Advertisement

राहत पहुंचाने का समय

“लॉकडाउन से देश का मजदूर लाचार है, तुरंत ठोस योजना को अमल में लाने की जरूरत” प्रवासी कामगार भारतीय...
राहत पहुंचाने का समय

लॉकडाउन से देश का मजदूर लाचार है, तुरंत ठोस योजना को अमल में लाने की जरूरत

प्रवासी कामगार भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल में रहे हैं। ये कामगार उद्योग एवं व्यापार जगत की संपत्ति हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 5.6 करोड़ अंतरराज्यीय प्रवासी हैं, जिनमें से चार करोड़ शहरी क्षेत्रों में रहते हैं और इनमें से 3.4 करोड़ असंगठित क्षेत्र की गतिविधियों में काम करते हैं। मोटे तौर पर भारत के 79 फीसदी प्रवासी मजदूर कारखानों या निर्माण स्थलों में दैनिक मजदूरी के लिए काम करते हैं। कोरोनावायरस महामारी और उसके बाद हुए लॉकडाउन के कारण उत्पन्न हालात में हजारों प्रवासी मजदूरों को नौकरियों से बाहर कर दिया गया है। नौकरी जाने से उनके आवास की भी समस्या उठी, वो सड़कों पर रात बिताने को मजबूर हो गए। विभिन्न राज्यों में सड़कों पर उतरे प्रवासी मजदूर और उनके मुद्दे सार्वजनिक रूप से राज्य सरकारों और प्रशासन के लिए चुनौती बन गए। बढ़ते संकट को कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने 12 फरवरी को ही भांप लिया था। उन्होंने केंद्र सरकार को गंभीर परिणाम के प्रति सचेत भी किया था। यदि समय रहते केंद्र ने उनके सुझाव मान लिए होते, तो सरकार प्रवासी मजदूरों, गरीबों को राशन और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर के माध्यम से विकराल हो चुकी समस्या को रोक सकती थी। ऐसा न करके सरकार ने देश के करोड़ों मजदूरों और गरीबों के बीच विश्वास खो दिया है।

इस अनदेखी का ही परिणाम था कि शायद पहली बार देश के 200 से अधिक शिक्षाविदों और पेशेवरों द्वारा प्रवासी कामगारों की सहायता के लिए तत्काल अपील की गई। 24 मार्च को अचानक देश भर में लॉकडाउन लागू कर दिया गया। इससे केवल चार घंटे के नोटिस पर देश भर में लाखों की संख्या में फैले मजदूर अपने घरों तक पहुंचने की लाचार हो गए। इन परिस्थितियों में सरकार से मुफ्त भोजन, चिकित्सा देखभाल और स्वच्छता से संबंधित राहत की मांग की गई।

कोरोनावायरस फैलने के खतरे को देखते हुए प्रथम चरण के देशव्यापी लॉकडाउन के बीच देश के अलग-अलग हिस्सों में काम करने वाले प्रवासी मजदूर आने-जाने का कोई साधन न मिलने के कारण पैदल या साइकिल से ही सैकड़ों-हजारों किलोमीटर की दूरी तय करने अपने गंतव्य के लिए निकल पड़े। केंद्र ने राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेश के प्रशासनों से लॉकडाउन के दौरान प्रवासी कामगारों की आवाजाही रोकने के लिए प्रभावी तरीके से राज्य और जिलों की सीमा सील करने को कहा है। प्रवासी मजदूरों सहित जरूरतमंद और गरीब लोगों को खाना और आश्रय मुहैया कराने के लिए समुचित इंतजाम करने के निर्देश दिए गए, जिसका अंजाम भी हमने देखा। लोगों को परिवार सहित घंटों लाइन में खड़ा रहना पड़ा है। दिल्ली में गरीबों और जरूरतमंदों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए दिल्ली सरकार ने 325 सरकारी स्कूलों, 224 आश्रय स्थलों के उपयोग का दावा किया, फिर भी दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद बॉर्डर पर जिस तरह मजदूरों की भीड़ उमड़ी वह उनकी व्यथा कहने के लिए काफी थी। बिहार, नेपाल, बंगाल और झारखंड सहित अन्य राज्यों से लगने वाली सीमा पर मजदूरों की भीड़ और सरकारों की उथल-पुथल हम देख चुके हैं। राज्यों की राजनीति भी खूब उजागर हुई और उनकी संवेदनशीलता भी नजर आई। 

