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नजरिया: कांग्रेस की आखिरी लड़ाई

"10 जनपथ का परदा हटा, 24 अकबर रोड का दरवाजा खुला, मगर कई सवाल बाकी” यह कांग्रेस की अपनी लड़ाई है। ताकत...
नजरिया: कांग्रेस की आखिरी लड़ाई

"10 जनपथ का परदा हटा, 24 अकबर रोड का दरवाजा खुला, मगर कई सवाल बाकी”

यह कांग्रेस की अपनी लड़ाई है। ताकत बटोरने और दोबारा उठ खड़े होने की लड़ाई। इसमें एक तरफ जी-23 है तो दूसरी तरफ गांधी परिवार के करीबी वे नेता, जिनके हाथ कांग्रेस की कुंजी थमा दी गई है। कांग्रेस के बाहर एक तरफ मोदी-सत्ता है तो दूसरी तरफ बिना किसी योजना के उसे चुनौती देते दिखता गांधी परिवार है। दोनों हालात के केंद्र में गांधी परिवार है। बिना गांधी परिवार न तो कांग्रेस है, न ही मोदी-सत्ता से लड़ने की ताकत। लेकिन पहली बार कांग्रेस इस सवाल से रू-ब-रू है कि जो पार्टी बरसों बरस सत्ता संभालती रही, उसके नेता इतने कमजोर कैसे हो गए? सवाल देश के भीतर बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट का भी है और अंतरराष्ट्रीय ताकतों के साथ संबंध रखने का भी। कांग्रेस ही वह पार्टी है, जिसमें सभी ताकतों के नुमाइंदों की मौजूदगी है। लेकिन कांग्रेस बिखर रही है, बंट रही है। कांग्रेसी उम्मीद खोकर कांग्रेस छोड़ रहे हैं और कांग्रेसी ही पुरानी कांग्रेस को खड़ा करने की मशक्कत में आपस में ही संघर्ष करते दिख रहे हैं।

ऐसे में सवाल तीन हैं। एक, राहुल गांधी जिस कांग्रेस को खड़ा करना चाहते हैं, क्या वह ऐसी बड़ी लकीर खींच सकती है जिससे मोदी-सत्ता धराशायी हो जाए? दूसरे, राहुल गांधी की नई कांग्रेस में क्या पुराने अनुभवी कांग्रेसियों की कोई जगह नहीं है? तीसरे, दोनों हालत में कहीं कांग्रेस के आस्तित्व का ही संकट तो नहीं गहराने लगा है? असल सवाल तीसरा है, जिसने पहली बार संकेत दे दिए हैं कि राहुल की बड़ी लकीर से पहले कांग्रेस को एक साथ खड़ा करना जरूरी है। तो, 10 जनपथ का परदा भी हटा है और 24, अकबर रोड के दरवाजे भी खुले हैं। संगठन के पदों से लेकर राज्यवार नए हाथों में नई रणनीति के साथ कांग्रेस को मथना जरूरी है, इसे सोनिया गांधी के अनुभव और राहुल गांधी के तेवर ने स्वीकार कर लिया है। यानी जो वोट बैंक का नेता है, उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता। मतलब यह कि गांधी परिवार के करीबी भूपेंद्र सिंह हुड्डा को चुनौती न दें, गुलाम नबी आजाद के अनुभव और आंनद शर्मा की उपयोगिता को खारिज न करें। लेकिन जी-23 की कतार अगर यह सोचे कि गांधी परिवार के चहेतों पर कोई गाज गिर जाएगी और चुनौती देकर वे सब कुछ अपने अनुकूल कर लेंगे तो 24,अकबर रोड से निकलता मैसेज साफ है कि यह संभव नहीं है। सभी को साथ बैठना होगा। कुछ मिटा कर, नया लिखने की फितरत से ऊपर उठना होगा। समूची कांग्रेस के कार्यक्रम को नए सिरे से गढ़ना होगा।

