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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास ‘तारापुर शहीद दिवस’ की चर्चा के बिना अधूरा

अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए-आजादी की घटनाओं की फेहरिस्त में निश्चित तौर पर तारापुर की घटना शीर्ष पर शुमार...
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास ‘तारापुर शहीद दिवस’ की चर्चा के बिना अधूरा

अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए-आजादी की घटनाओं की फेहरिस्त में निश्चित तौर पर तारापुर की घटना शीर्ष पर शुमार है। दरअसल, राष्ट्रीय झंडा फहराते हुए किसी एक घटना में एक समय पर सबसे ज्यादा योद्धाओं ने अपनी प्राणों की आहुति दी थी। तारापुर गोलीकांड में 75 राउंड गोलियां चलाई गई थी। अंग्रेज कलक्टर और एसपी वहां मोजूद थे। सब कुछ दोनों तरफ से पूर्व नियोजित था। अर्थात क्रांतिकारी झंडा फहराने के लिए कफ़न बांध कर निकले थे। शहीदों के नाम पढ़कर यह भी साफ है कि सभी जाति-वर्ग के लोगों ने मिलकर अपने खून से आजादी लिखी है। फिर भी इस शहीद स्थल पर खड़ा 1915 में स्थापित ब्रिटिशकालीन थाना भवन को अभी भी धरोहर के रूप में अपने सम्मान की आस है। हालांकि राज्य सरकार द्वारा पार्क बनवाये जा रहे और कुछ मूर्तियां भी लगाई गई है। मगर कायदे से पूरे परिसर का अधिग्रहण करके उसको राष्ट्रीय प्रेरणा स्थल के तौर पर संग्रहालय बनाकर विकसित करना चाहिए। बहरहाल आजादी के अमृत काल में उन शहीदों की कहानी बता रहे हैं-

भारतवर्ष के गौरवशाली अतीत का स्वर्णिम अध्याय लिखने वाले तारापुर के बलिदानी वीर हमारी स्मृतियों में जीवित हैं वो मर नहीं सकते। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है – “ न जायते म्रियते वा कदाचि –न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:। अजो नित्यः शाश्वात्यो अयं पुराणो – न हन्यते हन्यमाने शरीरे।"


तारापुर के बलिदानियों के राष्ट्र प्रेम के तत्व ने कालचक्र की सीमाओं के पार जाकर उन्हें अमर कर दिया। और आज जब भारत आज़ादी के 75 वें वर्ष का समारोह – अमृत महोत्सव मना रहा है। इस अमृत काल में इतिहास में अछूते रह गए उन राष्ट्र नायकों की जीवनी, उनसे जुड़ी जगहों और घटनाओं को प्रकाश में लाने का भागीरथी प्रयास हो रहा है, जिनकी वजह से हमें आजादी मिली।

प्रसन्नता का विषय यह है कि ऐसे राष्ट्रनायकों और स्वातंत्रय वीरों को, घटनाओं को और इनसे जुड़े स्थलों को दुनिया के सामने लाकर उनका यथोचित सम्मान करने के विजन को हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सफलता पूर्वक क्रियान्वयित किया है। चाहे सरदार वल्लभ भाई पटेल स्मारक के रूप में स्टेचू ऑफ़ यूनिटी की स्थापना हो , नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करना और उनके जयंती को पराक्रम दिवस घोषित करना हो या अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद के जन्मस्थान आजाद कुटिया पर जाकर उन को सम्मान देना हो या आज़ाद हिन्द फ़ौज के लालतीराम (98 वर्ष), परमानंद (99 वर्ष ), हीरा सिंह (97 वर्ष), और भागमल (95 वर्ष) सिपाहियों को 70वें गणतंत्र दिवस परेड का हिस्सा बनाने का काम हो, उन्होंने इतिहास को पुनर्जीवित किया है। इसी कड़ी में 31 जनवरी 2021 को प्रसारित ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी जी ने इतिहास के एक और अछूते अध्याय का जिक्र किया तो देश भर में तारापुर शहीद दिवस का इतिहास खोजा जाने लगा है।

15 फरवरी 1932 का वो बलिदानी दिन तारापुर ही नहीं समूचे भारतवर्ष के लिए गौरव का दिन है जब क्रांतिकारियों के धावक दल ने थाना पर फहराते हुए जान की बाजी लगा दी थी। तारापुर ब्रिटिश थाना पर राष्ट्रीय झंडा फहराने के क्रम में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का दूसरा सबसे बड़ा गोलीकांड आज 90 वर्ष पुरे कर रहा है जब 34 सपूतों ने अपना बलिदान दिया था।