गृह मंत्रालय ने 29 मार्च को एक आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि नियोक्ताओं को काम का पूरा भुगतान करना चाहिए और मकान मालिकों को फंसे हुए कामगारों से किराया नहीं लेना चाहिए, लेकिन इस बात का शायद ही पालन किया गया। इसी बीच रेलवे ट्रैक के रास्ते औरंगाबाद, महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश लौट रहे 16 मजदूरों की मौत ट्रेन की चपेट में आकर हो गई। इसी तरह कई मजदूरों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया, जिनके आंकड़े भी नहीं हैं। प्रवासी कामगार उपेक्षित और अवसादग्रस्त नजर आ रहे हैं। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के मातादीन धनखड़ पुणे और पिंपरी-चिंचवड़ में बाहरी महसूस करते हैं। वे वहां संगमरमर कारीगर के रूप में काम करते हैं। वह अपने दिवंगत भाई के बच्चों को शिक्षा दिलाना चाहते हैं। अब, पिंपरी में उन्हें एक नगरपालिका स्कूल में जबरन रखा गया है, जो इन प्रवासी श्रमिकों के लिए आश्रय स्थल में बदल दिया गया है। उन्हें अपने पैतृक गांवों की ओर पैदल चलने या ट्रक पर चढ़ वहां जाने से रोक दिया गया था। उनका कहना है, उन्हें यहां कैदी की तरह महसूस होता है और उनके मन में खुद को मारने जैसे विचार भी आते हैं।

हालांकि लॉकडाउन के तीसरे चरण में दूसरे राज्यों में फंसे लोगों को घर वापस लाने के लिए अनुमति दी गई, जिसका कुछ राज्यों ने संसाधनों की कमी का रोना भी रोया। कुछ राज्यों की मांग पर केंद्र सरकार ने विशेष ट्रेनों से मजदूरों और दूसरे लोगों को वापस लाने की अनुमति दी है। भारत सरकार द्वारा प्रवासी श्रमिकों के कल्याण के लिए 29 हजार करोड़ रुपये के उपयोग के लिए राज्य सरकारों को अनुमति भी दी गई। राजमिस्‍त्री का काम करने वाले केरल से दानापुर लौटे मजदूर कहते हैं, “पास में रखे कुछ पैसे से कुछ दिन तो काम चला लेकिन अब नहीं आते तो भीख मांगना पड़ता। लेकिन भीख भी कौन देता?” मजदूरों ने यहां तक कहा कि “साहब कोरोना से बाद में मरते, भुखमरी से पहले मर जाते।” 

विभिन्न स्थानों पर फंसे प्रवासी कामगारों को घर भेजने का फैसला केंद्र ने देरी से लिया। प्रवासी श्रमिकों के दुख-दर्द के बारे में कभी नहीं सुना गया। आज लाखों की संख्या में मजदूर अपने राज्य और शहर लौट रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठ रहा है कि दूसरे राज्यों से आने वाले इन लोगों को सरकार कहां रखेगी और उन्हें घर भेजने की प्रक्रिया क्या होगी? 17 लाख बिहारी प्रवासी मजदूरों को लेकर मुख्यमंत्री की चिंता स्वाभाविक है। जिस तादाद में मजदूर अपने राज्यों में लौटे हैं क्या वहां उन्हें क्वारंटीन करने और खाने-पीने की सुविधाएं हैं? फिलहाल किस राज्य के कितने लोग दूसरे राज्यों में फंसे हैं यह आंकड़ा भी नहीं है। सूरत से ओडिशा के गंजाम जिले में लौटे 100 से भी अधिक प्रवासी श्रमिकों ने जरूरी सहूलियतों के न होने और खराब खाना दिए जाने का विरोध किया। वे बेगुनिआपाड़ा में बने दो क्वारंटीन सेंटर छोड़कर पैदल ही अपने गांव चले गए। राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन के समक्ष यह गंभीर चुनौती है। वहीं, प्रवासी मजदूरों के सामने आजीविका का साधन ज्वलंत समस्या है। राज्य सरकारें मनरेगा के तहत कार्य प्रदान करने की बात कर रही हैं, लेकिन यह कितना हो पाएगा? स्ट्रीट वेंडिंग जैसे क्षेत्र, जिसे शहरों में कभी भी नगर पालिकाओं ने गरीबों की आजीविका का साधन समझ प्रमुखता नहीं दी, अब यह शहरों में वापस लौट रहे प्रवासी मजदूरों के सामने रोजगार के साधन का विकल्प हो सकता है। शहरों के साथ कस्बों पर भी आजीविका का दबाव बनने की पूरी संभावना है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था भी बेपटरी हो रही है। सरकार से मजदूरों का भरोसा उठ गया है। इसका विपरीत प्रभाव आने वाले दिनों में बड़े उद्योगों और निर्माण क्षेत्रों पर भी पड़ेगा। इसकी आंच मजदूर वर्ग से उठकर मध्यम और उच्च वर्ग तक पहुंचेगी। कर्नाटक सरकार शायद इस परिस्थिति को भांप रही है, तभी वह प्रवासी मजदूरों की घर वापसी मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। लेकिन श्रमिकों के इस तरह के पलायन से न सिर्फ राष्ट्रीय मंदी पर असर पड़ेगा बल्कि यह संक्रमण समाप्त होने के बाद भी परिस्थितियों को सामान्य होने में देरी का एक बड़ा कारण बनेगा।