मतलब यह कि कांग्रेस के भीतर और बाहर की लड़ाई में अगुआई गांधी परिवार को ही करनी है। अध्यक्ष पद के लिए जैसे ही राहुल गांधी का नाम आएगा, हर नेता खामोश हो जाएगा। लेकिन राहुल गांधी के नाम पर कोई दूसरा अगर कांग्रेस को हांकेगा तो पुराने कांग्रेसी कैसे बर्दाश्त करेंगे? राहुल इस हकीकत से वाकिफ हैं कि जी-23 की पूरी कतार कांग्रेस की सत्ता की प्रतीक है। कोई मुख्यमंत्री रहा है तो कोई कैबिनेट मंत्री। अब कांग्रेस के पास सत्ता नहीं है, उसे संघर्ष की जरूरत है। तो, राहुल गांधी संघर्ष करने वालों के साथ खड़े हों या सत्ता के जरिए पहचान पाने वाले कांग्रेसियों के साथ। 24,अकबर रोड के भीतर और बाहर ये तमाम सवाल हर कोई साफगोई से उठाने से चूकता नहीं लेकिन हल पूछने पर फौरन खामोशी रेंग जाती है। यानी बैठकें हो रही हैं, बैठकें होंगी, जनता से जुड़े नेताओं को महत्व दिया जाएगा, संगठन में बदलाव भी होगा, कांग्रेस के संघर्ष के तरीके भी बदलेंगे, लेकिन अतीत की ठसक छोड़नी होगी।

फिर भी बार-बार बात संगठन में चहेतों को हटाने पर आ जाती है और कांग्रेस संकट की असली कहानी भी यहीं से शुरू होती है। इसमें तीन सवाल सबसे बड़े हैं। एक, जी-23 के नेता हर हाल में कांग्रेस कार्यकारिणी यानी सीडब्लूसी पर कब्जा करना चाहते हैं। उन्हें गांधी परिवार से कोई गिला-शिकवा नहीं, लेकिन भविष्य में सीडब्लूसी के भीतर की पटकथा अपने हिसाब से लिख सकें, उस ताकत को वे गंवाना नहीं चाहते। दूसरे, सत्ता में रहे कांग्रेसी संघर्ष के रास्ते पर क्यों नहीं निकलते जबकि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी खुद धूल फांकते हुए राजनीति कर रहे हैं। यानी जी-23 का संघर्ष पार्टी को खड़ा करने से ज्यादा पार्टी के भीतर ताकत पाने की लड़ाई है। तीसरे, राहुल गांधी अपने नेतृत्व में जिस कांग्रेस की कल्पना किए हुए हैं, वह सत्ता संभालने वाली पारंपरिक कांग्रेस नहीं है, बल्कि संघर्ष करने वालों के साथ खड़े होकर युवा स्फूर्त वाली कांग्रेस बनाने की है। जी-23 जिस कांग्रेस का राग अलाप रहा है, राहुल गांधी उसमें न तो मोदी से टकराने की ताकत देखते हैं, न ही संघ परिवार को चुनौती देने का माद्दा। तो, क्या कोई नई कांग्रेस की सोच राहुल गांधी के दिमाग में पनप रही है या फिर राहुल की नई कांग्रेस की सोच दिवास्वप्न की तरह है, जिस पर कपिल सिब्बल "घर की कांग्रेस और सबकी कांग्रेस" जैसा तंज कसने से नहीं कतराते। फिर, झटके में वही कांग्रेसी नेता सिब्बल पर सीधे हमला कर देते हैं, जो गांधी परिवार से करीबी साबित करना चाहते हैं या फिर पद पर बैठे हैं। सिब्बल के विरोध में अशोक गहलोत के बोल हों या टी.एस. सिंहदेव के, संघर्ष से दूर तो वे भी खड़े हैं।

