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कुर्सियों के संग्रहालय में संग्रह करने लायक क्या?

कई बार तीनमूर्ति भवन गया हूं। जवाहरलाल की स्मृतियों को हर बार कई कोणों से निहारा है। हर बार यह पछतावा...
कुर्सियों के संग्रहालय में संग्रह करने लायक क्या?

कई बार तीनमूर्ति भवन गया हूं। जवाहरलाल की स्मृतियों को हर बार कई कोणों से निहारा है। हर बार यह पछतावा गहरा ही हुआ है कि इतना बड़ा परिसर, इतनी बड़ी कोठी और इतना सारा तामझाम आज़ाद भारत के सर पर थोप कर जवाहरलाल ने देश का क्या उपकार किया ? वह तामझाम देश के माथे लदा रह गया, जवाहरलाल नहीं रहे।

तीनमूर्ति जाने पर इसके अलावा भी कुछ दिखाई देता था। सारे तामझाम के बीच जवाहरलाल के निजी जीवन की सादगी हैरान करती थी। वहां जो झलकता था वह था भारत को नया बनाने की दिशा में की गई उनकी बेहिसाब जद्दोजहद। वह इतिहास ले कर हम वहां से लौटते थे। वह किसी व्यक्ति का या किसी पद का संग्रहालय नहीं था, एक दौर की दुनिया थी जिससे जुड़ने का अहसास वहां होता था।

अब तीनमूर्ति से जवाहरलाल की उस मूर्ति को प्रधानमंत्री की मूर्ति में बदल दिया गया है। ऐसा बताने की कोशिश की जा रही है कि जवाहरलाल कुछ विशेष नहीं थे, देश के प्रधानमंत्रियों में एक थे। ऐसी कोशिश करने वाले यह भूल जाते हैं कि प्रधानमंत्री कोई भी बन सकता है, बनता ही रहा है लेकिन जवाहरलाल कोई भी नहीं बन सकता है।

मुझे पता नहीं है कि दुनिया में कहीं किसी पद का कोई संग्रहालय बना हुआ है या नहीं। संग्रहालय विस्मृत प्रकृति-प्राणियों के होते हैं; बीते जमाने के वैभव के होते हैं; ऐतिहासिक घटनाओं के होते हैं या फिर उनके होते हैं जिनके ईर्द-गिर्द इतिहास आकार लेता है। कुर्सियों के संग्रहालय में संग्रह करने लायक और उससे आज के वक्त को मिलने लायक क्या होगा, मैं समझ नहीं पाता हूं।

सरकारी अधिकारियों/प्रशासकों के दफ्तरों में आप देखते होंगे कि एक तख्ती लगी होती है जिस पर वर्षानुक्रम से दर्ज होता है कि इस कुर्सी पर कौन, कब से कब तक बैठा; और आज उस पर जो महाशय विराजमान हैं उनका प्रारंभ-काल दर्ज होता है और अंतकाल की जगह खाली छोड़ी होती है जो इन महाशय को याद दिलाती रहती है कि आप भूतपूर्व बनने से कितनी दूर हैं। उस तख्ती का न तो दूसरा कोई मतलब होता है और न वह दूसरा कोई भाव जगाती है। काठ की वह तख्ती, काठ हो गए इतिहास का भी कोई संदेश नहीं दे पाती है। कुर्सियां इससे अधिक न कुछ जानती हैं, न कह सकती हैं।

प्रधानमंत्री की कुर्सियों का संग्रहालय क्या कहेगा हमसे ? यही न कि कौन, कब से कब तक इस कुर्सी पर बैठा? इससे प्राइमरी स्कूल के बच्चों की किताब का एक पन्ना तैयार हो सकता है, देश का इतिहास नहीं जाना जा सकता है। यह संग्रहालय यह तो नहीं बताएगा कि कौन, किस परिस्थिति में, इस कुर्सी पर बैठा और कितना सक्षम या अक्षम साबित हुआ? इस बड़ी कुर्सी पर पहुंचने के लिए किसने कितने छोटे उपक्रम किए, क्या इस संग्रहालय में यह भी दर्ज होगा? इतिहास में जिसकी जो जगह नहीं है, उस पर काबिज होने की कोशिशों का यह खतरा है।

देश के दूसरे सभी प्रधानमंत्रियों से जवाहरलाल अलग हैं। बहादुरी में, ज्ञान में, इतिहास-बोध में! इस अर्थ में भी कि उन्होंने बला की दीवानगी से इस देश का इतिहास बनाया और उतनी ही शिद्दत से इसका वर्तमान सजाया। आजादी लाने व आज़ाद भारत बनाने का ऐसा योग सबके हिस्से में तो आ भी नहीं सकता है।

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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