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भारत में फिर आबाद हो सकते हैं चीते

अफ्रीकी चीतों को देश में लाने की कवायद, लेकिन उनकी सुरक्षा सबसे बड़ी चिंता; चीते वहीं बच पाए, जहां उन्हें पालतू नहीं बनाया गया
वन्यजीव संरक्षण

उत्तरी-पूर्वी दिल्ली का वजीराबाद गांव। वजीराबाद से यमुना नदी दिल्ली में प्रवेश करती है। यहीं यमुना भरी-पूरी नदी की तरह दिखती है। उसके बाद तो नदी पर दिल्ली शहर भारी पड़ने लगता है। बरसात के दिनों के अलावा नदी छोटी और उथली हो जाती है। मुझे वजीराबाद में पंजों के कुछ निशान दिखे थे। मैंने गांव के एक बुजुर्ग से पूछा, “किसके पंजे हैं” तो जवाब था, “चीता।” भारत में चीते आजादी के बाद ही, शायद 1950 के दशक में खत्म हो गए थे। लोग तेंदुए को ही चीता समझ लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में देश में चीते की वापसी का रास्ता खोला है। कोर्ट ने अपना पिछला आदेश बदल दिया जिसमें कहा गया था कि अफ्रीकी चीतों को भारत में नहीं लाया जाना चाहिए, क्योंकि वे आक्रामक होते हैं। लेकिन बहुत-से लोगों के लिए चीतों की वापसी रोमांचकारी है।

हालांकि दूसरे कुछ लोग कहते हैं कि भारत में कई लुप्‍तप्राय जानवर हैं और चीतों के प्राकृतिक रहवास का भी अभाव है, इसलिए उन्हें नहीं लाया जाना चाहिए। एशियाई चीते पहले कभी भारत में विचरण करते थे। अब वे सिर्फ ईरान में हैं, वहां भी 100 से कम ही बचे हैं। उनकी संख्या बहुत कम होने के कारण ही ईरान ने भारत को एक भी चीता देने से इनकार कर दिया था। इसलिए भारत अफ्रीकी प्रजाति के चीते-शायद नामीबिया से- लाने पर विचार कर रहा है।

सवाल यह है कि क्या अफ्रीकी चीते भारत के अनुकूल हैं? कुछ का कहना है कि जानवर भारतीय या एशियाई नहीं होते। शेर को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी 2013 में ऐसी चिंता जताई थी। प्रमुख पर्यावरण इतिहासकार महेश रंगाराजन ने एक जगह लिखा है, “कोई प्रजाति किसी भूभाग में कितने समय तक रहे कि उसके बाद हम उसे विदेशी कहना बंद करेंगे? कितनी पीढ़ियां गुजारने के बाद कोई प्रजाति स्वदेशी बनेगी? क्या हमें जानवरों (या इनसानों) का मूल्यांकन उनके मूल स्थान के आधार पर करना चाहिए?” रंगाराजन के सवाल इस लिहाज से अहम हैं कि एशियाई और दक्षिण-पूर्वी अफ्रीका के चीते वैसा खतरा पैदा नहीं करेंगे जैसा दूसरी आक्रामक प्रजातियां करती हैं। आक्रामक प्रजातियां वे होती हैं जो दूसरी प्रजातियों की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ती हैं। इनका तेजी से बढ़ना दूसरी प्रजातियों के विस्तार को प्रभावित करता है। नामीबियाई चीतों की आबादी दूसरे जानवरों की तुलना में तेज बढ़ने की संभावना नहीं है। हमें यह आश्वस्त करना होगा कि चीते शेर, तेंदुआ, बाघ और जंगली कुत्तों के शिकार न बन जाएं। चीते घास के मैदान और झाड़ियों वाले जंगलों में रहते हैं, और ऐसे अधिकांश क्षेत्र संरक्षित वन से बाहर होते हैं। यहां चीतों को आसानी से देखा जा सकेगा, इसलिए उन्हें सुरक्षा की दरकार होगी।

केन्या के पारिस्थितिकी विज्ञानी मोरडेकाई ओगाडा के पास अफ्रीका के कुछ अनुभव हैं। वे कहते हैं, “चीतों को बाड़े में बंद करके नहीं रखा जाना चाहिए। तेंदुए जैसे बड़े पशु उनका पीछा करते हैं, और बाड़े में होने पर चीते फंस सकते हैं।” ओगाडा ने कंजरवेशन मैगजीन स्वारा में लिखा है, “अकबर शिकार के लिए अपने अस्तबल में 1,000 प्रशिक्षित चीते रखता था।  49 साल के राज में अकबर ने शिकार के लिए 9,000 चीतों को प्रशिक्षित किया। चीते वहीं बच पाए, जहां उन्हें पालतू नहीं बनाया गया। अकबर के पुत्र जहांगीर, जो प्रसिद्ध कलाकार और प्रकृतिप्रेमी था, के लेखों से इसका कारण पता चलता है। जहांगीर ने अपने पिता के अस्तबल में 20 वर्षों तक हजारों चीते देखे, लेकिन उसने सिर्फ एक बार शावकों का जन्म होते देखा। इसका अर्थ है कि शिकार के लिए जंगलों से लगातार शावक लाए जाते रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि जंगलों से चीते लुप्‍त हो गए।”

