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शताब्दी वर्ष: जगदेव बाबू के होने का अर्थ

फ्रांस की सुप्रसिद्ध क्रान्ति (1789) का मूल सिद्धांत था आजादी,समानता और भाईचारा जो पूरे विश्व में...
शताब्दी वर्ष: जगदेव बाबू के होने का अर्थ

फ्रांस की सुप्रसिद्ध क्रान्ति (1789) का मूल सिद्धांत था आजादी,समानता और भाईचारा जो पूरे विश्व में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव का मार्गदर्शक बना और अनेक महापुरषों को अपने मूल लक्ष्य से प्रेरित किया, उनमें से एक थे अमर शहीद जगदेव प्रसाद। जगदेव बाबू का जन्म 2 फरवरी 1922 को जहानाबाद में हुआ था और उनकी हत्या 5 सितम्बर 1974 को कर दी गयी थी। उनकी शिक्षा बिहार में हुयी तथा वे अर्थशास्त्र और साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएट थे। इकोनॉमिक्स और लिटरेचर को उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में ढाल लिया था। उनका नारा था – सौ में नब्बे शोषित है और नब्बे भाग हमारा है। धन, धरती और राजपाट में भागीदारी चाहिए। जगदेव बाबू जॉन रस्किन की सोशल इकॉनमी से बहुत प्रभावित थे और मानते थे कि सिर्फ कुछ लोगों के हाथ में संसाधन होना अन्याय को जन्म देता है । जगदेव बाबू ज्योति राव फूले के सत्य शोधक समाज से बहुत प्रभावित थे और मानते थे कि कुछ लोगों के हाथों में संसाधन होने के कारण ही शैक्षिक और रोजगारी पिछडापन है। जगदेव बाबू को लेनिन ऑफ़ बिहार भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने बिहार की राजनीति को ज्वलंत और क्रांतिकारी बना दिया । पर जगदेव बाबू को संसदीय लोकतंत्र में अटूट विशवास था और उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति और नक्सल आन्दोलन को भी नकार दिया क्योंकि भारत के नक्सली आन्दोलन सामन्तवादी नेतृत्व से प्रभावित थे।

जगदेव बाबू का मानना था कि संविधान के निर्माताओं ने जो लक्ष्य स्थापित किये हैं उन्हें पाने के लिए विभिन्नता में एकता, लोकतंत्र और सामाजिक क्रान्ति में तारतम्य होना चाहिए। इन्हीं मूल्यों को लेकर बाबा साहेब अम्बेडकर के सपनों को पूरा करने के लिए वे निरंतर प्रयास करते रहे। तमिलनाडू में पेरियार और बिहार में जगदेव बाबू ने जाति के वर्चस्व को तोडा और शोषित वर्ग को अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया। इस लड़ाई में उन्हें अपने समकालीन मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) के सिविल राइट मूवमेंट से प्रेरणा मिली। मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) की हत्या पूअर पीपल्स कैंपेन के दौरान कर दी गयी थी। यह भी एक संयोग ही था कि ठीक इसी प्रकार शोषित वर्गों के अधिकार के आन्दोलन के दौरान जगदेव बाबू की भी हत्या की गयी थी। जगदेव बाबू अपने समकालीन राजनेताओं में स्वयम को सबसे निकट राम मनोहर लोहिया के पाते थे। उनके विचारों से वे बहुत प्रभावित थे। जगदेव बाबू सोशलिस्ट पार्टी के बिहार प्रांत के सचिव थे। पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाने में उनका बड़ा योगदान था। राम मनोहर लोहिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) में प्रस्ताव पारित किया कि 1967 के राष्ट्रीय चुनाव और विधानसभा चुनाव में 60 प्रतिशत टिकट दलित,पिछड़ा,अति-पिछड़ा,मुस्लिम और महिलाओं को दिया जाएगा। यहाँ से पिछड़े और अगड़े वर्गों में खुलकर मतभेद सामने आ गए। विधान सभा के चुनाव में 68 सीटों पर सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार विजयी हुए और संयुक्त विधायक दल के तहत गठबंधन की सरकार बनी। पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में महामाया प्रसाद मुख्यमंत्री और कर्पूरी ठाकुर उप- मुख्यमंत्री बने। इस सरकार में सिर्फ 20 प्रतिशत पिछड़ों को मंत्री बनाया गया और उसमें भी अधिकतर को राज्य मंत्री बनाया गया। और तो और जो आठवीं और दसवीं कक्षा पास अगड़ी जातियों के नेता थे उनको कैबिनेट मंत्री बनाया गया और पोस्ट-ग्रेजुएट शिक्षा प्राप्त करने वाले पिछड़ी जाति के नेताओं को राज्य मंत्री। यह समीकरण सोशलिस्ट पार्टी के मूल लक्ष्य के विपरीत था अतः जगदेव बाबू ने इसका विरोध मुख्यमंत्री से किया और बाद में राम मनोहर लोहिया से। लोहिया जी की बातों से जगदेव बाबू सहमत नहीं थे और उन्होंने प्रण किया कि संयुक्त विधायक दल की सरकार को रहने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने पार्टी का विभाजन कर एक नयी पार्टी का निर्माण किया जिसका नाम शोषित दल था। 39 विधायकों के साथ कांग्रेस के समर्थन से बिहार में पहली बार सतीश प्रसाद और बी.पी. मंडल को मुख्यमंत्री के पद पर सुशोभित किया। यहीं से बिहार में पिछड़े वर्ग के मुख्यमंत्री बनने का प्रचलन शुरू हुआ। इस कश्मकश के कारण बिहार में अभी तक सात बार राष्ट्रपति शासन लागू किया गया।