ऐसे में, जरूरी है कि सरकार स्थायी समाधान की ओर अग्रसर दिखे। सरकार को ऐसी ठोस रणनीति बनानी चाहिए कि आने वाली किसी भी आपदा या संकटकालीन स्थिति से निपटने के लिए राजनीति से परे प्रवासी मजदूरों के जीवन और आजीविका के अधिकार को संरक्षित किया जा सके। साथ ही, सरकार को चाहिए कि वह मजदूरों और गरीबों में अपना खोया हुआ विश्वास फिर जगाए।

•             अंतर-राज्य प्रवास परिषद की स्थापनाः देश को इस समय प्रवासी कामगारों की पीड़ा और इसके समुचित समाधान के लिए इंटर स्टेट माइग्रेशन काउंसिल की स्थापना करनी चाहिए। यह परिषद विशेष रूप से अंतरराज्यीय प्रवास से संबंधित प्रवासी कामगारों के कई मुद्दों को हल कर सकती है।

•             असंगठित श्रमिकों का पंजीकरण: 2014 में वर्तमान सरकार ने 47 करोड़ असंगठित श्रमिकों को यूडब्ल्यूआइएन कार्ड का वादा किया था। इस संकट ने उजागर किया है कि असंगठित श्रमिकों के पंजीकरण के संदर्भ में सरकारें कितनी तैयार हैं। हालांकि, कुछ योजनाओं की घोषणा की गई थी, लेकिन इसका कोई फायदा होता नहीं दिख रहा। दिल्ली में निर्माण श्रमिकों का उदाहरण लें, यहां केवल 40,000 श्रमिकों को इसका लाभ हुआ, जबकि दिल्ली में इनकी संख्या 10 लाख है।

•             सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की पोर्टेबिलिटी:  वन नेशन वन राशन कार्ड का त्वरित और प्रारंभिक कार्यान्वयन हो। सभी असंगठित श्रमिकों की राशन सहित सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक पहुंच होनी चाहिए।

•             केवाईसी मानदंडों में छूट: कोविड-19 की इस अवधि में बैंकों में केवाईसी मानदंडों में ढील दी जानी चाहिए, ताकि कामगार अपने बैंक खातों को संचालित करने में सक्षम हों।

•             ब्याज मुक्त ऋण: चूंकि बड़ी संख्या में असंगठित श्रमिक स्वरोजगार भी करते हैं, इसलिए उन्हें महाजनों के हाथों में पड़ने से बचाया जाना चाहिए, क्योंकि अधिकांश ने अपनी पूंजी भोजन में समाप्त कर ली है और उन्हें अपने व्यवसाय को फिर से शुरू करने के लिए मदद की आवश्यकता है। सरकार को उनके लिए ब्याज मुक्त ऋण शुरू करना चाहिए।

• आजीविका की सुरक्षा को बढ़ावा देना: ई- कॉमर्स कंपनियों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और ये आक्रामक भी रहेंगी। इसलिए सरकार को छोटे स्वरोजगार वाले लोगों की आजीविका की रक्षा को और बढ़ावा देना चाहिए|

(लेखक अखिल भारतीय असंगठित कामगार कांग्रेस के चेयरमैन हैं।)

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad