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डीएम होने के मायने

“प्रशासनिक सेवा में ग्रामीण परिवेश या साधारण परिवारों से आने वालों की संख्या बढ़ना सुखद संकेत...
डीएम होने के मायने

“प्रशासनिक सेवा में ग्रामीण परिवेश या साधारण परिवारों से आने वालों की संख्या बढ़ना सुखद संकेत है”

अक्सर कहा जाता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सारी राजनीतिक-प्रशासनिक शक्तियां पीएम, सीएम और डीएम की त्रिमूर्ति में ही निहित होती है। पीएम यानी प्रधानमंत्री और सीएम यानी मुख्यमंत्री की तकदीर का फैसला तो पांच साल के अंतराल पर जनता-जनार्दन करती है। उनकी सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन उनसे इतर, डीएम यानी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट इस व्यवस्था में सदा के लिए है। बिलकुल एक हीरे की तरह। वैसे तो सूबे की प्रशासनिक संरचना में डीएम एक कनिष्ठ पदाधिकारी होता है, लेकिन कार्यपालिका का वह सबसे जीवंत प्रतीक है। जिले का वह न सिर्फ सर्वोच्च अधिकारी, बल्कि सत्ता और जनता के बीच का ऐसा सेतु है, जिसके माध्यम से कल्याणकारी योजनाओं के समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचने की अपेक्षा की जाती है। अपने कार्य क्षेत्र की हर घटना और दुर्घटना के लिए वही जिम्मेदार है। बाढ़ हो या सूखा, सांप्रदायिक दंगे या जातिगत तनाव, आम चुनाव या वैश्विक महामारी, वीवीआइपी का औचक निरीक्षण या आतंकवादी खतरा, डीएम साहब को 100 मीटर की दौड़ में भाग ले रहे उस प्रतियोगी की तरह चौकस रहना है, जिसके भागने की सीटी किसी भी क्षण बज सकती है। वह एक सुपरमैन है, अपने कंधों पर जिम्मेदारियों से भरी पोटली लेकर उड़ान भरने को तैयार।

वारेन हेस्टिंग्स ने कलेक्टर के रूप में संभवतः ऐसे ही निष्काम महामानव की परिकल्पना की होगी। इस पद पर नियुक्त युवा को तमाम वैधानिक अधिकार भी दिए गए होंगे ताकि वह जिले में शासन बदस्तूर चला सके। अगर आज भी आप किसी सुदूर पिछड़े जिले में जाएं तो अहसास होगा कि आजादी के बाद अगर कुछ नहीं बदला है तो वह है डीएम साहब का रुतबा। इंडियन सिविल सर्विस भले इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस में बदल गई, लेकिन कलेक्टर साहब का आभामंडल फीका नहीं पड़ा है। संभवतः हमारी व्यवस्था के साथ-साथ मानसिकता में भी उपनिवेशवाद के अवशेष आज भी फल-फूल रहे हैं।

क्या इसी रौब और रुतबे के वजह से आइएएस अधिकारी बनना आज भी देश के अधिकतर युवाओं का हसीनतम सपना है? हर साल लाखों अभ्यर्थी इसे साकार करने के लिए कठिन प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल होते हैं। इनमें से कई डॉक्टर या इंजीनियर होते हैं। कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मोटी पगार की तिलांजलि देकर आते हैं, इस बात से बेपरवाह कि अब ‘फोर्ब्स’ पत्रिका के धनाढ्य शख्सियतों की फेहरिस्त में उनका नाम कभी शुमार नहीं हो सकता। दरअसल, इसकी मूल वजह यह है कि प्रशासनिक सेवा युवाओं के लिए समाज में बदलाव लाने की असीम संभावनाओं के द्वार खोल सकती है। लेकिन क्या हर सफल अभ्यर्थी उस सकारात्मक परिवर्तन की वजह बन पाता है, जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है?

अमूमन डीएम का प्रभार ग्रहण करने तक तो उनमें देश और समाज के प्रति भावनाएं भरी हो सकती हैं, लेकिन उनकी असली अग्निपरीक्षा तब शुरू होती है जब इस अवधि में उन्हें अवांछित राजनैतिक और प्रशासनिक दवाब झेलना पड़ता है। यही अनुभव उनके आदर्शवादी सपनों के टूटने का सबब भी बनते हैं। उन्हें महसूस होता है कि जिस करिअर को उन्होंने स्टील-फ्रेम समझकर चुना था, वह किसी मौर्यकालीन लौह-स्तंभ की तरह जंगरोधक नहीं रहा। जिस व्यवस्था को वे दुरुस्त नहीं कर सकते, बाद में उसका अंग बनना ही पसंद करते हैं। धीरे -धीरे जमीनी हकीकत उन्हें अपने सियासी आकाओं की शान में कसीदे पढ़ने का व्यावहारिक पाठ सीखा देती है। यही पाठ उनके करिअर में प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है।

ऐसा नहीं है कि आज का हर युवा अधिकारी उसूलों से समझौता कर लेता है। कुछ मजबूत रीढ़ वाले भी होते हैं, जिनमें समाज के लिए कुछ करने का जुनून ताउम्र बना रहता है। ऐसे अधिकारी तो सिस्टम का हिस्सा बनने के बजाय नौकरी छोड़ना पसंद करते हैं और जो बच जाते हैं, उन पदों पर प्रतिनियुक्त किये जाते हैं, जहां गोल्फ खेलने और ई.एल. जेम्स के उपन्यास पढ़ने के लिए वक्त की कमी नहीं रहती है।

फिर भी, तमाम चुनौतियों और मुश्किलों के बावजूद सिविल सर्विस की प्रतिष्ठा बरकरार है। यह महज इसमें निहित शक्तियों या ग्लैमर के लिए नहीं हो सकता। शायद ही किसी दूसरी नौकरी में गरीब से गरीब परिवार से आये मेधावी युवा को समाज में बदलाव करने के इतने मौके मिलते होंगे। जैसा इस अंक की आवरण कथा से स्पष्ट है, अब ग्रामीण परिवेश या साधारण परिवारों से आने वाले सफल अभ्यर्थियों की संख्या बढ़ रही है। यह सुखद संकेत है। जो जीवन में संघर्ष करते हुए इस मुकाम पर पहुंचा है, उससे यह उम्मीद रखना लाजिमी है कि वह उस जज्बे और जुनून को जिंदा रखेगा जिसके साथ उसने प्रशासनिक सेवा में प्रवेश किया है। भले ही सिविल सर्विसेज स्टील-फ्रेम न रहा हो, लेकिन कोई ईमानदार अधिकारी आज भी समाज के अंतिम आदमी के लिए सुपरमैन बन सकता है, बशर्ते वह दायित्वों के प्रति संजीदा हो और हर छह माह में मिलने वाले तबादले के आदेश से अविचिलित रहकर देश के विकास की धुन में रमा रहे।

@giridhar_jha

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