लुप्‍त होने से पहले अत्यधिक शिकार के कारण कई दशकों तक चीतों की आबादी तेजी से घटती गई। भारत में शिकार करना अब अवैध है, लेकिन अवैध शिकार का बाजार बना हुआ है। चीन की पारंपरिक दवाइयों में खाल, पंजों और हड्डियों के इस्तेमाल के लिए अगर शिकारी शेर, बाघ और तेंदुओं का शिकार कर सकते हैं तो वे चीते का भी करेंगे। ओगाडा कहते हैं कि सिर्फ मृत जानवर के अंगों के लिए ही उनका शिकार नहीं होता, पश्चिम एशिया में अमीरों के लिए जीवित पशुओं की भी तस्करी होती है। वहां अमीर लोग चीते को पालतू बनाकर रखते हैं। लेकिन संरक्षणवादी कहते हैं कि अगर हम चीतों को सुरक्षित रख पाए तो उन्हें यहां जरूर लाया जाना चाहिए। उनकी वजह से उपेक्षित हो चुके घास के मैदानों और झाड़ियों के जंगलों की ओर लोगों का ध्यान खिंचेगा। वाइल्डलाइफ इंस्टीट्‍यूट ऑफ इंडिया और वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने 2010 की अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि मध्य प्रदेश का नौरादेही या कूनो अभयारण्य और राजस्थान का शाहगढ़ चीतों के लिए उपयुक्त स्थान हो सकते हैं। हालांकि अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी के पारिस्थितिकी विज्ञानी अबी वानक उन घास के मैदानों को उपयुक्त मानते हैं जो अभयारण्य में नहीं हैं। यानी महाराष्‍ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान के उपेक्षित घास के मैदानों के संरक्षण पर ध्यान दिया जाए। वानक कहते हैं, “महाराष्‍ट्र में खासकर म्हासवाड, येवला और मनमाड में िवशाल घास के मैदान हैं। हालांकि वहां संरक्षित क्षेत्र का नजरिया काम नहीं करेगा। इसके लिए किसानों, भूस्वामियों और चरवाहों के बीच साझेदारी हो। सरकारी एजेंसियों के साथ भी साझेदारी जरूरी है, जिनके लिए भूमि कीमती संसाधन है और वे अक्सर विनाशकारी विकास को प्राथमिकता देती हैं।”

चीते घास के मैदान और सूखे इलाकों में रहने वाले ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, कराकाल (मध्यम आकार की बिल्ली) और भारतीय भेड़ियों जैसी प्रजातियों के लिए वरदान हो सकते हैं। पर्यावरणविद् रजा काजमी कहते हैं, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय भूरे भेड़िया या लुप्‍तप्राय ग्रेट इंडियन बस्टर्ड में लोगों की उतनी दिलचस्पी नहीं, जितनी शेर, बाघ या चीते में है। अगर चीतों को लाने से भेड़ियों, सूखे क्षेत्र की अन्य प्रजातियों, घास के मैदानों और झाड़ी वाले जंगलों को बचाने में मदद मिलती है, तो ऐसा करना ही चाहिए।”

मध्य प्रदेश का कूनो अभयारण्य अब भी गिर के शेरों का इंतजार कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को आदेश दिया था कि वह मध्य प्रदेश को शेर दे, लेकिन गुजरात ने आदेश का पालन नहीं किया। नौरादेही में बाघ लाए गए हैं और उन्होंने शावकों को भी जन्म दिया है। यानी यह क्षेत्र टाइगर रिजर्व बन सकता है। हालांकि असंरक्षित घास के मैदान तेजी से घटते जा रहे हैं। इसलिए अगर हम चीतों को लाना चाहते हैं तो लाएं, लेकिन उन्हें सुरक्षित रखें और ‘भारतीय’ बनाएं।

(लेखिका बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसायटी से जुड़ी हैं)

 

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अकबर शिकार के लिए अपने अस्तबल में 1,000 प्रशिक्षित चीते रखता था। 49 साल के शासनकाल में अकबर ने शिकार के लिए 9,000 चीतों को प्रशिक्षित किया

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