असल में जी-23 की मशक्कत इस बात से भयभीत है कि कहीं सितंबर में अध्यक्ष पद से गांधी परिवार अपने को पीछे खींच कर किसी अपने को सामने न कर दे। ऐसी हालत में जी-23 अपने किसी को चुनौती देने के लिए सामने खड़ा कर देगा, क्योंकि जी-23 का मानना है कि राहुल के इर्द-गिर्द जो नेता हैं वे कांग्रेस के भीतर भी माइनारटी में हैं। जाहिर है, यहां तीन नेताओं का जिक्र किया जा सकता है। के. वेणुगोपाल, रणदीप सुरजेवाला और मणिक्कम टैगोर। फिर, जी-23 की बैठक में शामिल चार नेताओं का जिक्र भी जरूरी है। परणीत कौर, मणिशंकर अय्यर, शंकरसिंह वाघेला और एम.ए. खान। तो, क्या जी-23 का विस्तार हो रहा है, या फिर गांधी परिवार के करीबी चंद नेताओं भर से पारंपरिक कांग्रेस के ढहने का खतरा मंडराने लगा है? ये सारे सवाल सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि कांग्रेस के पास मोदी-सत्ता से टकराने का कोई विजन नहीं बचा है।

राहुल इन्हीं परिस्थितियों के बीच खड़े हैं। संसद हो या सड़क, हर जगह जिन बातों को वे सीधे कह रहे हैं, उसे पारंपरिक कांग्रेसी कहीं नहीं कहते। कहते भी हैं तो इस अंदाज में जैसे दिन के उजाले में कांग्रेस का हित साधते नजर आएं और रात के अंधेरे में सत्ता की चौखट पर नतमस्तक दिखें ताकि उनकी कोई फाइल न खुल जाए। राहुल गांधी ने युवा कांग्रेसियों को जो पाठ पढ़ाया, वह नई कांग्रेस को काफी हद तक परिभाषित करता है। 

उसमें सत्ता से समझौता करने या संघ को निशाने पर न ले पाने वालों की कोई जगह नहीं।

इसकी पांच शर्तें हैं। प्रधानमंत्री मोदी को सीधे निशाने पर लेना, संघ की विचारधारा के खिलाफ कांग्रेस की धारा को खड़ा करने की मशकक्त करना, देश की पूंजी कॉरपोरेट के हाथों सौंपने का विरोध करना, युवाओं को देश की उस पहचान से जोड़ना जिसे कांग्रेस ने बनाया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी के अलोकतांत्रिक भारत के विरोध को मान्यता दिलाना। जाहिर है, पारंपरिक कांग्रेसियों के जेहन में ऐसे सवाल आ सकते हैं कि इन मुद्दों के आसरे चुनाव में जीत कैसे मिलेगी या राजनीतिक विस्तार कैसे होगा। लेकिन राहुल गांधी की कोशिश राज्यवार नेताओं के आसरे कांग्रेस को खड़ा करने से ज्यादा राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को खड़ा करने की है। शर्त यह भी है कि हर राज्य में अगुआई ऐसे युवा कंधों पर हो, जिनमें संघर्ष करने का माद्दा हो, मौका मिलने पर उन्हें भी वैसी ही राजनीतिक ताकत मिले, जैसी प्रियंका को यूपी में मिली।

लेकिन संगठन को कैसे बड़ा कर पार्टी को विस्तार देना है, यह गुजरात के प्रयोग से भी समझा जा सकता है। वहां नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं तो 25 नए उपाध्यक्ष, 75 महासचिव और 17 शहर तथा जिला अध्यक्ष बनाए गए। राजस्थान के रघु शर्मा को प्रभारी बनाया गया। लेकिन सवाल वहीं जा अटकता है कि पुराने कांग्रेसी क्या करेंगे या हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी की क्या भूमिका होगी? जोर संघर्ष और युवाओं पर है तो आगे संसद के भीतर भी धीरे-धीरे युवा टीम ही लोकसभा और राज्यसभा में नजर आएगी। इसके लिए सड़क पर संघर्ष करते हुए कांग्रेसी मोदी के कॉरपोरेट गवर्नेंस और संघ के गोडसे हिंदुत्व को साफगोई के साथ उठाने से चूकें नहीं।

