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नियामक तंत्र की खामियां उजागर करता संकट

भारत के प्राइवेट बैंकों में कई सारी गंभीर समस्याएं हैं, इनमें से कइयों में कॉरपोरेट गवर्नेंस की दिक्कते हैं। यस बैंक, आइसीआइसीआइ बैंक और एक्सिस बैंक के प्रमुखों के विवाद इन बातों को पुख्ता करते हैं
यस बैंक प्रकरण

कहा जाता है कि बैंक पैसा ‘पैदा’ करते हैं। वे आर्थिक विकास के लिए आधार देते हैं। अगर बैंक संकट में आते हैं तो धन का प्रवाह प्रभावित होता है और अर्थव्यवस्था को वैसे ही नुकसान होता है जैसे हृदयाघात से शरीर को नुकसान होता है। डर यह सता रहा है कि सिस्टमेटिकली इंपॉर्टेंट बैंक (एसआइबी) की ओर से कर्ज वितरण में हो रही गड़बड़ी से समूचे वित्तीय तंत्र के लिए खतरा पैदा हो सकता है।

केयर रेटिंग्स के अनुसार, गैर निष्पादित संपत्तियों (एनपीए) के अनुपात में भारत पांचवां सबसे बड़ा देश है। वह सिर्फ ग्रीस, इटली, पुर्तगाल और आयरलैंड जैसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों से ही बेहतर है। भारत का एनपीए अनुपात करीब 10 फीसदी है जबकि प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं जैसे ब्रिटेन, जापान, अमेरिका और जर्मनी का एनपीए अनुपात दो फीसदी से भी कम है। भारतीय बैंकों का असली संकट दोहरी बैलेंस शीट की समस्या में निहित है, जहां डिफॉल्टर कंपनियों के संयुक्त एनपीए से बैंकों की बैलेंस शीट इस कदर प्रभावित हुई है कि उनकी कर्ज देने की क्षमता घट गई है।

दुर्भाग्य की बात यह है कि प्राइवेट सेक्टर के बैंक भी एनपीए की समस्या से अछूते नहीं रह गए हैं। उनका एनपीए भी विस्फोटक तरीके से बढ़ा है। यह वित्त वर्ष 2016-17 में 91,000 करोड़ रुपये था जो 2017-18 में बढ़कर 1.8 लाख करोड़ रुपये हो गया। मौजूदा वित्तीय संकट की जड़ में 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों में बैंकों द्वारा द‌िए गए कर्ज में बेतहाशा बढ़ोतरी होना है। बैंक‌िंग सेक्टर में जितना लाभ कमाना जरूरी होता है, उतना ही कॉरपोरेट गवर्नेंस भी मायने रखता है। दावा किया जाता था कि “लालच अच्छा” है। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अत्यधिक तरलता और मुनाफा बढ़ाने के दबाव के चलते कई बैंकों ने कर्ज देने के मानदंडों में ढील दी और विदेश के नए डेरिवेटिव्स उत्पादों को अपनाया। एक वरिष्ठ बैंकर ने कहा है, “खराब कर्ज अच्छे दिनों में निर्मित होता है।” 2008-10 का ग्लोबल वित्तीय संकट इसी का नतीजा था।

2000 के दशक की शुरुआत में दुनिया के अविवेकपूर्ण उत्साह ने भारत पर भी असर डाला। भारत उस दौर में तेज रफ्तार से आर्थिक विकास कर रहा था। कई उद्योग घरानों ने बैंकों के आसान कर्ज के सहारे आक्रामक विस्तार योजनाओं पर काम करना शुरू किया। यहां तक कि भारत के सबसे प्रतिष्ठित उद्योग घराने इस दौड़ में शामिल हो गए। 2007 में 13.1 अरब डॉलर में टाटा स्टील द्वारा कोरस की खरीद कर्ज के बहुतायत के दौर का सबसे अच्छा उदाहरण है। स्पष्ट है कि इस अधिग्रहण की तरह के तमाम सौदे बाद में कंपनियों के लिए गंभीर संकट साबित हुए।