जगदेव बाबू को लगता था की उनके सिद्धांत के सबसे अनुकूल बी.पी. मंडल हैं। इसी कारण उन्हें मुख्यमंत्री बनाने में उनकी बड़ी भूमिका थी। जब मंडल मुख्यमंत्री बने तब वे मधेपुरा से सांसद थे और बाद में द्वितीय पिछड़ा आयोग उनके नेतृत्व में बना। जब हम मंडल कमीशन की रिपोर्ट की समीक्षा करते हैं तो पाते हैं कि जो मापदंड बी.पी मंडल ने आरक्षण की नीति के लिए बनाये थे वे सभी जगदेव बाबू ने राजनीतिक आन्दोलन के दौरान उठाये थे। सही मायने में देखा जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि बी.पी. मंडल ने जगदेव बाबू के सिद्धांतों को आगे बढ़ाया जिसके परिणाम स्वरुप हम आज के भारत के विकास में पिछड़ों के बढ़ते योगदान को स्पष्ट देख सकते हैं। जगदेव बाबू की एक विश्व-दृष्टि भी थी जो शोषण और उत्थान की वे बातें बिहार में कह रहे थे उन्हे वे दुनिया में पहुँचाना और लागू करवाना चाहते थे। वे अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे जिसका स्पष्ट मानना था कि दुनिया के विकासशील देशों को अपनी आवाज शोषण के विरुद्ध उठानी चाहिए। उनका मानना था कि खनिज पदार्थों का दोहन विकसित राष्ट्र कर रहे हैं इसलिये उनके विरुद्ध समस्त विकासशील राष्ट्रों को मोर्चा बनाना चाहिए |इससे तर्ज पर न्यू इंटरनेशनल इकनोमिक ऑर्डर (एनआईईओ) को वह बहुत सटीक कदम मानते थे।
उनका सपना था की बिहार में सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र आये जिससे समाज का समावेशी विकास हो। इन्हीं मूल्यों को लेकर 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने प्रजातंत्र के प्रजातांत्रिकरण में अहम भूमिका निभाई। जब लालू प्रसाद यादव कहा करते थे कि ए सूअर पालने वाले ,गाय,भैंस,बकरी चराने वाले,घोंघा चुनने वाले,मछली पकड़ने वाले, ताड़ी बेचने वाले ,खेती करने वाले ,सिलाई बुनाई करने वाले आप सभी लोग अपने बच्चों को पढ़ाएं।बच्चों को पढ़ाएंगे तभी मुख्यधारा में सहभागिता सुनिश्चित हो पाएगी।ये सारी बातें जगदेव प्रसाद ने अपने आंदोलन में स्वीकृत की थीं ।जगदेव बाबू ने जिन मूल्यों को लेकर शोषित समाज दल बनाकर पहली बार एक पिछड़े को मुख्यमंत्री बनाया उसी का परिणाम था कि अब बिहार के समाज में पिछड़ों के साथ न्याय की आशा जगने लगी ।इसी संघर्ष के कारण बिहार में राष्ट्रपति शासन और जातिवादी सेनाओं का तनाव बढ़ा। लालू प्रसाद यादव इन बातों से विचलित नहीं हुए और जगदेव बाबू के मूल्यों को लेकर आगे बढ़ते रहे।अपने मन्त्रीमण्डल में बहुजनों को अवसर दिया और निर्णय लेने वाली मुख्यधारा में शामिल किया ।उन्होंने जगदेव बाबू को 'अमर शहीद' का दर्जा दिया।जगदेव बाबू का मानना था कि "खेत सूखा होगा तो पेट भी भूखा होगा।" जगदेव बाबू का यह भी मानना था कि उनकी लड़ाई खेत और पेट के लिए है। इसी लड़ाई को लड़ते-लड़ते वे शहीद हो गए।जब हम कृषि कानून 2020 के खिलाफ हुए आंदोलन को देखते हैं तो पाते हैं कि यह लड़ाई भी 'खेत और पेट' के लिए थी जहाँ अनुबंध (contract) के माध्यम से खेत और मंडी पर प्राइवेट लोगों का अधिकार होगा ।इसी 'खेत और पेट' की लड़ाई लड़ते हुए लगभग 700 किसानों ने अपने जान की आहुति दे दी।आज के समकालीन बिहार को देखें तो पाते हैं कि जो सामाजिक और राजनीतिक निवेश किया था वह अब एक विशाल वृक्ष का रूप ले चूका है और उनके दिखाए हुए मूल्यों का अनुसरण बिहार के सभी राजनेता कर रहे हैं। इस निवेश के कारण बिहार में किसी एक जाति या वर्ग का वर्चस्व संभव नहीं है। यह बिहार में आजतक की सबसे सफल राजनीतिक और सामाजिक निवेश माना जाना चाहिए। इसके कारण सामाजिक समरसता की दिशा में हम लगातार बढ़ रहे हैं और आशा करते हैं कि अमर शहीद जगदेव बाबू के दिखाए हुए रास्ते पर चल कर भविष्य का बिहार सामाजिक भाईचारे का प्रतीक बनेगा।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य करते हैं।)

 

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