यूँ तो वीर बलिदानियों की धरती ‘तारापुर’ और आसपास में आज़ादी का अंकुर सन 1857 की ऐतिहासिक क्रांति से दशकों पहले ही फूट पड़ा था जब ब्रिटिश शासन से 14 वर्षों तक लोहा लेने वाले क्रांतिकारी तिलका मांझी को 1785 में फांसी चढाई गई थी। पूरे क्षेत्र में स्वतंत्रता की जनआकांक्षा के अंकुर ने कालान्तर में आकार लेना प्रारंभ कर दिया था। सन 57 में बाबु वीर कुंवर सिंह के अस्सी वर्षों की हड्डी में जागे जोश ने जब अंग्रेजी झंडे को जगदीशपुर से उखाड़ फेंका तो मानो बिहार की तरुनाई आज़ादी की अंगडाई लेने लगी। समय बीतता गया और मातृभूमि की स्वतंत्रता की यह लड़ाई गाँव-कस्बों तक पहुँचने लगी थी, सन 32 का तारापुर गोलीकांड और सन 42 में जनता सरकार की स्थापना इसका जीवंत उदाहरण है।


भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अलग-अलग कालखंड में बिहार के राष्ट्रभक्तों ने अपने साहसिक और बलिदानी प्रयासों से अपनी अमिट छाप छोड़ी है। वक्त के साथ मुंगेर-भागलपुर सहित अंग क्षेत्र बिहार में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया था। मातृभूमि की रक्षा के लिए जान लेने वाले और जान देने वाले दोनों तरह के सेनानियों ने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर रखा था।

स्वतंत्रता आंदोलन में तारापुर की बात करें तो , तारापुर का हिमालय ‘ढोल पहाड़ी’ इन्डियन लिबरेशन आर्मी का शिविर था, जिसका संचालन क्रांतिकारी बिरेन्द्र सिंह करते थे ,इनके प्रमुख सहायक डॉ भुवनेश्वर सिंह थे। यहाँ के शिविर में दर्जनों ऐसे क्रान्तिकारी थे जो अपने क्रांतिकारी नेता के एक इशारे पर देश की आजादी के लिए जान हथेली पर लेकर घूमते थे।
स्वतंत्रता के सिपाहियों का दूसरा बड़ा केन्द्र संग्रामपुर प्रखंड के सुपौर जमुआ ग्राम स्थित ‘श्रीभवन’ से संचालित होता था। जहां उस वक्त कांग्रेस से बड़े -बड़े नेता भी आया करते थे | इसी केन्द्र से तारापुर “ तरंग “ और “ विप्लव “ जैसी क्रांतिकारी पत्रिका छपती थी। तारापुर में भी स्वतंत्रता के लिए नरम दल और गरम दल दोनों तरह के सेनानी सक्रीय थे। देशव्यापी किसी भी अभियान की प्रतिध्वनि तारापुर में अवश्य गूंजती थी।

उनदिनों बिहार के अंग क्षेत्र में मुंगेर, भागलपुर, खगडिया, बेगुसराय सहित कोसी के इलाकों तक जनमानस अनेक छोटी-छोटी घटनाओं से सुलग रहा था। इसी दौरान 23 मार्च 1931 को सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी ने पूरे देश के युवाओं में उबाल ला दिया। आज़ादी का विचार आग की तरह गाँव-कस्बों तक पहुँचने लगा था। उधर 1931 में गाँधी–इरविन समझौता भंग हो चूका था और 27 दिसम्बर 1931 को गोलमेज सम्मेलन लंदन से लौटते ही 1 जनवरी 1932 को जब महात्मा गाँधी ने पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन को प्रारंभ कर दिया तो ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर सभी कांग्रेस कार्यालय पर भारत का झंडा (तत्कालीन कांग्रेस का झंडा) उतार कर ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक लहरा दिया। 4 जनवरी को गांधी जी गिरफ्तार हो गए थे। सरदार पटेल , जवाहर लाल नेहरु और राजेंद्र बाबू जैसे दिग्गज नेताओं सहित हर प्रान्त के प्रमुख लोगोंको गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजी हुकुमत इस दमनात्मक कार्यवाई और भारत पर उनकी नाजायज हुकुमत के खिलाफ देशभर में एक आक्रोश पनपने लगा था। ऐसे वातावरण में अंग्रेजों के क्रिया की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। लार्ड विलिंग्डन के उस ऐतिहासिक दमन से मुंगेर भी अछूता नहीं रह पाया था श्रीकृष्ण सिंह ,नेमधारी सिंह ,निरापद मुखर्जी , पंडित दशरथ झा ,बासुकीनाथ राय दीनानाथ सहाय ,जय मंगल शास्त्री आदि गिरफ्तार हो चुके थे।

