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शाहीन बाग का असर बदस्तूर

कश्‍मीर और एनपीआर पर सरकार के मुलायम रुख और केंद्र में सत्ता-संभाल के दूसरे तरीकों में दिखा विरोध प्रदर्शनों का भारी असर
प्र‌तिरोध की शक्तिः दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं का ऐतिहासिक धरना

शाहीन बाग 95वें दिन (18 मार्च) भी जोशोखरोश से विरोध की लौ थामे हुए है। उसे कोरोना की दहशत भी न डिगा पाई, न दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का 50 से ज्यादा लोगों के जमावड़े पर प्रतिबंध का फरमान, न ही उसके पहले हुए उत्तर-पूर्वी दिल्ली के भयावह दंगे। यही नहीं, उसकी चिंगारी देश भर में कई शाहीन बागों के साथ 17 मार्च को चेन्नै में लाखों के प्रदर्शन में भी धधकती दिखी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मौन हैं। वे कोरोना महामारी के इस दौर में जाहिर है, व्यस्त हो सकते हैं। लेकिन गृह मंत्री यकीन दिलाने लगे हैं कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) में न कोई दस्तावेज मांगा जाएगा, न किसी किस्म की जानकारी देने से इनकार करने वाले के नाम के आगे संदिग्ध (डाउटफुल या डी) लिखा जाएगा। अमित शाह राज्यसभा में बोले, “मैं यह केंद्रीय गृह मंत्री के नाते पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूं।”

विपक्ष को मानो आश्वस्त करते शाह के तेवर उनके अब तक के लहजे के विपरीत मुलायमियत भरे थे। फिर, अचानक जम्मू-कश्मीर में भी मुलायम तेवरों के संकेत मिले। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता, पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला रिहा कर दिए गए। अलबत्ता उनकी रिहाई के पहले पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) से टूटे नेता अल्ताफ बुखारी की ‘जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी’ का गठन हुआ, जिसमें कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों के तमाम असंतुष्टों को जोड़ने का ख्वाब है।

ऐसी ही सक्रियता राज्यसभा के हालिया चुनावों के मामले में भी दिख रही है, जिसमें भाजपा अपने संख्याबल को थामे रखने के लिए मध्य प्रदेश और गुजरात में ‘ऑपरेशन कमल’ को अंजाम देने में जुटी है। इस मामले में तो प्रधानमंत्री भी 17 मार्च को भाजपा संसदीय दल की बैठक में मुखर हुए और संसद का सत्र मुल्तवी करने से इनकार करके अपने सांसदों को हमेशा मौजूद रहने की हिदायत दे दी।

तो, क्या ये घटनाक्रम सत्तारूढ़ पार्टी की दोहरी रणनीति की ओर इशारा करते हैं? एक, थोड़ा कदम पीछे खींचकर न संभाले जा रहे विवाद को कुछ थामा जाए। दूसरे, लगातार विधानसभाएं हारते जाने के असर को केंद्र में कम करने के लिए कांग्रेस और दूसरी पार्टियों की कमजोरियों को भुनाया जाए। इसी के साथ एक और घटनाक्रम पर गौर करें तो सत्तारूढ़ पार्टी की केंद्रीय सत्ता की साज-संभाल की कोशिशों के कई मोर्चे खुले हुए दिखते हैं। बमुश्किल तीन-चार महीने पहले रिटायर हुए प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई का राज्यसभा में नामांकन भी कुछ कहता है। कई लोग इस पर तीखे सवाल उठा रहे हैं और यह भी कहा जा रहा है कि कूलिंग पीरियड का तो ख्याल रखा जाता। मतलब यह कि कुछ समय बीतने दिया जाता, जिससे पुरस्कृत करने का भाव न पैदा होता, जबकि यूपीए-2 सरकार के दौरान पहली दफा जब राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति विधेयक 2013 में लाया गया था, तो भाजपा के दिवंगत नेता अरुण जेटली इसी कूलिंग पीरियड की अनिवार्यता के लिए संशोधन ले आए थे। हालांकि तब वह विधेयक परवान नहीं चढ़ा और 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार उसे ले आई तो कूलिंग पीरियड की बात भुला दी गई। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया।

लेकिन अदालतों को प्रभावित करने के और भी तरीके हैं, यही बात सबसे चिंताजनक है। यही चिंता पूर्व न्यायाधीशों मदन बी. लोकुर, जे. चेलमेश्वर, कुरियन जोसेफ ने जाहिर की है, जो रंजन गोगोई के साथ तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ जनवरी 2017 के प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद थे।

दरअसल नरेंद्र मोदी सरकार का मई 2019 में जब भारी बहुमत से दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ, तो देश में अर्थव्यवस्‍था मंदी की ओर तेजी से बढ़ने लगी। उधर, सरकार ने अपनी राजनैतिक स्थिति मजबूत करने की खातिर बहुसंख्यकवादी फिजा तैयार करने के मकसद से कथित तौर पर जो “साहसी” फैसले लिए, उसमें वह उलझती ही गई। जम्मू-कश्मीर को विशेष अधिकार देने वाले अनुच्छेद 370 को बेमानी बनाने और राज्य को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने को लेकर बाकी देश में विरोध की लहर भले न उठी हो, लेकिन कश्मीर में नेताओं तथा नौजवानों की गिरफ्तारी और उसे लगभग ‘कैदखाने’ में तब्दील करने का देश और दुनिया भर की लिबरल बिरादरी में भारी प्रतिकूल फिजा तैयार हुई। उससे दुनिया भर में मोदी सरकार को कई कूटनीतिक पहल करनी पड़ी। प्रधानमंत्री अमेरिका में ‘हाउदी मोदी’ आयोजन में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को खुश करते दिखे। लेकिन अमेरिकी संसद सहित कई देशों की तीखी प्रतिक्रिया बनी रही।