कई बार बैंकों ने अपने खराब कर्जों से उबरने के लिए बीआइएफआर, जेएलजी, सीडीआर, एसडीआर जैसी स्कीमों की शरण ली। हालांकि, अघोषित एनपीए और लोन की “एवर-ग्रीनिंग” खुला रहस्य बन गया। अंततः भारतीय रिजर्व बैंक ने एसेट क्वालिटी रिव्यू (एक्यूआर) का कदम उठाया। इससे बैंकों द्वारा दिखाई गई अच्छी तसवीर की कलई खुल गई। जैसे ही एक्यूआर का असर बढ़ा, बैंकिंग क्षेत्र की वित्तीय स्थिति का असली चेहरा सामने आने लगा, इस श्रेणी के एसेट न सिर्फ कमाई के लिहाज से बेकार हो गए, बल्कि इन कर्जों की वसूली और निगरानी प्र‌क्रिया बढ़ने से बैंकों की लागत भी बढ़ गई। मुनाफे में गिरावट के लिए ये एसेट जिम्मेदार साबित होने लगे और बैंकों की आंतरिक पूंजी भी खत्म होने लगी।

भारत के कमजोर बैंकिंग क्षेत्र में एसेट क्वालिटी की समस्या के कारण देश के सबसे प्रत‌िष्ठित बैंक को अपने इतिहास में पहली बार 2018-19 में घाटा झेलना पड़ा। पीएमसी, आइएल ऐंड एफएस, डीएचएफएल आदि के फेल होने से हालात और बिगड़ गए। समस्या इससे भी बढ़ी कि स्थाप‌ित कंपनियों के फेल होने से गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) भी कर्ज न मिलने से संकट में फंस गईं। समस्याओं से घबराए बैंकर्स ने एनबीएफसी को कर्ज देना रोका तो रिटेल सेक्टर में कर्ज की किल्लत होने लगी। इसका सबसे ज्यादा असर रियल एस्टेट और ऑटोमोबाइल सेक्टर को मिलने वाले कर्ज पर पड़ा। आने वाले समय में सरकार को मुद्रा योजना और एमएसएमई के संभावित खराब कर्जों को संज्ञान में लेने की आवश्यकता हो सकती है। कई का तर्क है कि एनपीए संकट गलत बैंकिंग प्रणाली का नतीजा है, जो कौशल और कामकाज के पेशेवर तरीके के लिए कम, विवेकहीनता, अक्षमता और कुप्रबंधन के लिए जानी जाती है।

भारत में प्राइवेट बैंकों के लिए गंभीर समस्याएं हैं। इनमें से कई बैंकों में कॉरपोरेट गवर्नेंस को लेकर समस्याएं हैं। इसका ताजातरीन उदाहरण यस बैंक का है जिसे संकट से निकालने के लिए आरबीआइ ने कदम उठाए हैं। चमक-दमक के लिए मशहूर उसके संस्थापक राना कपूर और उनके परिवारी सदस्यों की कथित धोखाधड़ी के लिए जांच की जा रही है। इससे पहले, आइसीआइसीआइ बैंक की प्रसिद्ध सीईओ चंदा कोचर को विदा होना पड़ा। उन्हें भी कई जांच एजेंसियों का सामना करना पड़ रहा है। एक्सिस बैंक की शिखा शर्मा को भी गंभीर संकट के बीच बाहर जाना पड़ा था। भारतीय बैंकों पर छद्म पूंजीवाद के प्रभाव ने भी कुछ समय पहले तक फंसे हुए कर्जों के समाधान में समस्याएं पैदा कीं। बैंकों को बहुत कम कानूनी संरक्षण प्राप्त है और वे राजनीतिक रूप से प्रभावशाली कर्जदारों से शायद ही वसूली कर पाते हैं। बड़े कर्जदारों के लिए हालात बिगड़ने लगे तो उनके लिए कर्जमाफी और एकतरफा निपटान सामान्य बात हो गई। कर्जदार इस एहसास के साथ आराम से कर्ज ले सकते हैं कि नुकसान का बोझ करदाताओं पर पड़ेगा जबकि मुनाफा उनकी ही जेब में जाएगा। जैसा जे. पॉल गेटी ने कहा है, “अगर आप बैंक से 100 डॉलर कर्ज लेते हैं तो यह आपकी समस्या है, अगर आप 100 मिलियन डॉलर कर्ज लेते हैं तो वह बैंकों की समस्या होगी।”