ऐसे में युद्धक समिति के प्रधान सरदार शार्दुल सिंह कवीश्वर द्वारा जारी संकल्प पत्र कांग्रेसियों और क्रांतिकारियों में आजादी का उन्माद पैदा कर गया और इसकी स्पष्ट गूंज 15 फरवरी 1932 को तारापुर के जरिये लन्दन ने भी सुनी। सरदार शार्दुल सिंह के द्वारा प्रेषित संकल्प पत्र में स्पष्ट आह्वान था कि सभी सरकारी भवनों पर तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज लहराया जाए। उनका निर्देश था कि प्रत्येक थाना क्षेत्र में पांच ध्वजवाहकों का जत्था राष्ट्रीय झंडा लेकर अंग्रेज सरकार के भवनों पर धावा बोलेगा और शेष कार्यकर्त्ता 200 गज की दूरी पर खड़े होकर सत्याग्रहियों का मनोबल बढ़ाएंगे।

तारापुर में ‘श्री भवन' की बैठक युद्धक समिति के प्रधान सरदार शार्दुल सिंह कवीश्वर के आदेश को कार्यान्वित करने के लिए वर्तमान में संग्रामपुर प्रखंड के सुपोर-जमुआ गाँव के ‘श्री भवन‘ में इलाके भर के क्रांतिकारियों, कांग्रेसियों और अन्य देशभक्तों ने हिस्सा लिया। बैठक में मदन गोपाल सिंह (ग्राम – सुपोर-जमुआ), त्रिपुरारी कुमार सिंह (ग्राम-सुपोर-जमुआ), महावीर प्रसाद सिंह(ग्राम-महेशपुर), कार्तिक मंडल(ग्राम-चनकी)और परमानन्द झा (ग्राम-पसराहा) सहित दर्जनों सदस्यों का धावक दल चयनित किया गया।

15 फरवरी 1932 का वह बलिदानी दिन

15 फ़रवरी सन 1932 सोमवार को तारापुर थाना भवन पर राष्ट्रीय झंडा तिरंगा फहराने के कार्यक्रम की सूचना पुलिस को पूर्व में ही मिल गयी थी। इसी को लेकर ब्रिटिश कलेक्टर मिस्टर ई० ओ. ली डाकबंगले में और एसपी डब्ल्यू.एस. मैग्रेथ सशस्त्र बल के साथ थाना परिसर में मौजूद थे। दोपहर 2 बजे धावक दल ने ब्रिटिश थाना पर धावा बोला और अंग्रेजी सिपाहियों की लाठी और बेत खाते हुए अंततः ध्वज वाहक दल के मदन गोपाल सिंह ने तारापुर थाना पर तिरंगा फहरा दिया। उधर दूर खड़े होकर मनोबल बढ़ा रहे समर्थक धावक दल पर बरसती लाठियों से आक्रोशित हो उठे। गुस्से से उबलते नागरिकों और पुलिस बल के बीच संघर्ष और लाठीचार्ज हुआ जिसमें कलेक्टर ई० ओ० ली० घायल हो गये, पुलिस बल ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर कुल 75 चक्र गोलियाँ चलाई जिसमें कुल 34 क्रान्तिकारी शहीद हुए एवं सैंकडों क्रान्तिकारी घायल हुए।



तिरंगे की आन पर जो हो गए बलिदान

तिरंगे की आन पर खुद को बलिदान कर देने वाले 34 वीर शहीदों में से मात्र 13 की ही पहचान हो पाई थी ,वो थे शहीद विश्वनाथ सिंह (छत्रहार), महिपाल सिंह (रामचुआ), शीतल चमार (असरगंज), सुकुल सोनार (तारापुर), संता पासी (तारापुर), झोंटी झा (सतखरिया), सिंहेश्वर राजहंस (बिहमा), बदरी मंडल (धनपुरा), वसंत धानुक (लौढि़या), रामेश्वर मंडल (पड़भाड़ा), गैबी सिंह (महेशपुर), अशर्फी मंडल (कष्टीकरी) तथा चंडी महतो (चोरगांव)। इसके अलावे 21 पार्थिव शव ऐसे मिले जिनकी पहचान नहीं हो पायी थी। उस दौर के प्रत्यक्षदर्शियों की कही बाते बताते हुए स्थानीय लोग इस गोलीकांड में 60 से ज्यादा सेनानियों के मारे जाने की बात कहते हैं। उनके मुताबिक पुलिस द्वारा बहुत से शव तो गंगा में बहा दिए गए थे।

(लेखक तारापुर शहीदों के लिए अभियान चलाने वाली संस्था युवा ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं।)

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