अभी यह चल ही रहा था कि मोदी सरकार के सामने असम में एनआरसी की अंतिम सूची में 19 लाख लोगों के बाहर रह जाने की चुनौती आन पड़ी, जिसमें तकरीबन 14 लाख लोग हिंदू हैं। इसके राजनैतिक नतीजे असम और खासकर पश्चिम बंगाल में भाजपा के लिए प्रतिकूल हो सकते थे। इसे संभालने के लिए नागरिकता संशोधन कानून, 2019 (सीएए) लाया गया, जिसमें बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से दिसंबर 2014 तक आए गैर-मुसलमानों को नागरिकता देने का प्रावधान है। इसी पर बहस के दौरान अमित शाह संसद में सीएए, एनपीआर और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की “क्रोनोलॉजी” समझा बैठे। फिर तो कई मुद्दों पर घुमड़ रही नाराजगी जैसे फट पड़ी।

विरोध की चिंगारी तो जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से भड़की, जहां पहले ही यह बेरोजगारी और फीस वृद्धि से सुलग रही थी। सरकार को शायद लगा कि इसे पुलिसिया कार्रवाई से काबू में किया जा सकता है। लेकिन पुलिसिया ज्यादती या नाकामी से मामला और भड़क उठा। देश भर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं ने धरना शुरू किया तो वह देश भर में जैसे विरोध का प्रतीक बन गया और हजारों शाहीन बाग धरनास्‍थल बन गए, जहां औरतें दिन-रात धरने पर बैठी हैं।

इसका असर दुनिया भर में दिखा। तमाम मुस्लिम देशों में नाराजगी पैदा हो गई। ओपेक के सदस्य देशों, इराक, ईरान वगैरह ने भी नाराजगी का इजहार किया, जो अमूमन कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के बदले भारत का समर्थन करते रहे हैं। चीन के साथ रूस ने भी भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा पर चिंता जाहिर की। अमेरिका और यूरोप की लिबरल बिरादरी तो पहले ही इस पर खफा थी, दिल्ली दंगों के बाद उसका विरोध चरम पर पहुंच गया। अमेरिकी संसद ने कश्मीर और सीएए पर भारत के प्रतिकूल प्रस्ताव पास किया। ब्रिटेन की धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित समिति ने विरोध दर्ज किया। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति ने तो भारत के सुप्रीम कोर्ट में सीएए के खिलाफ अर्जी ही लगा दी है। भारत कह रहा है कि यह उसका आंतरिक मामला है लेकिन मामला ठंडा नहीं हो रहा है।

यह प्रतिकूल फिजा विदेश में ही नहीं, देश में भी खुलकर दिखने लगी। केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, तेलंगाना, राजस्‍थान, छत्तीसगढ़ जैसे 14 राज्य सरकारें सीएए, एनआरसी, एनपीआर के मौजूदा स्वरूप के खिलाफ प्रस्ताव पास कर चुकी हैं। कुछ राज्य तो नोटिफिकेशन भी जारी कर चुके हैं। शायद इसी वजह से अमित शाह आश्वस्त करते दिखे, ताकि 1 अप्रैल से शुरू होने वाली एनपीआर की प्रक्रिया तो आगे बढ़े। लेकिन कई राज्य सिर्फ जनगणना की प्रक्रिया में ही शामिल होने को तैयार है, जो इसी के साथ शुरू होने वाली है। सरकार ने शायद सोचा है कि दोनों को साथ करने से मामला आगे बढ़ जाएगा। लेकिन संकट बना हुआ है।

इससे भी बड़ा संकट चुनावी राजनीति का है। 2019 और 2020 में हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, दिल्ली के विधानसभा चुनावों में भाजपा को प्रतिकूल नतीजों से जूझना पड़ा है। इसमें बहुसंख्यक आबादी को खुश करने वाले कश्मीर और सीएए जैसे फैसले भी काम नहीं आ पाए। आगे बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं। इस मामले में भाजपा के साथी अकाली दल, जदयू, लोजपा भी उसका साथ नहीं दे रहे हैं। शिवसेना तो पहले ही बिछुड़ चुकी है। इस बीच उसे राज्यसभा में अपना संख्याबल घटने का डर भी सता रहा है।

लिहाजा, शाहीन बाग का असर तो बदस्तूर दिखा। अगर विपक्षी दल भी इतनी ही मजबूती से मोर्चा संभालते तो अर्थव्यवस्‍था की खस्ताहाली के इस दौर में मोदी सरकार के आगे और बड़ी चुनौती खड़ी हो जाती। इसकी संभावनाएं अभी भी मजबूत हैं।

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केंद्र और अमित शाह के अचानक मुलायम रुख में देश और विदेश की कई प्रतिकूल स्थितियों का असर एकदम साफ-साफ दिखा

 

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