समाजवाद के पिछड़ने और पूंजीवाद को अहमियत मिलने से भ्रष्ट लोगों को प्रोत्साहन मिलने लगा। इस पर भी नैतिक पतन के साथ बेईमान लोगों ने दोषपूर्ण तंत्र का नाजायज फायदा उठाया। कुल मिलाकर, राजनेताओं, नौकरशाही और अमीरों के गठजोड़ ने न सिर्फ देश के लोगों को लूटा, बल्कि उसने बैंकों का हर मौके पर मखौल उड़ाया। आश्चर्यजनक नहीं है कि न तो कर्ज वितरण और न ही रिकवरी पर कोई फोकस रहा। यह भी प्रतीत होता है कि यह समस्या ग्लोबल हो गई है जिसमें कई कंपनियां चलाकर तुरंत अमीर होने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। एनरॉन, एहोल्ड, परमालत आदि के अनुभवों से ऐसा ही एहसास होता है।

यह भी अहम तथ्य है कि नोटबंदी और जीएसटी से कंपनियों पर भारी दबाव आया। 2016 की नोटबंदी से देश की नकदी आधारित पारंपरिक अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा और पारंपरिक कारोबार संकट में पड़ गए। इसी तरह, घरेलू बाजारों को जोड़ने वाला महत्वपूर्ण कदम जीएसटी भी टैक्स के सरलीकरण और बेहतर अनुपालन के उद्देश्य हासिल करने में विफल रहा। इन दोनों बाधाकारी कदमों ने आर्थिक रिकवरी को सुस्त कर दिया और कारोबार कुचक्र में फंस गए। इसका नतीजा हुआ कि कंपनियां और कारोबारी बैंकों को कर्ज लौटाने में नाकाम हो गए और देश के वित्तीय तंत्र पर दबाव बढ़ गया।

बैंकिंग संकट के चलते कुछ सकारात्मक बदलाव भी आए हैं। आरबीआइ द्वारा एनपीए के वर्गीकरण के लिए कठोर नियमों के लाने से बैंकों के लिए दबावग्रस्त कर्जों के खुलासे में गड़बड़ी की गुंजाइश लगभग खत्म हो गई। अगर आरबीआइ ने यह काम पहले शुरू कर दिया होता तो ज्यादा फायदेमंद होता। हालांकि अब यह काम हो रहा है। एसएलआर (वैधानिक तरलता अनुपात) में कटौती और बैंक रेट में कटौती की संभावना से बेहतर तरलता की उम्मीद बढ़ी है और बैंक अपने लोन पोर्टफोलियो को दुरुस्त कर सकते हैं।

दस राष्ट्रीयकृत बैंकों के प्रस्तावित विलय से चार अपेक्षाकृत मजबूत बैंक बनाना इस दिशा में अच्छा कदम है। हालांकि इनके एकीकरण की प्रक्रिया पूरी होने में समय लगेगा। ऐसे में, उसका फायदा दिखने में भी वक्त लगेगा। हो सकता है क‌ि इस एकीकरण से अपेक्षाएं ओबीसी-ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के विलय जैसी नहीं दिखें। इस बीच, दबाव जारी रहने के कारण पूंजी पर्याप्‍तता अनुपात के मानक पूरे करने के लिए लगातार पूंजी बढ़ाने की जरूरत हो सकती है। नियामकीय दिशानिर्देशों में भ्रम दूर करके समुचित नियमन के लिए प्रस्तावित इंडियन फाइनेंशियल कोड पर भी काम हो रहा है। इसमें तेजी लाने की जरूरत है।

इस वक्त ज्यादातर बैंक कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं, ऐसे में कर्ज देने में सक्षम बैंक भी प्रायः जोखिमों से बचने के लिए अत्यधिक सतर्कता बरतने लगते हैं। अगर बैंकिंग तंत्र को फिर से प्रगति के पथ पर लाना है तो प्रणाली में भरोसा बहाली करनी होगी, ताकि बैंकिंग प्रोफेशनल्स को अनावश्यक जांच से सुरक्षा प्रदान की जा सके। पेशेवर गलती और गलत मंशा के बीच स्पष्‍ट अंतर चिह्नित करना होगा और गलत मंशा के लिए समुचित सजा सुनिश्चित करनी होगी।

