसल, इन बुजुर्गों की भी गलती है, भगवा पोशाक मिली तो उन्होंने इसे इतना पहना कि दूसरों पर इसका रंग तो खूब चढ़ा, अपनी पोशाक की रंगत ही फीकी पड़ गई। अब जब फेंकू के चंपुओं की इतनी बड़ी चुस्त-दुरुस्त फौज तन-मन से 'रंग दे तू मोहे गेरुआ’ गाने-गुनगुनाने लगी है तो इन बुजुर्गों का बेसुरा राग सुनने के लिए कौन तैयार होगा? उनका इस्तेमाल तो होली-दिवाली के मौके पर बरामदे में लगी चारपाई पर बैठकर आशीर्वाद वितरण कार्यक्रम तक ही सीमित रह जाएगा। बाकी दिन करते रहें घर की रखवाली.... की तरह। केंद्रीय विश्वविद्यालयों से एनपीए की उगाही के लिए निकला फेंकू का लाव-लश्कर देखकर जाहिर है कि अब कोई फगुआ से तो क्या भगवा देखकर भी नाक-भौं सिकोडऩे की जुर्रत नहीं करेगा। सिकोड़ना भी चाहेगा तो सरकार के पास फेयर एंड लवली की कई योजनाएं तो हैं ही।

राजनीति से लेकर क्रिकेट तक, हर क्षेत्र में कुछ एनपीए सरीखी हस्तियां डटी हुई हैं, महंगाई, बेरोजगारी और कॉलड्रॉप का एनपीए बढ़ता जा रहा है। लेकिन हमें अच्छे दिन का सब्जबाग दिखाने वाले फेंकू साहब इनसे आंख मूंदे बैठे हैं। मैं तो कहता हूं उन्हें हर क्षेत्र में अपने हिसाब से एनपीए घोषित कर देना चाहिए। जो त्योहार उनके फायदे का न हो, वह एनपीए। जिसमें फायदा दिख रहा हो लेकिन एनपीए का खतरा हो तो एनपीए को पीए में बदलने के लिए वैसे त्योहार में मिठाइयों और तोहफों का लेन-देन। मसलन, दिवाली है तो पटाखों को एनपीए बनाएं और पूरे साल की कृतज्ञता का हिसाब चुकता करें भी और कराएं भी। नेताओं से तो जरूर मेलजोल बनाकर रखें। होली है तो गुझिया-मालपुए और पिचकारी-गुलाल, सबका रंग पीए टाइप का होना चाहिए, वरना आपके ऊपर पुराने से पुराना राष्ट्रद्रोह का कीचड़ उछलना शुरू हो जाएगा। भइया यह बड़ी निराली सरकार है। इसका कोई जवाब नहीं है क्यांेकि किसी मसले पर यह या तो किसी को जवाब ही नहीं देती या फिर पीएमओ की बाट जोहते रहो। होली है तो भी आपको लाल-पीला होने की जरूरत नहीं है, बस भगवा रंग में डूबे रहिए। व्यवस्था के खिलाफ अपने आसपास किसी को बोलने-सुनने का मौका न दें। पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा हो चुकी है तो कोशिश कीजिए कि वहां के देशद्रोहियों की सरकारों को उखाड़ फेंकें। अगली दिवाली तक आपकी झोली में कुछ न कुछ तोहफा जरूर बरसेगा। होली का मौका है, भांग पी सकते हैं लेकिन उसमें सबको दिखाकर थोड़ा केसर भी मिला लें। इस 'होली गवर्नमेंट’ में होली का यही तरीका होना चाहिए।

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