क्या यह सब इतना आसान है? और जब तक राहुल गांधी अध्यक्ष पद संभालेंगे नहीं, यह संभव कैसे होगा? यह ऐसा सवाल है, जिसका जवाब भी गांधी परिवार को ही देना है। लेकिन सोनिया गांधी के वक्त के जो कांग्रेसी अब अपने घरों में डिनर पार्टी के जरिए पार्टी की मजबूती का सवाल उठा रहे हैं, वे राहुल गांधी की चमक और भाजपा के प्रोपगेंडा के आगे धूमिल पड़ते जा रहे हैं। 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद राहुल अगर प्रधानमंत्री बन जाते तो ज्यादा अच्छा होता। मनमोहन सिंह की सत्ता के वक्त कागज फाड़ना हो या ओडिशा जाकर आदिवासियों के हक में स्टील कंपनी की मुखालफत, युवाओं में राहुल गांधी एंग्री यंगमैन के तौर पर उभरे। उस वक्त भाजपा की युवा पीढ़ी भी राहुल के प्रति आकर्षित थी।

 2014 के बाद कांग्रेस को सफलता भी तब मिली जब राहुल अध्यक्ष बने। राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में जीत और गुजरात में जीत के करीब पहुंचने की स्थिति भी राहुल गांधी के मोदी-सत्ता को सीधे घेरने से ही उभरी। लेकिन अब मोदी की भाजपा के सामने राहुल गांधी की काग्रेस क्या 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले आठ राज्यों के विधानसभा चुनावों में कहीं जीत हासिल कर पाएगी या फिर हर राज्य में हार का तमगा लिए 2024 के समर में कूदने को मजबूर होगी? क्या गुलाम नबी आजाद का सोनिया गांधी से मिलना और राहुल गांधी की भूपेंद्र सिंह हुड्डा से भेंट कांग्रेस के अंतरविरोध को खत्म करने का कोई रास्ता है? फिर सोनिया गांधी का कांग्रेस के महासचिवों के साथ बैठक और हरियाणा के तमाम नेताओं के साथ राहुल का मिलना, क्या पार्टी को मथने की कवायद है या राहुल गांधी अध्यक्ष पद संभालने से पहले हर उस पक्ष को टटोल रहे हैं जो उन पर सवाल उठाते हैं या उठा सकते हैं?

असल में अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी अनुभवी-बुजुर्ग और युवा कांग्रेसियों को फेंटकर अपनी सोच के अनुसार एक नई कांग्रेस खड़ी करने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। वह भी बिना किसी सवाल-जवाब और एब्सल्यूट पावर के साथ। मतलब यह कि सीडब्लूसी की अगली बैठक पुराने तर्ज पर एंटनी कमेटी बनाने की दिशा में बढ़ने के बदले 1998 के पचमढ़ी चिंतन शिविर और 2003 के शिमला चिंतन शिविर की तर्ज पर रास्ता खोजना चाहती है, जिसमें एक वक्त सोनिया की इंट्री हुई थी। उसके बाद कांग्रेस को भाजपा के शाइनिंग इंडिया के नारे को चुनौती देकर गठबंधन के आसरे 2004 में जीत मिली। तो, क्या 2024 का रास्ता सीडब्लूसी के चिंतन शिविर से निकलेगा या जी-23 के संगठन में कब्जे से या फिर राहुल गांधी के अध्यक्ष पद संभालने से? या फिर कांग्रेस यह मानकर चल रही है कि जो पार्टी दो से 300 सांसद तक पहुंच सकती है, उससे तो कहीं ज्यादा मजबूत कांग्रेस है। उसके दिन भी फिरेंगे, बस कांग्रेस अपने आप से लड़ती-झगड़ती दिखाई न दे। यानी विकल्प का पर्सेप्‍शन बनाना होगा, जिसके लिए नेता का चेहरा, कांग्रेस की धारा और देश में बदलाव की लहर पैदा करनी होगी। यह सब होगा कैसे, इस सवाल का जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और चर्चित टिप्पणकार हैं। विचार निजी हैं)

 

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