भारतीय बैंकों के समक्ष मौजूद जोखिमों को देखते हुए सरकार ने इंसॉल्वेंसी ऐंड बैंक्रप्सी कोड (आइबीसी) 2016 में लागू किया था। आइबीसी ऐसे क्रांतिकारी बदलाव लाने में सफल रहा है जिससे दबावग्रस्त कर्जों का समाधान तय समय में किया जा सके। इससे खराब कर्जों का तुरंत निपटान भी होने लगा है। इससे वित्तीय लेनदारों के मामलों में औसत रिकवरी 26 फीसदी से सुधरकर 43 फीसदी हो गई। परिचालन लेनदारों के मामलों में रिकवरी 49 फीसदी हो गई है। आइबीसी में एनपीए खातों के समाधान का औसत समय घटकर 1.6 वर्ष रह गया जबकि पहले 4.3 वर्ष लगते थे। एनपीए के समाधान के लिए बैंकों की लागत भी नौ फीसदी से घटकर एक फीसदी रह गई। पहले, अधिकांश दीर्घकालिक फंडिंग बैंकों से होती थी जिसके कारण बैंकों का एसेट-लायबिलिटी अनुपात गड़बड़ा जाता था। भारत को बांड मार्केट विकसित करने की जरूरत है, ताकि लंबी अवधि में पूरी होने वाली परियोजनाओं के लिए पूंजी सीधे बाजार से जुटाई जा सके, उन्हें बैंकों पर निर्भर नहीं रहना पड़े। इससे बैंकों के रिस्क प्रोफाइल में काफी सुधार होगा। सार्वजनिक बैंकों में पूंजी ढांचा सुधारने के लिए सरकार उनके कंसोलिडेशन पर काम कर रही है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना होगा कि बैंक इतने बड़े भी न हो जाएं कि उनके फेल होने की आशंका बढ़ जाए, जैसा अमेरिका में हुआ।

सरकार को सार्वजनिक बैंकों में बेहतर गवर्नेंस लाना चाहिए। आरबीआइ की निगरानी, गतिविधियों और अन्य ऑपरेशन को अलग करने के लिए कानूनी उपाय करने का यह सही समय है। आरबीआइ को पब्लिक डेट ऑफिस जैसे नॉन-कोर कामकाज को छोड़ देना चाहिए। हितों के टकराव की स्थिति से बचने के लिए इस तरह के कार्यों के लिए अलग संगठन बनाया जा सकता है। बैंकों का विलय करने या बंद करने के लिए उसे पर्याप्त अधिकार दिए जाने चाहिए, ताकि दोषी अधिकारियों के खिलाफ वह कार्रवाई कर सके और आवश्यकता पड़ने पर उनके खिलाफ आपराधिक केस भी चला सके। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि सार्वजनिक बैंक भारतीय अर्थव्यस्था की आवश्यकता को पूरी करने के लिए विकसित हों। उनके पास बेहतर कर्मचारी और अधिकारी होने चाहिए और उन्हें जोड़े रखने के लिए उनके काम-काज का समुचित आकलन और बेहतर वेतन की व्यवस्था बनानी चाह‌िए।

इसके अलावा बैंकों में पेशेवर प्रबंधन का तंत्र होना चाहिए और मजबूत नैतिक प्रतिबद्धतावाला सक्षम बोर्ड होना चाहिए। आइटी के विकास के साथ बैंकिंग व्यवसाय के तरीके में भारी बदलाव आया है। बैंकों के सुरक्षित परिचालन के लिए अप्रत्याशित चुनौतियां सामने आई हैं। इसके लिए आवश्यक है कि निजी और सार्वजनिक बैंकों की मौजूदा और भावी जरूरतों के अनुरूप नियमन और नियंत्रण के लिए आरबीआइ के पास समुचित सिस्टम हो। घटनाएं बताती हैं कि खराब तरीके से वित्तीय क्षेत्र का नियमन अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है।

(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के रिटायर्ड चीफ जनरल मैनेजर हैं। लेख में विचार उनके निजी हैं)

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प्राइवेट बैंकों का एनपीए विस्फोटक रूप से बढ़ा है। यह 2017 के मुकाबले 2018 में दोगुना होकर 1.8 लाख करोड़ हो गया, जो गंभीर स्थिति है

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हाल की घटनाएं बताती हैं कि वित्तीय क्षेत्र का खराब तरीके से नि‌यमन अर्थव्यवस्था के लिए घातक हो सकता है, जो बड़े संकट खड़े करेगा

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